श्री सरस्वती स्तोत्रम् वाणी स्तवनं in Hindi/Sanskrit
॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवंहततेजसम्।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनंच दुःखितम्॥1॥
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहिविद्यां देहि देवते।
प्रतिष्ठां कवितां देहिशाक्तं शिष्यप्रबोधिकाम्॥2॥
ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं चसच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम्।
प्रतिभां सत्सभायां चविचारक्षमतां शुभाम्॥3॥
लुप्तां सर्वां दैववशान्नवंकुरु पुनः पुनः।
यथाऽङ्कुरं जनयतिभगवान्योगमायया॥4॥
ब्रह्मस्वरूपा परमाज्योतिरूपा सनातनी।
सर्वविद्याधिदेवी यातस्यै वाण्यै नमो नमः॥5॥
यया विना जगत्सर्वंशश्वज्जीवन्मृतं सदा।
ज्ञानाधिदेवी या तस्यैसरस्वत्यै नमो नमः॥6॥
यया विना जगत्सर्वंमूकमुन्मत्तवत्सदा।
वागधिष्ठातृदेवी यातस्यै वाण्यै नमो नमः॥7॥
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा।
वर्णाधिदेवी यातस्यै चाक्षरायै नमो नमः॥8॥
विसर्ग बिन्दुमात्राणांयदधिष्ठानमेव च।
इत्थं त्वं गीयसेसद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः॥9॥
यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यांकर्तुं न शक्नुते।
काल संख्यास्वरूपा यातस्यै देव्यै नमो नमः॥10॥
व्याख्यास्वरूपा या देवीव्याख्याधिष्ठातृदेवता।
भ्रमसिद्धान्तरूपा यातस्यै देव्यै नमो नमः॥11॥
स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी।
प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या चतस्यै नमो नमः॥12॥
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानंपप्रच्छ यत्र वै।
बभूव जडवत्सोऽपिसिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥13॥
तदाऽऽजगाम भगवानात्माश्रीकृष्ण ईश्वरः।
उवाच स च तं स्तौहिवाणीमिति प्रजापते॥14॥
स च तुष्टाव तां ब्रह्माचाऽऽज्ञया परमात्मनः।
चकार तत्प्रसादेनतदा सिद्धान्तमुत्तमम्॥15॥
यदाप्यनन्तं पप्रच्छज्ञानमेकं वसुन्धरा।
बभूव मूकवत्सोऽपिसिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥16॥
तदा त्वां च स तुष्टावसन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया।
ततश्चकार सिद्धान्तंनिर्मलं भ्रमभञ्जनम्॥17॥
व्यासः पुराणसूत्रं चपप्रच्छ वाल्मिकिं यदा।
मौनीभूतः स सस्मारत्वामेव जगदम्बिकाम्॥18॥
तदा चकार सिद्धान्तंत्वद्वरेण मुनीश्वरः।
स प्राप निर्मलं ज्ञानंप्रमादध्वंसकारणम्॥19॥
पुराण सूत्रं श्रुत्वा सव्यासः कृष्णकलोद्भवः।
त्वां सिषेवे च दध्यौ तंशतवर्षं च पुष्क्करे॥20॥
तदा त्वत्तो वरं प्राप्यस कवीन्द्रो बभूव ह।
तदा वेदविभागं चपुराणानि चकार ह॥21॥
यदा महेन्द्रे पप्रच्छतत्त्वज्ञानं शिवा शिवम्।
क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्यतस्यै ज्ञानं दधौ विभुः॥22॥
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं चमहेन्द्रस्च बृहस्पतिम्।
दिव्यं वर्षसहस्रं चस त्वां दध्यौ च पुष्करे॥23॥
तदा त्वत्तो वरं प्राप्यदिव्यं वर्षसहस्रकम्।
उवाच शब्दशास्त्रं चतदर्थं च सुरेश्वरम्॥24॥
अध्यापिताश्च यैः शिष्याःयैरधीतं मुनीश्वरैः।
ते च त्वां परिसञ्चिन्त्यप्रवर्तन्ते सुरेश्वरि॥25॥
त्वं संस्तुता पूजिताच मुनीन्द्रमनुमानवैः।
दैत्यैश्च सुरैश्चापिब्रह्मविष्णुशिवादिभिः॥26॥
जडीभूतः सहस्रास्यःपञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः।
यां स्तोतुं किमहं स्तौमितामेकास्येन मानवः॥27॥
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्चभक्तिनम्रात्मकन्धरः।
प्रणनाम निराहारोरुरोद च मुहुर्मुहुः॥28॥
