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परमेश्वर स्तुति स्तोत्रम् in Hindi/Sanskrit

त्वमेकः शुद्धोऽसि त्वयि निगमबाह्या मलमयं
प्रपञ्चं पश्यन्ति भ्रमपरवशाः पापनिरताः।
बहिस्तेभ्यः कृत्वा स्वपदशरणं मानय विभो
गजेन्द्रे दृष्टं ते शरणद वदान्यं स्वपददम्॥1॥

न सृष्टेस्ते हानिर्यदि हि कृपयातोऽवसि च मां
त्वयानेके गुप्ता व्यसनमिति तेऽस्ति श्रुतिपथे।
अतो मामुद्धर्तुं घटय मयि दृष्टि सुविमलां
न रिक्तां मे याच्ञां स्वजनरत कर्तुं भव हरे॥2॥

कदाहं भो स्वामिन्नियतमनसा त्वां हृदि
भजन्नभद्रे संसारे ह्यनवरतदुःखेऽतिविरसः।
लभेयं तां शान्तिं परममुनिभिर्या ह्यधिगता
दयां कृत्वा मे त्वं वितर परशान्तिं भवहर॥3॥

विधाता चेद्विश्वं सृजति सृजतां मे शुभकृतिं
विधुश्चेत्पाता मावतु जनिमृतेर्दुःखजलधेः।
हरः संहर्ता संहरतु मम शोकं सजनकं
यथाहं मुक्तः स्यां किमपि तु तथा ते विदधताम्॥4॥

अहं ब्रह्मानन्दस्त्वमपि च तदाख्यः सुविदित
स्ततोऽहं भिन्नो नो कथमपि भवत्तः श्रुतिदृशा।
तथा चेदानीं त्वं त्वयि मम विभेदस्य जननीं
स्वमायां संवार्य प्रभव मम भेदं निरसितुम्॥5॥

कदाहं हे स्वामिञ्जनिमृतिमयं दुःखनिबिडं
भवं हित्वा सत्येऽनवरतसुखे स्वात्मवपुषि।
रमे तस्मिन्नित्यं निखिलमुनयो ब्रह्मरसिका
रमन्ते यस्मिंस्ते कृतसकलकृत्या यतिवरा॥6॥

पठन्त्येके शास्त्रं निगममपरे तत्परतया
यजन्त्यन्ये त्वां वै ददति च पदार्थांस्तव हितान्।
अहं तु स्वामिंस्ते शरणमगमं संसृतिभयाद्यथा
ते प्रीतिः स्याद्धितकर तथा त्वं कुरु विभो॥7॥

अहं ज्योतिर्नित्यो गगनमिव तृप्तः सुखमयः
श्रुतौ सिद्धोऽद्वैतः कथमपि न भिन्नोऽस्मि विधुतः।
इति ज्ञाते तत्त्वे भवति च परः संसृतिलया
दतस्तत्त्वज्ञानं मयि सुघटयेस्त्वं हि कृपया॥8॥

अनादौ संसारे जनिमृतिमये दुःखितमना
मुमुक्षुः सन्कश्चिद्भजति हि गुरुं ज्ञानपरमम्।
ततो ज्ञात्वा यं वै तुदति न पुनः क्लेशनिवहै
भजेऽहं तं देवं भवति च परो यस्य भजनात्॥9॥

विवेको वैराग्यो न च शमदमाद्याः षडपरे
मुमुक्षा मे नास्ति प्रभवति कथं ज्ञानममलम्।
अतः संसाराब्धेस्तरणसरणिं मामुपदिशन्
स्वबुद्धिं श्रौतीं मे वितर भगवंस्त्वं हि कृपया॥10॥

कदाहं भो स्वामिन्निगममतिवेद्यं शिवमयं
चिदानन्दं नित्यं श्रुतिहृतपरिच्छेदनिवहम्।
त्वमर्थाभिन्नं त्वामभिरम इहात्मन्यविरतं
मनीषामेवं मे सफलय वदान्य स्वकृपया॥11॥

यदर्थं सर्वं वै प्रियमसुधनादि प्रभवति
स्वयं नान्यार्थो हि प्रिय इति च वेदे प्रविदितम्।
स आत्मा सर्वेषां जनिमृतिमतां वेदगदित
स्ततोऽहं तं वेद्यं सततममलं यामि शरणम्॥12॥

मया त्यक्तं सर्वं कथमपि भवेत्स्वात्मनि मतिस्त्वदीया
माया मां प्रति तु विपरीतं कृतवती।
ततोऽहं किं कुर्यां न हि मम मतिः क्वापि चरति
दयां कृत्वा नाथ स्वपदशरणं देहि शिवदम्॥13॥

नगा दैत्या: कीशा भवजलधिपारं हि गमितास्त्वया
चान्ये स्वामिन्किमिति समयेऽस्मिञ्छयितवान्।
न हेलां त्वं कुर्यास्त्वयि निहितसर्वे मयि विभो
न हि त्वाहं हित्वा कमपि शरणं चान्यमगमम्॥14॥

अनन्ताद्या विज्ञा न गुणजलधेस्तेऽन्तमगमन्नतः
न पारं यायात्तव गुणगणानां कथमयम्।
गुणवद्धि त्वां जनिमृतिहरं याति परमां
गतिं योगिप्राप्यामिति मनसि बुद्ध्वाहमनवम्॥15॥

