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श्रीरामताण्डवस्तोत्रम् in Hindi/Sanskrit

॥ इन्द्रादयो ऊचुः ॥
जटाकटाहयुक्तमुण्डप्रान्तविस्तृतं हरेः
अपाङ्गक्रुद्धदर्शनोपहार चूर्णकुन्तलः।
प्रचण्डवेगकारणेन पिञ्जलः प्रतिग्रहः
स क्रुद्धताण्डवस्वरूपधृग्विराजते हरिः॥1॥
अथेह व्यूहपार्ष्णिप्राग्वरूथिनी निषङ्गिनः
तथाञ्जनेयऋक्षभूपसौरबालिनन्दनाः।
प्रचण्डदानवानलं समुद्रतुल्यनाशकाः
नमोऽस्तुते सुरारिचक्रभक्षकाय मृत्यवे॥2॥

कलेवरे कषायवासहस्तकार्मुकं हरेः
उपासनोपसङ्गमार्थधृग्विशाखमण्डलम्।
हृदि स्मरन् दशाकृतेः कुचक्रचौर्यपातकं
विदार्यते प्रचण्डताण्डवाकृतिः स राघवः॥3॥

प्रकाण्डकाण्डकाण्डकर्मदेहछिद्रकारणं
कुकूटकूटकूटकौणपात्मजाभिमर्दनम्।
तथागुणङ्गुणङ्गुणङ्गुणङ्गुणेन दर्शयन्
कृपीटकेशलङ्घ्यमीशमेकराघवं भजे॥4॥

सवानरान्वितः तथाप्लुतं शरीरमसृजा
विरोधिमेदसाग्रमांसगुल्मकालखण्डनैः।
महासिपाशशक्तिदण्डधारकैः निशाचरैः
परिप्लुतं कृतं शवैश्च येन भूमिमण्डलम्॥5॥

विशालदंष्ट्रकुम्भकर्णमेघरावकारकैः
तथाहिरावणाद्यकम्पनातिकायजित्वरैः।
सुरक्षितां मनोरमां सुवर्णलङ्कनागरीं
निजास्त्रसङ्कुलैरभेद्यकोटमर्दनं कृतः॥6॥

प्रबुद्धबुद्धयोगिभिः महर्षिसिद्धचारणैः
विदेहजाप्रियः सदानुतो स्तुतो च स्वस्तिभिः।
पुलस्त्यनन्दनात्मजस्य मुण्डरुण्डछेदनं
सुरारियूथभेदनं विलोकयामि साम्प्रतम्॥7॥

करालकालरूपिणं महोग्रचापधारिणं
कुमोहग्रस्तमर्कटाच्छभल्लत्राणकारणम्।
विभीषणादिभिः सदाभिषेणनेऽभिचिन्तकं
भजामि जित्वरं तथोर्मिलापतेः प्रियाग्रजम्॥8॥

इतस्ततः मुहुर्मुहुः परिभ्रमन्ति कौन्तिकाः
अनुप्लवप्रवाहप्रासिकाश्च वैजयन्तिकाः।
मृधे प्रभाकरस्य वंशकीर्तिनोऽपदानतां
अभिक्रमेण राघवस्य ताण्डवाकृतेः गताः॥9॥

निराकृतिं निरामयं तथादिसृष्टिकारणं
महोज्ज्वलं अजं विभुं पुराणपूरुषं हरिम्।
निरङ्कुशं निजात्मभक्तजन्ममृत्युनाशकं
अधर्ममार्गघातकं कपीशव्यूहनायकम्॥10॥

करालपालिचक्रशूलतीक्ष्णभिन्दिपालकैः
कुठारसर्वलासिधेनुकेलिशल्यमुद्गरैः।
सुपुष्करेण पुष्कराञ्च पुष्करास्त्रमारणैः
सदाप्लुतं निशाचरैः सुपुष्करञ्च पुष्करम्॥11॥

प्रपन्नभक्तरक्षकं वसुन्धरात्मजाप्रियं
कपीशवृन्दसेवितं समस्तदूषणापहम्।
सुरासुराभिवन्दितं निशाचरान्तकं विभुं
जगत्प्रशस्तिकारणं भजेह राममीश्वरम्॥12॥

