- – यह कविता मानव के आंतरिक गुणों और सच्चाई पर प्रकाश डालती है, जिसमें केवल बाहरी रूप से सुंदर दिखना पर्याप्त नहीं माना गया है।
- – मुखड़ा दर्पण में देखकर बाहरी सुंदरता की बजाय मन में दया और धर्म की उपस्थिति को महत्व दिया गया है।
- – कर्मों का महत्व बताया गया है, जहां धर्मी कर्मी सुरक्षित पार उतरता है और पापी जल में डूब जाता है।
- – बाहरी आभूषण और दिखावे की तुलना में मन की सच्चाई और नैतिकता को अधिक महत्व दिया गया है।
- – कविता में जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे परिवार, समाज और माया की व्यर्थता को भी दर्शाया गया है।
- – अंत में कबीर के शब्दों के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि मन की शुद्धता और सच्चाई ही असली मूल्य है।

मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
तेरे दया धर्म नहीं मन में,
तेरे दया धर्म नहीं मन में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
कागज की एक नाव बनाई,
छोड़ी गहरे जल में,
धर्मी कर्मी पार उतर गया,
पापी डूबे जल में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
खाच खाच कर साफा बंदे,
तेल लगावे जुल्फन में,
इण ताली पर घास उगेला,
धेन चरेली बन मे,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
आम की डाली कोयल राजी,
सुआ राजी बन में,
घरवाली तो घर में राजी,
संत राजी बन में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
मोटा मोटा कड़ा पहने,
कान बिदावे तन में,
इण काया री माटी होवेला,
सो सी बीच आंगन में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
कोडी कोडी माया जोड़ी,
जोड़ रखी बर्तन में,
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
रहेगी मन री मन में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
मुखड़ा क्या देखे दर्पण में,
तेरे दया धर्म नहीं मन में,
तेरे दया धर्म नहीं मन में,
मुखड़ा क्या देखे दर्पण मे।।
स्वर – रामनिवास जी राव।
प्रेषक – सुभाष सारस्वा नोखा काकड़ा
9024909170