तदा ज्योतिः स्वरूपा सातेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम्।
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वावैकुण्ठं च जगाम ह॥29॥
महामूर्खश्च दुर्मेधावर्षमेकं च यः पठेत्।
स पण्डितश्च मेधावीसुकविश्च भवेद्ध्रुवम्॥30॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः संपूर्णं ॥
Shri Saraswati Stotram Vani Stavanam in English
॥ Yajnavalkya Uvacha ॥
Kripam kuru jaganmatar mamevahatatejasam।
Gurushapatsmritibhrashtam vidhyahinanch dukhitam॥1॥
Jnanam dehi smritim dehi vidyam dehi devate।
Pratishtham kavitam dehi shaktam shishyaprabodhikam॥2॥
Granthanirmitishaktim cha satchishyam supratishthitam।
Pratibham satsabhayam cha vicharakshamatam shubham॥3॥
Luptam sarvam daivavashan navam kuru punah punah।
Yatha-ankuram janayati bhagavan yogamayaya॥4॥
Brahmasvarupa parama jyotirupa sanatani।
Sarvavidyadhidevi ya tasyai vanyai namo namah॥5॥
Yaya vina jagat sarvam shashvajjivanmritam sada।
Jnanadhidevi ya tasyai Sarasvatyai namo namah॥6॥
Yaya vina jagat sarvam mukamunmattavatsada।
Vagadhishthatridevi ya tasyai vanyai namo namah॥7॥
Himachandana-kundendu-kumudambhoja-sannibha।
Varanadhidevi ya tasyai chaksharayai namo namah॥8॥
Visarga bindu matranaam yadadhishthanameva cha।
Ittham tvam giyase sadbhir bharatyai te namo namah॥9॥
Yaya vina-atra sankhya krit sankhyam kartum na shaknute।
Kala sankhyasvarupa ya tasyai devyai namo namah॥10॥
Vyakhyasvarupa ya devi vyakhyadhishthatri devata।
Bhramasiddhantarupa ya tasyai devyai namo namah॥11॥
Smritishaktir jnanashaktir buddhishaktisvarupini।
Pratibhakalpana shaktir ya cha tasyai namo namah॥12॥
Sanatkumaro brahmanam jnanam papraccha yatra vai।
Babhuva jadavatsopi siddhantam kartum akshamah॥13॥
Tada-ajagama bhagavan atma Shrikrishna Ishvarah।
Uvacha sa cha tam stouhi vanimiti prajapate॥14॥
Sa cha tushtava tam brahma cha-ajnaya paramatmanah।
Chakara tatprasadena tada siddhantam uttamam॥15॥
Yada-apyanantam papraccha jnanam ekam vasundhara।
Babhuva mukavatsopi siddhantam kartum akshamah॥16॥
Tada tvam cha sa tushtava santrastah Kashyapajnaya।
Tataschakara siddhantam nirmalam bhramabhanjanam॥17॥
Vyasa puranasutram cha papraccha Valmikin yada।
Maunibhutah sa sasmara tvameva jagadambikam॥18॥
Tada chakara siddhantam tvadvarena munishvarah।
Sa prapa nirmalam jnanam pramadadhvansakaranam॥19॥
Puranasutram shrutva sa Vyasa Krishnakalodbhavah।
Tvam sisheve cha dadhyau tam shatavarsam cha Pushkare॥20॥
Tada tvatto varam prapya sa kavindro babhuva ha।
Tada vedavibhaagam cha puranani chakara ha॥21॥
Yada Mahendre papraccha tattvajnana Shivah Shivam।
Kshanam tvameva sanchintya tasya jnanam dadhau vibhuh॥22॥
Papraccha shabdashastram cha Mahendrascha Brihaspatim।
Divyam varshasahasram cha sa tvam dadhyau cha Pushkare॥23॥
Tada tvatto varam prapya divyam varshasahasrakam।
Uvacha shabdashastram cha tadartham cha Sureshvaram॥24॥
Adhyapitashcha yaih shishyah yairadhitam munishvaraih।
Te cha tvam parisanchintya pravartante Sureshvari॥25॥
Tvam samstuta pujitacha munindramanumanavaih।