Parameshwara Stuti Stotram in English

Tvamekaḥ śuddho’si tvayi nigamabāhyā malamayaṁ
prapañcaṁ paśyanti bhramaparavaśāḥ pāpaniratāḥ।
Bahistebhyaḥ kṛtvā svapadaśaraṇaṁ mānaya vibho
gajendre dṛṣṭaṁ te śaraṇada vadānyaṁ svapadadam॥1॥

Na sṛṣṭeste hānir yadi hi kṛpayāto’vasi ca māṁ
tvayāneke guptā vyasanamiti te’sti śrutipathe।
Ato māmuddhartuṁ ghaṭaya mayi dṛṣṭi suvimalāṁ
na riktāṁ me yācñāṁ svajanarata kartuṁ bhava hare॥2॥

Kadāhaṁ bho svāmin niyatamanasā tvāṁ hṛdi
bhajannabhadre saṁsāre hyanavarataduḥkhe’tivirasaḥ।
Labheyaṁ tāṁ śāntiṁ paramamunibhir yā hyadhigatā
dayāṁ kṛtvā me tvaṁ vitara paraśāntiṁ bhava hara॥3॥

Vidhātā ced viśvaṁ sṛjati sṛjatāṁ me śubhakṛtiṁ
vidhuś cet pāta māvatu janimṛter duḥkhajaladheḥ।
Haraḥ saṁhartā saṁharatu mama śokaṁ sajanakaṁ
yathāhaṁ muktaḥ syāṁ kimapi tu tathā te vidadhatām॥4॥

Ahaṁ brahmānandas tvamapi ca tadākhyaḥ suviditaḥ
tato’haṁ bhinno no kathamapi bhavattaḥ śrutidṛśā।
Tathā cedānīṁ tvaṁ tvayi mama vibhedasya jananīṁ
svamāyāṁ saṁvārya prabhava mama bhedaṁ nirasitum॥5॥

Kadāhaṁ he svāmiñ janimṛtimayaṁ duḥkhanibiḍaṁ
bhavaṁ hitvā satye’navaratasukhe svātmavapuṣi।
Rame tasminnityaṁ nikhilamunayo brahmarasikā
ramante yasmīṁste kṛtasakalakṛtyā yativarāḥ॥6॥

Paṭhantyeke śāstraṁ nigamamapare tatparatayā
yajantyanye tvāṁ vai dadati ca padārthāṁstava hitān।
Ahaṁ tu svāminste śaraṇamagamaṁ saṁsṛtibhayād yathā
te prītiḥ syāddhitakara tathā tvaṁ kuru vibho॥7॥

Ahaṁ jyotirnityo gaganamiva tṛptaḥ sukhamayaḥ
śrutau siddho’dvaitaḥ kathamapi na bhinno’smi vidhutaḥ।
Iti jñāte tattve bhavati ca paraḥ saṁsṛtilayā
dataḥ tattvajñānaṁ mayi sughaṭayestvaṁ hi kṛpayā॥8॥

Anādau saṁsāre janimṛtimaye duḥkhitamanā
mumukṣuḥ san kaścid bhajati hi guruṁ jñānaparamam।
Tato jñātvā yaṁ vai tudati na punaḥ kleśanivahai
bhaje’haṁ taṁ devaṁ bhavati ca paro yasya bhajanāt॥9॥

Viveko vairāgyo na ca śamadamādyāḥ ṣaḍapare
mumukṣā me nāsti prabhavati kathaṁ jñānamamalam।
Ataḥ saṁsārābdhes taraṇasaraṇiṁ māmupadiśan
svabuddhiṁ śrautīṁ me vitara bhagavaṁstvaṁ hi kṛpayā॥10॥

Kadāhaṁ bho svāmin nigamativedyaṁ śivamayaṁ
cidānandaṁ nityaṁ śrutihṛtaparicchedanivaham।
Tvamarthābhinnaṁ tvāmabhirama ihātmanyavirataṁ
manīṣāmevaṁ me saphalaya vadānya svakṛpayā॥11॥

Yadarthaṁ sarvaṁ vai priyamasudhanādi prabhavati
svayaṁ nānyārtho hi priya iti ca vede praviditam।
Sa ātmā sarveṣāṁ janimṛtimatāṁ vedagaditaḥ
tato’haṁ taṁ vedyaṁ satatamamalaṁ yāmi śaraṇam॥12॥

Mayā tyaktaṁ sarvaṁ kathamapi bhavetsvātmani matis tvadīyā
māyā māṁ prati tu viparītaṁ kṛtavatī।
Tato’haṁ kiṁ kuryāṁ na hi mama matiḥ kvāpi carati
dayāṁ kṛtvā nātha svapadaśaraṇaṁ dehi śivadam॥13॥

Nagā daityāḥ kīśā bhavajaladhipāraṁ hi gamitās tvayā
cānye svāmin kimiti samaye’smiñ chayitavān।
Na helāṁ tvaṁ kuryās tvayi nihitasarve mayi vibho
na hi tvāhaṁ hitvā kamapi śaraṇaṁ cānyamagamam॥14॥

Anantādyā vijñā na guṇajaladhe ste’ntam agaman nataḥ
na pāraṁ yāyāt tava guṇagaṇānāṁ kathamayam।
Guṇavaddhi tvāṁ janimṛtiharaṁ yāti paramāṁ
gatiṁ yogiprāpyām iti manasi buddhvāham anavam॥15॥

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परमेश्वर स्तुति स्तोत्रम् का अर्थ

