- – यह कविता कबीरदास जी द्वारा रचित है, जो मानव संबंधों और संसार के नातों पर प्रश्न उठाती है।
- – माता, बहन, भाई, नारी, और नर के बीच के रिश्तों की भावनात्मक उलझनों को दर्शाया गया है।
- – जीवन में दुःख, त्याग और अकेलापन का वर्णन करते हुए संसार की अस्थिरता और मोह-माया पर सवाल उठाए गए हैं।
- – अंतिम पंक्तियों में कबीरदास जी संसार की आशाओं को छोड़कर आत्मा की शांति और सच्चाई की ओर ध्यान देने का संदेश देते हैं।
- – कविता में जीवन के अंत और मृत्यु के बाद रिश्तों की क्षणभंगुरता को भी उजागर किया गया है।
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रे।।
माता कहे यह पुत्र हमारा,
बहन कहे बीर मेरा,
भाई कहे यह भुजा हमारी,
नारी कहे नर मेरा,
जगत में कैसा नाता रे।।
पेट पकड़ के माता रोवे,
बांह पकड़ के भाई,
लपट झपट के तिरिया रोवे,
हंस अकेला जाए,
जगत में कैसा नाता रे।।
जब तक जीवे माता रोवे,
बहन रोवे दस मासा,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे,
फेर करे घर वासा,
जगत में कैसा नाता रे।।
चार जणा मिल गजी बनाई,
चढ़ा काठ की घोड़ी,
चार कोने आग लगाई,
फूंक दियो जस होरी,
जगत में कैसा नाता रे।।
हाड़ जले जस लाकड़ी रे,
केश जले जस घास,
सोना जैसी काया जल गई,
कोइ न आयो पास,
जगत में कैसा नाता रे।।
घर की तिरिया ढूंढन लागी,
ढुंडी फिरि चहु देशा,
कहत कबीर सुनो भई साधो,
छोड़ो जगत की आशा,
जगत में कैसा नाता रे।।
मन फूला फूला फिरे,
जगत में कैसा नाता रे।।
स्वर – प्रकाश गाँधी।
रचना – कबीरदास जी।