॥ इति श्रीभागवतानन्दगुरुणा विरचिते श्रीराघवेन्द्रचरिते
इन्द्रादि देवगणैः कृतं श्रीरामताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

Shri Ramatandavastotram in English

॥ Indrādayo Ūcuhuḥ ॥

Jaṭākaṭāhayuktamuṇḍaprāntavistṛtaṁ Hareḥ
Apāṅgakruddhadarśanopahāra cūrṇakuntalaḥ।
Prachaṇḍavegakāraṇena piñjalaḥ pratigrahaḥ
Sa kruddhatāṇḍavasvarūpadṛgvirājate Hariḥ॥1॥

Atheha vyūhapārṣṇiprāgvarūthinī niṣaṅginaḥ
Tathāñjaneyar̥kṣabhūpasaurabālinandanāḥ।
Prachaṇḍadānavānalaṁ samudratulyanāśakāḥ
Namo’stute surāricakrabhakṣakāya mṛtyave॥2॥

Kalevare kaṣāyavāsahastakārmukaṁ Hareḥ
Upāsanopasaṅgamārthadṛgviśākamaṇḍalam।
Hṛdi smaran daśākṛteḥ kuchakracauryapātakaṁ
Vidāryate prachaṇḍatāṇḍavākṛtiḥ sa Rāghavaḥ॥3॥

Prakāṇḍakāṇḍakāṇḍakarmadehachḏirakāraṇaṁ
Kukūṭakūṭakūṭakauṇapātmajābhimardanam।
Tathāguṇaṅguṇaṅguṇaṅguṇaṅguṇena darśayan
Kṛpīṭakeśalaṅghyamīśamekarāghavaṁ Bhaje॥4॥

Savānarānvitaḥ tathāplutaṁ śarīramasṛjā
Virodhimedasāgramāṁsagulmakālakhaṇḍanaiḥ।
Mahāsipāśaśaktidaṇḍadhārakaiḥ niśācaraiḥ
Pariplutaṁ kṛtaṁ śavaiśca yena bhūmimaṇḍalam॥5॥

Viśāladaṁṣṭrakuṁbhakarṇamegharāvakārakaiḥ
Tathāhirāvaṇādyakampanātikāyajitvaraiḥ।
Surakṣitāṁ manoramāṁ suvarṇalaṅkanāgarīṁ
Nijāstrasaṅkulairabhedyakoṭamardanaṁ kṛtaḥ॥6॥

Prabuddhabuddhayogibhiḥ maharṣisiddhacāraṇaiḥ
Videhajāpriyaḥ sadānuto stuto ca svastibhiḥ।
Pulastyanandanātmajasya muṇḍaruṇḍachedanaṁ
Surāriyūthabhedanaṁ vilokayāmi sāmpratam॥7॥

Karālakālarūpiṇaṁ mahogracāpadhāriṇaṁ
Kumohagrastamarkatācchabhallatrāṇakāraṇam।
Vibhīṣaṇādibhiḥ sadābhiṣeṇane’bhicintakaṁ
Bhajāmi jitvaraṁ tathormilāpteḥ priyāgrajam॥8॥

Itastataḥ muhurmuhuḥ paribhramanti kauntikāḥ
Anuplavapravāhaprāsikāśca vaijayantikāḥ।
Mṛdhe prabhākarasya vaṁśakīrtino’padānatāṁ
Abhikrameṇa rāghavasya tāṇḍavākṛteḥ gatāḥ॥9॥

Nirākṛtiṁ nirāmayaṁ tathādisṛṣṭikāraṇaṁ
Mahojjvalaṁ ajaṁ vibhuṁ purāṇapūruṣaṁ Harim।
Niraṅkuśaṁ nijātmabhaktajanmamṛtyunāśakaṁ
Adharmamārgaghātakaṁ kapīśavyūhanāyakam॥10॥

Karālapālicakraśūlatīkṣṇabhindipālakaiḥ
Kuṭhārasarvalāsidhenukeliśalyamudgaraiḥ।
Supuṣkareṇa puṣkarāñca puṣkarāstramāraṇaiḥ
Sadāplutaṁ niśācaraiḥ supuṣkarañca puṣkaram॥11॥