त्वमेकः शुद्धोऽसि त्वयि निगमबाह्या मलमयं

इस श्लोक का प्रथम पंक्ति में भगवान की एकता और शुद्धता का वर्णन किया गया है। “त्वमेकः शुद्धोऽसि” का अर्थ है “तुम अकेले ही शुद्ध हो।” यहाँ भगवान को ‘एकमात्र शुद्ध’ बताया गया है, जो किसी भी प्रकार के बुराइयों या अशुद्धियों से परे हैं।
“त्वयि निगमबाह्या मलमयं प्रपञ्चं पश्यन्ति” का अर्थ है कि जिनके हृदय में पाप, अशुद्धता या भ्रम है, वे संसार को केवल माया का खेल समझते हैं। वे भगवान की दिव्यता को नहीं देख पाते और संसार को मल-मय यानी अशुद्धियों से भरा मानते हैं।

भ्रमपरवशाः पापनिरताः

यह वाक्य उन लोगों की स्थिति को दर्शाता है जो भ्रम और पापों में फंसे हुए हैं। ये लोग संसार की माया में फंसकर भगवान की वास्तविकता को नहीं समझ पाते। यह दर्शाता है कि पाप और भ्रम मनुष्य को सच्चाई से अंधा कर देते हैं, और वे संसार के वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते।

बहिस्तेभ्यः कृत्वा स्वपदशरणं मानय विभो

यहाँ भगवान से प्रार्थना की जा रही है कि वे उन पाप और भ्रम में लिप्त लोगों से अपने आपको दूर रखें और अपने स्वधाम, स्वपद में शरण दें। यह भगवान से कृपा और शरण की याचना का भाव है। ‘स्वपद’ का अर्थ भगवान का धाम या चरणों की शरण है।

गजेन्द्रे दृष्टं ते शरणद वदान्यं स्वपददम्

इस पंक्ति में गजेंद्र की कथा का संदर्भ दिया गया है। गजेंद्र जब संकट में था, तब भगवान ने उसकी शरण स्वीकार की थी और उसे मुक्ति दिलाई थी। यह श्लोक भगवान को उस वदान्यता (उदारता) की याद दिलाता है और उनसे यही उदारता दिखाने की याचना की जाती है।

न सृष्टेस्ते हानिर्यदि हि कृपयातोऽवसि च मां

यहाँ भगवान से याचना की जाती है कि उनकी सृष्टि में कोई हानि नहीं होती यदि वे अपनी कृपा से भक्त की रक्षा करते हैं। संसार की सृष्टि भगवान की ही माया है, और वे जब चाहें इसे बदल सकते हैं। इस कारण अगर वे किसी व्यक्ति की रक्षा करते हैं, तो सृष्टि में कोई कमी या नुकसान नहीं होता।

त्वयानेके गुप्ता व्यसनमिति तेऽस्ति श्रुतिपथे

यहाँ कहा गया है कि भगवान की कृपा से अनेक लोग पहले ही संकटों से बचाए जा चुके हैं, और यह सत्य वेदों में भी उल्लेखित है। इसलिए, यहाँ भगवान से प्रार्थना की जा रही है कि वे भक्त को भी उसी प्रकार संकट से उबारें, जैसे वे अन्य भक्तों की सहायता करते आए हैं।

अतो मामुद्धर्तुं घटय मयि दृष्टि सुविमलां

यह पंक्ति भक्त की याचना को और गहरी बनाती है। यहाँ भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वे अपनी सुविमल दृष्टि (पवित्र दृष्टि) से उसे देखे और उसकी रक्षा करें।

न रिक्तां मे याच्ञां स्वजनरत कर्तुं भव हरे

भक्त यहाँ भगवान से कहता है कि उसकी प्रार्थना को खाली न जाने दें। वह चाहता है कि उसकी याचना को स्वीकार किया जाए, जैसे भगवान ने अपने अन्य भक्तों की सहायता की है।

कदाहं भो स्वामिन्नियतमनसा त्वां हृदि भजन्नभद्रे संसारे

यहाँ भक्त भगवान से पूछ रहा है, “कब ऐसा समय आएगा, हे स्वामी, जब मैं नियत मन से तुम्हारा हृदय में ध्यान कर सकूंगा?” इस पंक्ति में संसार को ‘अभद्र’ यानी अशुभ कहा गया है, जो दुखों से भरा हुआ है। भक्त भगवान से प्रश्न करता है कि वह कब इस संसार के दुखों से मुक्त होकर सच्चे हृदय से भगवान की आराधना कर सकेगा।

ह्यनवरतदुःखेऽतिविरसः

यह वाक्य संसार के निरंतर दुःखों और उनमें फंसे रहने की पीड़ा को व्यक्त करता है। संसार की इच्छाएं और मोह मनुष्य को ‘अतिविरस’ (बिना रस के) बना देती हैं। अर्थात संसार के सुख क्षणिक हैं और अंत में केवल दुःख ही बचता है। यहाँ भक्त यह समझता है कि संसार के सारे सुख-साधन अस्थायी हैं और उनमें कोई सच्चा आनंद नहीं है।

लभेयं तां शान्तिं परममुनिभिर्या ह्यधिगता

यहाँ भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वह उस परम शांति को प्राप्त करना चाहता है, जिसे परम मुनियों और योगियों ने प्राप्त किया है। यह ‘परम शांति’ आत्मिक आनंद और मोक्ष की स्थिति है, जहां सभी प्रकार के सांसारिक दुःखों का अंत हो जाता है।

दयां कृत्वा मे त्वं वितर परशान्तिं भवहर

अंत में, भक्त भगवान से दया की याचना करता है। वह भगवान से कहता है कि अपनी कृपा से उसे ‘परशांति’ (सर्वोच्च शांति) प्रदान करें और संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से उसे मुक्त करें। “भवहर” शब्द का अर्थ है “संसार बंधनों का नाश करने वाला।”

