- – जीवन अस्थायी है, जैसे पंछी का कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता, वैसे ही मनुष्य का भी स्थायी निवास नहीं है।
- – भौतिक संपत्ति और दौलत बनाने से जीवन का असली उद्देश्य पूरा नहीं होता, क्योंकि अंत में सब कुछ छोड़कर जाना पड़ता है।
- – जीवन को घर भाड़े की तरह समझना चाहिए, जिसमें असली मालिक परमात्मा है और मनुष्य केवल किरायेदार है।
- – सांसारिक कामों में व्यस्त रहकर प्रभु की भक्ति और आध्यात्मिकता को नज़रअंदाज़ करना जीवन का बड़ा नुकसान है।
- – अंत समय पर पछतावा होता है यदि जीवन में आध्यात्मिकता और भक्ति को महत्व न दिया जाए।
- – यह भजन जीवन की अनित्यता और आध्यात्मिक जागरूकता का संदेश देता है।
कब उड़ जाए पँछी,
नही है इसका कोई ठिकाना,
कब उड़ जाए पंछी नही है,
इसका कोई ठिकाना।।
तर्ज – चल उड़ जा रे पँछी।
कँकर पत्थर बीन के तूने,
सुन्दर महल बनाया,
लेकिन तेरा बँगला प्राणी,
तेरे काम न आया,
ये जीवन दो दिन का तेरा,
चलती फिरती माया,
छोड़ घोसला इक दिन बँदे,
पँछी को उड़ जाना,
कब उड़ जाए पंछी नही है,
इसका कोई ठिकाना।।
यह जीवन है घर भाड़े का,
इस पर न इतराना,
जब तक देता रहे किराया,
तब तक का आशियाना,
मालिक बन कर इस पर प्राणी,
हक न अपना जताना,
छोड़के घर को इक दिन बँदे,
तुझको पड़ेगा जाना,
कब उड़ जाए पंछी नही है,
इसका कोई ठिकाना।।
जग मे दिन और रात कमाई,
तू ने शोहरत दौलत,
लेकिन प्रभू के भजन की तूझको,
मिल न पाई फुरसत,
फिर न मिलेगी तुझको बँदे,
आज मिली जो मोहल्लत,
अँत समय इक दिन तुझे प्राणी,
बहुत पड़े पछिताना,
कब उड़ जाए पंछी नही है,
इसका कोई ठिकाना।।
कब उड़ जाए पँछी,
नही है इसका कोई ठिकाना,
कब उड़ जाए पंछी नही है,
इसका कोई ठिकाना।।
– भजन लेखक एवं प्रेषक –
श्री शिवनारायण वर्मा,
मोबा.न.8818932923
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