- – यह कविता एक पुत्र की आवाज़ है जो अपने पिता से भीख नहीं, बल्कि अपना अधिकार मांग रहा है।
- – पुत्र अपने पिता को याद दिलाता है कि वह उसका हकदार है और उसे सम्मान के साथ उसका अधिकार दिया जाना चाहिए।
- – पिता की संपन्नता और पुत्र के परिवार की गरीबी के बीच का विरोधाभास कविता में स्पष्ट रूप से दिखाया गया है।
- – पुत्र अपने जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकताओं और सुख-शांति की मांग करता है, न कि अधिक भोग-विलास की।
- – कविता में पिता-पुत्र के रिश्ते की गरिमा बनाए रखने और पुत्र के अधिकारों का सम्मान करने की अपील की गई है।
- – यह कविता सामाजिक न्याय और परिवार के भीतर अधिकारों की मांग का प्रतीक है, जो भीख नहीं बल्कि न्याय चाहता है।

भीख नहीं मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार,
मैं नालायक हूँ बेटा,
मैं नालायक हूँ बेटा,
पर तू तो समझदार,
भीख नहीं मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
तर्ज – देना हो तो दीजिये।
सारे जगत के जगत पिता हो,
सबने यही बताया है,
इसीलिए ये पुत्र तुम्हारा,
हक़ लेने को आया है,
जो कुछ है पास तुम्हारे,
जो कुछ है पास तुम्हारे,
मैं हूँ उसका हक़दार,
भीख नही मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
कैसे पिता हो तुम सांवरिया,
तरस नहीं तुम्हे आता हो,
तेरे सामने पुत्र तुम्हारा,
नैन से नीर बहाता है,
तू भोग लगाए छप्पन,
तू भोग लगाए छप्पन,
भूखा मेरा परिवार,
भीख नही मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
पिता पुत्र के इस रिश्ते को,
जग में नहीं बदनाम करो,
जो हक़ में आता है मेरे,
वो अब मेरे नाम करो,
मैं भीख नहीं मांगूगा,
मैं भीख नहीं मांगूगा,
आकर के यहां हर बार,
भीख नही मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
मैं बेबस बेचारा बेधड़क,
कैसे चलाऊं ये जीवन,
एक घर की हमें जरुरत,
और थोड़े सुख के साधन,
ज्यादा की नहीं चाहत हो,
ज्यादा की नहीं चाहत हो,
सुखमय हो घर संसार,
भीख नही मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
भीख नहीं मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार,
मैं नालायक हूँ बेटा,
मैं नालायक हूँ बेटा,
पर तू तो समझदार,
भीख नहीं मुझे चाहिए,
दो मेरा अधिकार।।