विधाता चेद्विश्वं सृजति सृजतां मे शुभकृतिं

इस श्लोक में भगवान को ‘विधाता’ कहा गया है, जो सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन करते हैं। यहाँ भक्त उनसे प्रार्थना करता है कि अगर विधाता को सृजन करना ही है, तो वे उसके लिए केवल ‘शुभकृति’ (सद्गुण और शुभ कर्म) का ही सृजन करें। भक्त यह चाहता है कि उसके जीवन में केवल पुण्य और अच्छे कार्य ही फलित हों।

विधुश्चेत्पाता मावतु जनिमृतेर्दुःखजलधेः

यह पंक्ति चंद्रमा (विधु) को इंगित करती है, जो शांत और करुणामयी प्रकृति का प्रतीक है। यहाँ भक्त चंद्रमा से आशा करता है कि वह जन्म-मृत्यु के दुःख-सागर से उसकी रक्षा करे।

हरः संहर्ता संहरतु मम शोकं सजनकं

यहाँ शिव (हर) की स्तुति की गई है, जो संहारक हैं। भक्त उनसे प्रार्थना करता है कि वे उसके सभी शोक और कष्टों को समाप्त कर दें। “सजनक” का अर्थ है जन्म से जुड़ी हुई सभी पीड़ाएं।

यथाहं मुक्तः स्यां किमपि तु तथा ते विदधताम्

यह पंक्ति मोक्ष की याचना का प्रतीक है। भक्त कहता है कि भगवान ऐसा कुछ करें कि वह संसार के बंधनों से मुक्त हो सके। यह पंक्ति भगवान के प्रति पूरी तरह से आत्मसमर्पण की भावना को व्यक्त करती है, जहाँ भक्त मोक्ष की इच्छा रखता है।

अहं ब्रह्मानन्दस्त्वमपि च तदाख्यः सुविदित

इस श्लोक में भक्त कहता है कि “मैं ब्रह्मानंद हूँ और तुम भी वही ब्रह्मानंद हो।” यहाँ भक्त अपनी और भगवान की एकता का वर्णन करता है, जहां आत्मा और परमात्मा को अलग नहीं माना गया है। यह वेदांत दर्शन की अद्वैत विचारधारा को प्रकट करता है, जिसमें कहा गया है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं।

स्ततोऽहं भिन्नो नो कथमपि भवत्तः श्रुतिदृशा

भक्त आगे कहता है कि वह किसी भी प्रकार से भगवान से भिन्न नहीं है। वेदों में यह ज्ञान स्पष्ट रूप से दिया गया है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। यहाँ भक्त अपने और भगवान के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं मानता।

तथा चेदानीं त्वं त्वयि मम विभेदस्य जननीं

यहाँ भक्त भगवान से कहता है कि वे उसके और भगवान के बीच जो भी विभेद है, उसे समाप्त करें। “विभेदस्य जननीं” का अर्थ है विभाजन को जन्म देने वाली माया। भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वे अपनी माया को समाप्त कर दें ताकि वह अपने और भगवान के बीच की एकता को अनुभव कर सके।

स्वमायां संवार्य प्रभव मम भेदं निरसितुम्

अंत में, भक्त भगवान से विनती करता है कि वे अपनी माया को नियंत्रित करें और उसे उसकी वास्तविकता का बोध कराएं। भक्त चाहता है कि भगवान उसकी माया को हटाकर उसे मोक्ष और भगवान से एकता का अनुभव कराएं।

कदाहं हे स्वामिञ्जनिमृतिमयं दुःखनिबिडं

यहाँ भक्त भगवान से पूछता है कि “हे स्वामी! कब मैं इस जन्म-मृत्यु के चक्र और दुखों से भरे संसार से मुक्त हो पाऊंगा?” भक्त को संसार की पीड़ा का अनुभव हो रहा है, जहाँ जीवन लगातार दुखों और संकटों से भरा है।

भवं हित्वा सत्येऽनवरतसुखे स्वात्मवपुषि

भक्त भगवान से कहता है कि वह इस संसार (भव) को त्याग कर सत्य स्वरूप में स्थित होना चाहता है। “स्वात्मवपुषि” का अर्थ है आत्मा के स्वरूप में, जहाँ केवल सत्य और आनंद होता है। भक्त यहाँ संसार के असत्य और मोह माया से हटकर सत्यस्वरूप में रमने की इच्छा व्यक्त करता है।

रमे तस्मिन्नित्यं निखिलमुनयो ब्रह्मरसिका

यहाँ भक्त बताता है कि सभी मुनि और ऋषि इस आत्मानंद में सदा रमते रहते हैं। “ब्रह्मरसिका” का अर्थ है वे लोग जो ब्रह्म (परमात्मा) के आनंद में डूबे रहते हैं। यह श्लोक इस बात की पुष्टि करता है कि जो लोग सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक होते हैं, वे केवल आत्मानंद में स्थित होते हैं।

रमन्ते यस्मिंस्ते कृतसकलकृत्या यतिवरा

यहाँ कहा गया है कि जो इस परम ब्रह्म में रमते हैं, वे सभी प्रकार की कृत्यों से मुक्त हो जाते हैं। “कृतसकलकृत्या” का अर्थ है जिन्होंने सभी प्रकार के कर्तव्यों और कर्मों को पूरा कर लिया है। यतिवर (श्रेष्ठ योगी) भी इस आनंद में स्थित रहते हैं और उनके जीवन का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