Prapannabhaktarakṣakaṁ vasundharātmajāpriyaṁ
Kapīśavṛndasevitaṁ samastadūṣaṇāpaham।
Surāsurābhivanditaṁ niśācarāntakaṁ vibhuṁ
Jagatpraśastikāraṇaṁ bhajeha rāmamīśvaram॥12॥

॥ Iti Śrībhāgavatānandaguruṇā viracite Śrīrāghavendracharite
Indrādi devagaṇaiḥ kṛtaṁ Śrīrāmatāṇḍavastotraṁ sampūrṇam ॥

श्रीरामताण्डवस्तोत्रम् PDF Download

श्रीराम ताण्डव स्तोत्र – इन्द्रादि देवगण द्वारा रचित

प्रथम श्लोक

श्लोक:
जटाकटाहयुक्तमुण्डप्रान्तविस्तृतं हरेः
अपाङ्गक्रुद्धदर्शनोपहार चूर्णकुन्तलः।
प्रचण्डवेगकारणेन पिञ्जलः प्रतिग्रहः
स क्रुद्धताण्डवस्वरूपधृग्विराजते हरिः॥1॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान हनुमान की महाक्रोधी ताण्डव मुद्रा का वर्णन करता है। उनकी जटाएं (बालों का जटा रूप) बिखरी हुई हैं, जो क्रोध के समय और भी विकराल दिखती हैं। उनके नेत्रों से क्रोध की ज्वाला निकल रही है। वह अत्यधिक क्रोधित होकर ताण्डव कर रहे हैं, और उनके तेज़ गति से क्रोध की शक्ति उनके शरीर में भली-भांति प्रकट हो रही है। हरि (भगवान राम) अपने क्रोधित रूप में ताण्डव मुद्रा में प्रतिष्ठित होते हैं।

द्वितीय श्लोक

श्लोक:
अथेह व्यूहपार्ष्णिप्राग्वरूथिनी निषङ्गिनः
तथाञ्जनेयऋक्षभूपसौरबालिनन्दनाः।
प्रचण्डदानवानलं समुद्रतुल्यनाशकाः
नमोऽस्तुते सुरारिचक्रभक्षकाय मृत्यवे॥2॥

अर्थ:
इस श्लोक में भगवान राम की सेना के योद्धाओं का उल्लेख किया गया है। अञ्जनेय (हनुमान), ऋक्ष (सुग्रीव), भूप (राजा), सौर (सुग्रीव के पुत्र) और बालि के पुत्र अंगद आदि योद्धा सम्मिलित होकर दानवों के संहारक हैं। यह योद्धा अत्यंत शक्तिशाली हैं, जो समुद्र के समान विशाल सेना को नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। भगवान राम को नमस्कार किया जाता है, जो मृत्यु के भी परे हैं और सुरों (देवताओं) के शत्रुओं का विनाश करने वाले हैं।

तृतीय श्लोक

श्लोक:
कलेवरे कषायवासहस्तकार्मुकं हरेः
उपासनोपसङ्गमार्थधृग्विशाखमण्डलम्।
हृदि स्मरन् दशाकृतेः कुचक्रचौर्यपातकं
विदार्यते प्रचण्डताण्डवाकृतिः स राघवः॥3॥

अर्थ:
भगवान राम के शरीर पर भगवा वस्त्र और उनके हाथों में धनुष दिखाई देता है। वह दस दिशाओं के शत्रुओं के विनाश के लिए युद्ध के मैदान में उपस्थिति को स्मरण कर रहे हैं। उनकी ताण्डव मुद्रा उनके क्रोध की अभिव्यक्ति करती है, जो उनके हृदय में गहरे बैठे क्रोध और उनके शत्रुओं के विनाश के प्रति उनके संकल्प को दर्शाती है। भगवान राम का यह रौद्र रूप अत्यंत शक्तिशाली है।

चतुर्थ श्लोक

श्लोक:
प्रकाण्डकाण्डकाण्डकर्मदेहछिद्रकारणं
कुकूटकूटकूटकौणपात्मजाभिमर्दनम्।
तथागुणङ्गुणङ्गुणङ्गुणङ्गुणेन दर्शयन्
कृपीटकेशलङ्घ्यमीशमेकराघवं भजे॥4॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान राम के महाकर्मों और उनकी अवतारी शक्ति का वर्णन करता है। उनके कार्य इतने महान हैं कि उनके शरीर के सभी हिस्सों में उनकी शक्ति व्याप्त है। वह शत्रुओं के घमंड को नष्ट करते हैं और उनके गुणों की महिमा चारों ओर फैलती है। शत्रुओं को कुचलने के बाद भी वह अपनी शांति बनाए रखते हैं। इस श्लोक में भगवान राम की महाशक्ति और उनकी अद्वितीय योग्यता का गान किया गया है।

