भजन

भ्रमर गीत – Bhajan: Bhramar Geet – Hinduism FAQ

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मुख्य बिंदु

  • – भ्रमर गीत में गोपियाँ मधुकर (मधुमक्खी) को कृष्ण के संदेशवाहक के रूप में देखती हैं और उसे कृष्ण के प्रेम संदेश पहुँचाने का दूत मानती हैं।
  • – गीत में गोपियाँ मधुकर से आग्रह करती हैं कि वह उनके प्रेमी कृष्ण के चरणों की धूल लेकर आए और उनके प्रेम की प्रसन्नता प्रदान करे।
  • – गोपियाँ मधुकर के माध्यम से कृष्ण के प्रेम और उनके साथ बिताए गए समय की स्मृतियाँ साझा करती हैं, जिसमें कृष्ण की मोहिनी रूप और मधुर लीलाओं का वर्णन है।
  • – गीत में गोपियाँ कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति, प्रेम और विरह की पीड़ा व्यक्त करती हैं तथा मधुकर से कृष्ण की खबर लाने की प्रार्थना करती हैं।
  • – भ्रमर गीत में गोपियों की भावनाओं के माध्यम से कृष्ण भक्ति की गहराई और प्रेम की पवित्रता का सुंदर चित्रण मिलता है।

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भजन के बोल

श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले गोपियों के पञ्च प्रेम गीत (, , , और भ्रमर गीत) इनमें से भ्रमर गीत का वर्णन इस प्रकार है।
काचिन्मधुकरं दृष्ट्वा ध्यायन्ती
कृष्णसङ्गमम् प्रियप्रस्थापितं दूतं कल्पयित्वेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
गोप्युवाच
मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं
सपत्न्याः कुचविलुलितमालाकुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः
वहतु मधुपतिस्तन्मानिनीनां प्रसादं यदुसदसि
विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२ ॥
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं
पाययित्वा सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान्भवादृक्
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा ह्यपि
बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥ १३ ॥
किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं
यदूनाम् अधिपतिमगृहाणामग्रतो नः पुराणम्
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः क्षपितकुचरुजस्ते
कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४ ॥
दिवि भुवि च रसायां काः
स्त्रियस्तद्दुरापाः कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का अपि
च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥ १५ ॥
विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं
चाटुकारैर् अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात्
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका व्यसृजदकृतचेताः
किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥
मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे
लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्
बलिमपि
बलिमत्त्वावेष्टयद्ध्वाङ्क्षवद्यस् तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः ॥ १७ ॥
यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट् सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा
विनष्टाः
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति ॥ १८ ॥
वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः
ददृशुरसकृदेतत्तन्नखस्पर्शतीव्र स्मररुज
उपमन्त्रिन्भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९ ॥
प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः
किं वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग
नयसि
कथमिहास्मान्दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥ २० ॥
अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनास्ते
स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान्
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां
गृणीते भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१ ॥

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