पठन्त्येके शास्त्रं निगममपरे तत्परतया

यहाँ विभिन्न साधकों के साधनाओं का वर्णन किया गया है। कुछ लोग शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, कुछ वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में पूरी तरह लीन रहते हैं। भक्त यहाँ कह रहा है कि दुनिया में अनेक लोग हैं जो विभिन्न प्रकार से भगवान की उपासना करते हैं।

यजन्त्यन्ये त्वां वै ददति च पदार्थांस्तव हितान्

कुछ लोग यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान) करते हैं और भगवान को अपने हित में अर्पण (अधिकार) करते हैं। यहाँ यह बताया गया है कि लोग अलग-अलग तरीके से भगवान की पूजा और उपासना करते हैं, जैसे यज्ञ, दान, और अर्पण।

अहं तु स्वामिंस्ते शरणमगमं संसृतिभयाद्यथा

भक्त कहता है कि उसने इन सभी कर्मों को छोड़कर भगवान की शरण ली है। “संसृतिभय” का अर्थ है संसार के जन्म-मरण के चक्र का भय। भक्त इस भय से मुक्त होने के लिए भगवान की शरण लेता है।

ते प्रीतिः स्याद्धितकर तथा त्वं कुरु विभो

अंत में भक्त भगवान से कहता है कि उनकी कृपा और प्रेम उसे प्राप्त हो। वह भगवान से यह प्रार्थना करता है कि वे उसके जीवन में वही करें जो उसके लिए सर्वोत्तम और हितकर हो।

अहं ज्योतिर्नित्यो गगनमिव तृप्तः सुखमयः

इस श्लोक में भक्त अपने आत्मिक स्वरूप का वर्णन कर रहा है। वह कहता है कि “मैं नित्य हूँ, ज्योतिर्मय हूँ और आकाश के समान असीम हूँ।” यह आत्मा का वह स्वरूप है जो शाश्वत, आनंदमय और असीमित है।

श्रुतौ सिद्धोऽद्वैतः कथमपि न भिन्नोऽस्मि विधुतः

भक्त यहाँ कहता है कि वह शास्त्रों के अनुसार अद्वैत (अद्वितीय) सिद्ध हो चुका है। अद्वैत दर्शन के अनुसार आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। इसलिए, भक्त कहता है कि वह किसी भी प्रकार से भगवान से अलग नहीं है।

इति ज्ञाते तत्त्वे भवति च परः संसृतिलया

जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, तब संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का नाश हो जाता है। यह श्लोक अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को स्पष्ट करता है कि आत्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होने पर व्यक्ति संसार के सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।

दतस्तत्त्वज्ञानं मयि सुघटयेस्त्वं हि कृपया

अंत में, भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वह इस तत्वज्ञान को उसके हृदय में स्थायी रूप से स्थापित करें। यहाँ भगवान से कृपा की याचना की जा रही है ताकि भक्त को सच्चे ज्ञान का अनुभव हो सके और वह संसार के बंधनों से मुक्त हो सके।

अनादौ संसारे जनिमृतिमये दुःखितमना

यहाँ भक्त संसार के अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) और असीमित चक्र का वर्णन कर रहा है। “जनिमृतिमय” का अर्थ है जन्म और मृत्यु से भरा हुआ संसार, जिसमें लगातार दुःख और पीड़ा होती रहती है। भक्त इस संसार में अपनी पीड़ा और अशांति का अनुभव करता है।

मुमुक्षुः सन् कश्चिद्भजति हि गुरुं ज्ञानपरमम्

इस पंक्ति में भक्त कहता है कि जो व्यक्ति मोक्ष (मुक्ति) की इच्छा रखता है, वह ज्ञान के लिए गुरु की शरण लेता है। “मुमुक्षु” वह होता है जो संसार के बंधनों से मुक्त होना चाहता है और इस मुक्ति के लिए वह ज्ञानमार्ग को अपनाता है। यहाँ गुरु को ज्ञान का स्रोत माना गया है, जो साधक को मोक्ष की राह दिखाता है।

ततो ज्ञात्वा यं वै तुदति न पुनः क्लेशनिवहै

जब व्यक्ति सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तो फिर उसे संसार के कष्ट और दुख नहीं सताते। ज्ञान प्राप्त करने के बाद व्यक्ति किसी भी प्रकार के सांसारिक क्लेशों से परे हो जाता है, और उसे जीवन में कोई भी दुख नहीं होता।

भजेऽहं तं देवं भवति च परो यस्य भजनात्

अंत में भक्त कहता है कि वह ऐसे भगवान की आराधना करता है, जिसकी उपासना से व्यक्ति परम स्थिति को प्राप्त करता है। यह स्थिति मोक्ष या आत्मिक मुक्ति है, जहाँ संसार के सारे दुख और क्लेश समाप्त हो जाते हैं।

विवेको वैराग्यो न च शमदमाद्याः षडपरे

यहाँ भक्त अपनी दुर्बलता को व्यक्त करता है। वह कहता है कि उसके पास विवेक (सही-गलत का ज्ञान), वैराग्य (संसार से विरक्ति) और शम (मन की शांति) तथा दम (इंद्रियों पर नियंत्रण) जैसे गुण नहीं हैं। “षडपरे” का अर्थ है छह गुण—शम, दम, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान, और उपरति।

मुमुक्षा मे नास्ति प्रभवति कथं ज्ञानममलम्

भक्त आगे स्वीकार करता है कि उसके अंदर मुक्ति की तीव्र इच्छा (मुमुक्षा) भी नहीं है। वह कहता है कि इन गुणों के अभाव के कारण वह कैसे पवित्र ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह श्लोक भक्त की विनम्रता और आत्म-स्वीकार का उदाहरण है, जहाँ वह अपनी कमजोरियों को भगवान के सामने प्रस्तुत करता है।