पंचम श्लोक

श्लोक:
सवानरान्वितः तथाप्लुतं शरीरमसृजा
विरोधिमेदसाग्रमांसगुल्मकालखण्डनैः।
महासिपाशशक्तिदण्डधारकैः निशाचरैः
परिप्लुतं कृतं शवैश्च येन भूमिमण्डलम्॥5॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान राम की सेना और उनके बलिदान का वर्णन करता है। भगवान राम अपने वानर योद्धाओं के साथ शत्रु सेना को पराजित करते हैं। युद्धभूमि में निशाचरों (राक्षसों) के शवों से धरती ढकी हुई है। युद्ध में भगवान राम और उनकी सेना ने राक्षसों के शरीरों को खंड-खंड कर दिया है। वे अत्यधिक शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों से लैस थे, जिन्होंने निशाचरों का सर्वनाश कर दिया।

षष्ठ श्लोक

श्लोक:
विशालदंष्ट्रकुम्भकर्णमेघरावकारकैः
तथाहिरावणाद्यकम्पनातिकायजित्वरैः।
सुरक्षितां मनोरमां सुवर्णलङ्कनागरीं
निजास्त्रसङ्कुलैरभेद्यकोटमर्दनं कृतः॥6॥

अर्थ:
इस श्लोक में राक्षसों की विशाल सेना और उनके महान योद्धाओं का वर्णन है। कुम्भकर्ण जैसे विशाल दंत वाले राक्षस, और रावण जैसे महान योद्धाओं ने भी भगवान राम की सेना के आगे हार मान ली। भगवान राम ने स्वर्ण नगरी लंका को पूरी तरह से जीत लिया और उसके अद्वितीय किले को ध्वस्त कर दिया। इस श्लोक में भगवान राम की महाशक्ति और विजय का वर्णन है।

सप्तम श्लोक

श्लोक:
प्रबुद्धबुद्धयोगिभिः महर्षिसिद्धचारणैः
विदेहजाप्रियः सदानुतो स्तुतो च स्वस्तिभिः।
पुलस्त्यनन्दनात्मजस्य मुण्डरुण्डछेदनं
सुरारियूथभेदनं विलोकयामि साम्प्रतम्॥7॥

अर्थ:
इस श्लोक में बताया गया है कि भगवान राम को महर्षियों, सिद्धों और योगियों द्वारा निरंतर पूजा और स्तुति की जाती है। सीता (विदेहजा) के प्रिय भगवान राम की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई है। पुलस्त्य के पुत्र (रावण) के मस्तक और कंधों को छिन्न-भिन्न करने वाले भगवान राम ने दुष्ट राक्षसों के समूह को पराजित किया। यहाँ भगवान राम की वीरता और राक्षसों के विनाश के महान कार्यों का वर्णन है।

अष्टम श्लोक

श्लोक:
करालकालरूपिणं महोग्रचापधारिणं
कुमोहग्रस्तमर्कटाच्छभल्लत्राणकारणम्।
विभीषणादिभिः सदाभिषेणनेऽभिचिन्तकं
भजामि जित्वरं तथोर्मिलापतेः प्रियाग्रजम्॥8॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान राम के रौद्र रूप का वर्णन करता है। वे काल के समान प्रचण्ड और उग्र रूप में दिखते हैं। उनके हाथ में महान धनुष है और वह मोहित हुए वानरों की रक्षा करते हैं। विभीषण और अन्य भक्तों द्वारा निरंतर उनकी पूजा की जाती है। भगवान राम के बड़े भाई होने के कारण, उनका नाम उच्चारित कर के उनकी वंदना की जाती है। श्लोक भगवान राम की सुरक्षा और उनके अनन्त गुणों का गुणगान करता है।