अतः संसाराब्धेस्तरणसरणिं मामुपदिशन्

भक्त यहाँ भगवान से प्रार्थना करता है कि वह उसे संसार-सागर से पार करने का मार्ग दिखाएं। “संसाराब्धि” का अर्थ है संसार रूपी समुद्र, जिसमें व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र में फंसा हुआ है। भक्त इस सागर को पार करने के लिए मार्गदर्शन की याचना करता है।

स्वबुद्धिं श्रौतीं मे वितर भगवंस्त्वं हि कृपया

अंत में, भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वह अपनी बुद्धि और वेदों की ज्ञान से उसकी सहायता करें। भक्त चाहता है कि भगवान उसे सही मार्ग दिखाएं ताकि वह संसार के बंधनों से मुक्त हो सके।

कदाहं भो स्वामिन्निगममतिवेद्यं शिवमयं

यहाँ भक्त भगवान से फिर पूछता है कि “हे स्वामी! कब मैं तुम्हें हृदय में धारण कर सकूंगा, जो वेदों से परे, सर्वव्यापी और कल्याणकारी हैं?” इस पंक्ति में भगवान की महानता का वर्णन किया गया है, जो वेदों और उपनिषदों से भी अधिक गूढ़ हैं और जिनकी आराधना से कल्याण प्राप्त होता है।

चिदानन्दं नित्यं श्रुतिहृतपरिच्छेदनिवहम्

यहाँ भक्त भगवान को ‘चिदानंद’ कहता है, जिसका अर्थ है शुद्ध चेतना और परम आनंद। भगवान चिदानंद स्वरूप हैं और वे नित्य हैं, अर्थात समय और स्थान से परे हैं। “श्रुतिहृतपरिच्छेदनिवहम्” का अर्थ है वेदों के अध्ययन और विचारों द्वारा सीमाओं को भंग करने वाला।

त्वमर्थाभिन्नं त्वामभिरम इहात्मन्यविरतं

भक्त भगवान से कहता है कि वह तुम्हारी आराधना में लीन रहना चाहता है, क्योंकि तुम अर्थ से अभिन्न हो, यानी तुम्हारा कोई भेद नहीं है। वह चाहता है कि उसकी आत्मा निरंतर भगवान के साथ एकता में रमण करे।

मनीषामेवं मे सफलय वदान्य स्वकृपया

अंत में, भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि उसकी यह इच्छा पूरी हो, और भगवान अपनी कृपा से उसे सफल बनाएं। यहाँ “वदान्य” का अर्थ है दयालु और उदार, और भक्त भगवान से उनकी कृपा की याचना करता है।

यदर्थं सर्वं वै प्रियमसुधनादि प्रभवति

यह श्लोक इस गूढ़ सत्य को व्यक्त करता है कि संसार में हर प्रिय वस्तु का अस्तित्व भगवान की कृपा से ही है। चाहे वह धन-संपत्ति हो या कोई अन्य सुखदायक वस्तु, सब भगवान के कारण ही प्रिय होते हैं।

स्वयं नान्यार्थो हि प्रिय इति च वेदे प्रविदितम्

वेदों में यह स्पष्ट किया गया है कि वस्तुएं स्वयं में प्रिय नहीं होतीं, बल्कि वे केवल भगवान के कारण प्रिय होती हैं। यह श्लोक बताता है कि संसार की सभी वस्तुएं भगवान के कारण ही मूल्यवान और प्रिय होती हैं, अन्यथा उनका कोई महत्व नहीं है।

स आत्मा सर्वेषां जनिमृतिमतां वेदगदित

यहाँ भगवान को ‘आत्मा’ कहा गया है, जो सभी प्राणियों का स्रोत हैं। वे ही सबका जन्म और मृत्यु का कारण हैं, और वेदों में उनका यह स्वरूप वर्णित है।

स्ततोऽहं तं वेद्यं सततममलं यामि शरणम्

अंत में, भक्त कहता है कि वह उस शुद्ध और निष्कलंक भगवान की शरण में जाता है, जो सदा जानने योग्य हैं। भक्त यहाँ अपनी आत्मा को भगवान की शरण में समर्पित करता है और उनसे संरक्षण की याचना करता है।

मया त्यक्तं सर्वं कथमपि भवेत्स्वात्मनि मतिस्त्वदीया

यहाँ भक्त अपनी आत्म-समर्पण की भावना को व्यक्त करता है। वह कहता है कि उसने सभी सांसारिक वस्तुओं को त्याग दिया है, और अब वह चाहता है कि उसकी मति (बुद्धि) भगवान में ही स्थित हो जाए। “स्वात्मनि मतिस्त्वदीया” का अर्थ है कि भक्त चाहता है कि उसकी बुद्धि हमेशा भगवान में लीन रहे।

माया मां प्रति तु विपरीतं कृतवती

यहाँ भक्त कहता है कि माया (भगवान की शक्ति) ने उसे भ्रमित कर दिया है। यह माया ही है जो भक्त को भगवान से दूर कर देती है और संसार में उलझाए रखती है।

ततोऽहं किं कुर्यां न हि मम मतिः क्वापि चरति

भक्त यहाँ अपनी असहायता व्यक्त करता है। वह कहता है कि वह क्या कर सकता है, क्योंकि उसकी मति कहीं भी स्थिर नहीं हो रही है। माया के प्रभाव के कारण भक्त की बुद्धि भगवान में स्थिर नहीं हो पा रही है।

दयां कृत्वा नाथ स्वपदशरणं देहि शिवदम्

अंत में, भक्त भगवान से प्रार्थना करता है कि वे अपनी दया दिखाएं और उसे अपने चरणों की शरण दें, जहाँ उसे कल्याण और शांति प्राप्त हो सके। “शिवदम्” का अर्थ है कल्याणकारी। भक्त यहाँ भगवान से अपनी मुक्ति और शांति की याचना करता है।

नगा दैत्या: कीशा भवजलधिपारं हि गमितास्त्वया

इस श्लोक में भगवान की महिमा का वर्णन किया गया है। भक्त कहता है कि भगवान ने पहाड़ों (नगा), दैत्यों (राक्षसों) और कीशाओं (वानरों) को भवसागर (संसार के समुद्र) के पार पहुँचाया है। यहाँ नगा, दैत्य, और कीशा को प्रतीकात्मक रूप में लिया गया है, जो विभिन्न प्रकार के जीवों और प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान ने इन सभी को संसार के कष्टों से मुक्त किया है।

चान्ये स्वामिन्किमिति समयेऽस्मिञ्छयितवान्

भक्त भगवान से प्रश्न करता है कि “हे स्वामी! तुमने दूसरों की मदद की है, तो फिर इस समय मेरी सहायता करने में क्यों संकोच कर रहे हो?” यहाँ भक्त भगवान से आग्रह करता है कि जैसे उन्होंने अन्य जीवों को मुक्ति प्रदान की है, वैसे ही उसे भी मुक्ति प्रदान करें।

न हेलां त्वं कुर्यास्त्वयि निहितसर्वे मयि विभो

भक्त यहाँ भगवान से कहता है कि “हे विभो! मुझ पर कृपा करें और मेरी प्रार्थना को हल्के में न लें।” वह कहता है कि उसने अपनी सारी आशाएं भगवान पर टिका दी हैं और अब केवल उनकी कृपा का ही भरोसा है।

न हि त्वाहं हित्वा कमपि शरणं चान्यमगमम्

यह पंक्ति भक्त की पूर्ण समर्पण भावना को व्यक्त करती है। भक्त कहता है कि उसने भगवान के अलावा किसी और की शरण नहीं ली है। यह वाक्य इस बात को उजागर करता है कि भक्त ने अपनी आत्मा को पूरी तरह भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है।

अनन्ताद्या विज्ञा न गुणजलधेस्तेऽन्तमगमन्नतः

इस श्लोक में भगवान की असीम महिमा का वर्णन किया गया है। “अनन्ताद्या विज्ञा” का अर्थ है अनंत आदि देवताओं और ऋषियों ने भी भगवान की गुणों की सीमा को नहीं पाया है। यहाँ भगवान को ‘गुणजलधि’ कहा गया है, जिसका अर्थ है गुणों का समुद्र।

न पारं यायात्तव गुणगणानां कथमयम्

यहाँ भक्त कहता है कि कोई भी व्यक्ति भगवान के गुणों की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान के गुण असीम और अज्ञेय हैं। यह पंक्ति भगवान की महिमा और उनकी अपार शक्ति को व्यक्त करती है।

गुणवद्धि त्वां जनिमृतिहरं याति परमां

भक्त कहता है कि गुणों से सम्पन्न भगवान ही जन्म और मृत्यु के चक्र को समाप्त कर सकते हैं। “जनिमृतिहरं” का अर्थ है जन्म-मृत्यु का नाश करने वाला। भक्त यहाँ भगवान से अपनी मुक्ति की याचना करता है।

गतिं योगिप्राप्यामिति मनसि बुद्ध्वाहमनवम्

अंत में, भक्त कहता है कि वह मन में यह सोचकर भगवान की आराधना करता है कि वह उसी परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करेगा, जिसे योगी और संतजन प्राप्त करते हैं। यहाँ “अनवम्” का अर्थ है अद्वितीय या सर्वोच्च। भक्त अपनी आराधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखता है।

भगवान की एकता और शुद्धता का भाव:

प्रारंभिक श्लोकों में भगवान की एकमात्र शुद्धता की चर्चा की गई है। “त्वमेकः शुद्धोऽसि” की व्याख्या यह बताती है कि भगवान केवल एक हैं और वे पूर्ण रूप से शुद्ध हैं। संसार की सभी अशुद्धियाँ और दुख भगवान के प्रभाव से बाहर हैं। यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि भगवान हर प्रकार के विकार और मलिनता से परे हैं। भक्त यहाँ अपने दोषों और अशुद्धियों को भगवान के समक्ष स्वीकार करता है, यह महसूस करते हुए कि केवल भगवान ही उसे इस मलिन संसार से निकाल सकते हैं।

माया और भ्रम का खेल:

“भ्रमपरवशाः पापनिरताः” – यह पंक्ति इस बात को स्पष्ट करती है कि संसार का यह माया-युक्त रूप भ्रम के कारण ही अस्तित्व में है। लोग पापों और बुराइयों में लिप्त होते हैं क्योंकि वे भगवान की वास्तविकता को नहीं समझ पाते। इस माया के जाल में फंसे लोग असलियत में अज्ञानता के कारण ही संसार को सच्चा मान बैठते हैं।

इस विचार के माध्यम से भक्त यह समझाता है कि जब तक माया का आवरण रहता है, तब तक व्यक्ति भगवान की वास्तविकता को नहीं देख पाता। यह माया ही है जो व्यक्ति को संसार में उलझाए रखती है, और वह इस खेल को खत्म करने के लिए भगवान से प्रार्थना करता है।