नवम श्लोक

श्लोक:
इतस्ततः मुहुर्मुहुः परिभ्रमन्ति कौन्तिकाः
अनुप्लवप्रवाहप्रासिकाश्च वैजयन्तिकाः।
मृधे प्रभाकरस्य वंशकीर्तिनोऽपदानतां
अभिक्रमेण राघवस्य ताण्डवाकृतेः गताः॥9॥

अर्थ:
इस श्लोक में राघव (भगवान राम) के ताण्डव नृत्य के प्रभाव का वर्णन है। युद्धभूमि में, उनके शत्रु इधर-उधर भागते रहते हैं, और भगवान राम की शक्ति और कीर्ति चारों ओर फैलती है। कौन्तिक (कौरव) और अन्य शत्रु जो भगवान राम के सामने टिक नहीं पाते, वे उनके अद्वितीय ताण्डव नृत्य की मुद्रा में पराजित होते हैं। इस श्लोक में भगवान राम की महान शक्ति और उनके ताण्डव नृत्य की अनुगूंज का उल्लेख है।

दशम श्लोक

श्लोक:
निराकृतिं निरामयं तथादिसृष्टिकारणं
महोज्ज्वलं अजं विभुं पुराणपूरुषं हरिम्।
निरङ्कुशं निजात्मभक्तजन्ममृत्युनाशकं
अधर्ममार्गघातकं कपीशव्यूहनायकम्॥10॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान राम की दिव्य स्थिति का वर्णन करता है। वे निराकार, निरामय, और अनन्त कारणों से उत्पन्न होते हैं। भगवान राम अजात, पुरातन और अनन्त विभु हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि के पुरातन पुरुष हैं। वे अपने भक्तों के जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करते हैं और अधर्म के मार्ग को नष्ट करने वाले हैं। भगवान राम वानर सेना के महानायक हैं और हरि के रूप में पूज्य हैं।

एकादश श्लोक

श्लोक:
करालपालिचक्रशूलतीक्ष्णभिन्दिपालकैः
कुठारसर्वलासिधेनुकेलिशल्यमुद्गरैः।
सुपुष्करेण पुष्कराञ्च पुष्करास्त्रमारणैः
सदाप्लुतं निशाचरैः सुपुष्करञ्च पुष्करम्॥11॥

अर्थ:
इस श्लोक में भगवान राम के द्वारा उपयोग किए गए विविध अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन है। वह शूल, भिन्दिपाल, और अन्य घातक हथियारों से सुसज्जित हैं। निशाचरों (राक्षसों) के विरुद्ध उनका उपयोग करके उन्होंने विजय प्राप्त की। इन अस्त्रों द्वारा भगवान राम ने पुष्कर नामक अस्त्र का प्रयोग किया, जिससे राक्षसों का विनाश हुआ और युद्धभूमि पर उनकी विजयश्री का गान हुआ।

द्वादश श्लोक

श्लोक:
प्रपन्नभक्तरक्षकं वसुन्धरात्मजाप्रियं
कपीशवृन्दसेवितं समस्तदूषणापहम्।
सुरासुराभिवन्दितं निशाचरान्तकं विभुं
जगत्प्रशस्तिकारणं भजेह राममीश्वरम्॥12॥

अर्थ:
यह श्लोक भगवान राम की भक्त रक्षा और उनके दिव्य प्रेम का वर्णन करता है। भगवान राम उन भक्तों की सदैव रक्षा करते हैं जो उनकी शरण में आते हैं। वे सीता के प्रिय हैं और वानर सेना के साथ सदैव रहते हैं। भगवान राम समस्त दूषणों (दुष्ट प्रवृत्तियों) का नाश करते हैं। देवता और असुर दोनों उनकी वंदना करते हैं क्योंकि वे निशाचरों (राक्षसों) का अंत करने वाले हैं। वे समस्त जगत के कल्याण और प्रशंसा के पात्र हैं, और इस श्लोक में उनकी पूजा की जाती है।


स्तोत्र का समापन

इति श्रीभागवतानन्दगुरुणा विरचिते श्रीराघवेन्द्रचरिते इन्द्रादि देवगणैः कृतं श्रीरामताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

अर्थ:
इस प्रकार, श्रीभागवतानन्द गुरु द्वारा रचित श्रीराघवेन्द्रचरित में, इन्द्रादि देवताओं द्वारा रचित यह श्रीराम ताण्डव स्तोत्र पूर्ण होता है।

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