गजेन्द्र की मुक्ति की कथा:

“गजेन्द्रे दृष्टं ते शरणद वदान्यं स्वपददम्” – गजेंद्र की कहानी इस बात का उदाहरण है कि भगवान कितने दयालु और उदार हैं। जब गजेंद्र को संकट में देखकर भगवान उसकी सहायता करने आए, तब उन्होंने उसे अपने चरणों में शरण दी और मुक्ति प्रदान की। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि भगवान अपनी कृपा से हर किसी की सहायता करते हैं, चाहे वह कितना भी बड़ा संकट क्यों न हो। भक्त यहाँ भगवान से यही दया और शरण की याचना करता है, जिससे वह भी संसार रूपी संकटों से मुक्त हो सके।

संसार की अशांत स्थिति और शांति की प्राप्ति:

“कदाहं भो स्वामिन्नियतमनसा त्वां हृदि भजन्नभद्रे संसारे” – यहाँ भक्त संसार को अशांत, दुखदायी और अनवरत दुखों से भरा हुआ मानता है। वह भगवान से यह पूछता है कि वह कब इस संसार से दूर होकर परम शांति प्राप्त कर पाएगा। यह शांति केवल उन मुनियों को प्राप्त होती है, जिन्होंने आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार किया है। भक्त यहाँ यह स्वीकार करता है कि संसार का सुख अस्थायी है, और केवल भगवान की शरण में ही सच्ची शांति मिल सकती है।

यहां भगवान से यह प्रार्थना की जा रही है कि वह भक्त को इस संसार की अशांति से निकालकर उस आत्मिक शांति की ओर ले जाएं, जिसे केवल ध्यान और भगवान की कृपा से प्राप्त किया जा सकता है।

वेदांत दर्शन और अद्वैत का भाव:

“अहं ब्रह्मानन्दस्त्वमपि च तदाख्यः सुविदित” – यह श्लोक वेदांत के अद्वैत दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। अद्वैत के अनुसार, आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, वे एक ही हैं। भक्त यहाँ इस ज्ञान को स्वीकार करता है कि वह स्वयं ब्रह्मानंद है, और भगवान भी वही ब्रह्मानंद हैं।

यह पंक्ति इस बात पर जोर देती है कि जब भक्त यह जान लेता है कि वह भगवान से भिन्न नहीं है, तब संसार के सभी भ्रम समाप्त हो जाते हैं। यह वेदांत की उच्चतम स्थिति है, जहाँ व्यक्ति भगवान के साथ एकता का अनुभव करता है और उसकी माया समाप्त हो जाती है।

माया और भेदभाव का अंत:

“तथा चेदानीं त्वं त्वयि मम विभेदस्य जननीं” – यह श्लोक भगवान से माया को समाप्त करने की प्रार्थना करता है। माया ही वह शक्ति है जो भक्त और भगवान के बीच भेद उत्पन्न करती है। भक्त चाहता है कि भगवान उसकी माया को समाप्त करें ताकि वह भगवान से एक हो सके।

यह श्लोक अद्वैत दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती। भक्त अपने और भगवान के बीच किसी भी प्रकार की दूरी को समाप्त करने की याचना करता है, ताकि वह मोक्ष की स्थिति में पहुँच सके।

शरण और पूर्ण समर्पण का भाव:

“न हि त्वाहं हित्वा कमपि शरणं चान्यमगमम्” – यह पंक्ति भक्त की पूर्ण आत्मसमर्पण भावना को दर्शाती है। वह कहता है कि उसने भगवान के सिवा किसी और की शरण नहीं ली है और वह पूरी तरह भगवान पर निर्भर है।

यह श्लोक भगवान के प्रति अनन्य भक्ति और विश्वास को दर्शाता है, जहाँ भक्त किसी भी अन्य स्रोत की ओर मुड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं करता। यह केवल भगवान पर निर्भरता की भावना है, जहाँ भक्त को विश्वास है कि केवल भगवान ही उसकी रक्षा कर सकते हैं।

अनंत गुण और भगवान की महिमा:

“अनन्ताद्या विज्ञा न गुणजलधेस्तेऽन्तमगमन्नतः” – भगवान की महिमा का वर्णन करते हुए भक्त कहता है कि अनंत देवता और ऋषि भी भगवान के गुणों की सीमा तक नहीं पहुँच सके हैं। भगवान गुणों के सागर हैं, और उनके गुण अनंत हैं।

यहाँ भक्त यह स्वीकार करता है कि भगवान की महिमा इतनी विशाल और अद्वितीय है कि कोई भी उनकी सम्पूर्णता को समझ नहीं सकता। यह पंक्ति भगवान की अपार शक्ति और महानता को दर्शाती है।

योगियों की अंतिम स्थिति:

“गतिं योगिप्राप्यामिति मनसि बुद्ध्वाहमनवम्” – अंत में भक्त यह महसूस करता है कि भगवान की उपासना और उनके शरण में जाने से वह उसी परम स्थिति को प्राप्त कर सकेगा, जिसे योगी और संत प्राप्त करते हैं। यह स्थिति मोक्ष की है, जहाँ व्यक्ति सभी बंधनों से मुक्त होकर भगवान के साथ एकता में रमण करता है।

यह श्लोक भक्त की उस अंतिम इच्छा को प्रकट करता है, जहाँ वह भगवान के साथ एक होने की प्रार्थना करता है, ताकि उसे संसार के दुखों और पीड़ाओं से मुक्ति मिल सके।

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