Daityaischa suraischa-api Brahmavishnushivadibhih॥26॥
Jadibhutah sahasrasyah panchavaktraschaturmukhah।
Yam stotum kimaham staumi tamekasyena manavah॥27॥
Ityuktva Yajnavalkyashcha bhaktinamratmakandharah।
Pranamam niraharoru roda cha muhurmuhuh॥28॥
Tada jyotih svarupa sa tena-adrishtapyuvacha tam।
Sukavindro bhavetyuktva Vaikuntham cha jagama ha॥29॥
Mahamurkhashcha durmedha varshamekam cha yah pathet।
Sa panditashcha medhavi sukavishcha bhaved dhruvam॥30॥
॥ Iti Shribrahmavaivarte Mahapurane Prakritikhand Naradanarayan Samvade
Yajnavalkyokta Vani Stavanam Nama Panchamo-adhyayah Sampurnam ॥
श्री सरस्वती स्तोत्रम् वाणी स्तवनं PDF Download
श्री सरस्वती स्तोत्रम् वाणी स्तवनं का अर्थ
परिचय:
यह स्तोत्र श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड में आता है। इसमें महर्षि याज्ञवल्क्य ने माँ वाणी (सरस्वती देवी) की स्तुति की है। इस स्तवन में ज्ञान, स्मृति, और विवेक के लिए देवी से प्रार्थना की गई है। यह स्तोत्र न केवल भक्ति का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक ज्ञान और प्रेरणा का भी स्रोत है।
श्लोक 1: कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवंहततेजसम्।
अर्थ:
कृपां कुरु जगन्मातरं मामेवं हततेजसम्। गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनं च दुःखितम्॥
जगत की माता, कृपया मुझ पर कृपा करें। मैं, जिसे गुरु के शाप के कारण स्मृति और ज्ञान से वंचित कर दिया गया है, दुःखी हूँ और आपकी सहायता चाहता हूँ।
व्याख्या:
- जगन्मातर: माँ सरस्वती समस्त जगत की माता हैं।
- हततेजसम्: अपनी आंतरिक ऊर्जा और आत्मबल खो देने वाला व्यक्ति।
- स्मृतिभ्रष्ट: स्मरणशक्ति का नष्ट हो जाना, जो आध्यात्मिक और शैक्षणिक विकास में बाधक है।
यहाँ याज्ञवल्क्य विनम्रता से अपनी स्थिति का वर्णन कर माँ से सहायता की याचना करते हैं।
श्लोक 2: ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां देहि देवते।
अर्थ:
ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां देहि देवते। प्रतिष्ठां कवितां देहि शाक्तं शिष्यप्रबोधिकाम्॥
हे देवि! मुझे ज्ञान, स्मृति, और विद्या प्रदान करें। मुझे प्रतिष्ठा, कविता की शक्ति, और शिष्यों को प्रेरित करने की क्षमता दें।
व्याख्या:
- ज्ञानं: सत्य और ब्रह्म के ज्ञान की याचना।
- स्मृतिं: स्मरण शक्ति, जो अर्जित ज्ञान को बनाए रखती है।
- कवितां: सृजनात्मक लेखन की क्षमता, जो समाज को प्रेरित कर सके।
- शिष्यप्रबोधिकाम्: शिष्यों को मार्गदर्शन देने की शक्ति।
यहाँ साधक अपने जीवन के हर पहलू में माँ से आशीर्वाद माँगता है।
श्लोक 3: ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम्।
अर्थ:
ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम्। प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम्॥
मुझे ग्रंथों की रचना करने की शक्ति, सच्चे शिष्य, और सभाओं में प्रतिष्ठा प्राप्त हो। विचारशीलता और बुद्धिमत्ता का वरदान दें।
व्याख्या:
- ग्रन्थनिर्मितिशक्तिः: धार्मिक, दार्शनिक या साहित्यिक ग्रंथों का निर्माण।
- सच्छिष्यं: अच्छे और कर्तव्यनिष्ठ शिष्य।
- विचारक्षमता: सही निर्णय लेने और चर्चा में भाग लेने की शक्ति।
यह श्लोक रचनात्मकता और सामाजिक भूमिका के महत्व को दर्शाता है।
श्लोक 4: लुप्तां सर्वां दैववशान्नवं कुरु पुनः पुनः।
अर्थ:
लुप्तां सर्वां दैववशान्नवं कुरु पुनः पुनः। यथाऽङ्कुरं जनयति भगवान्योगमायया॥
हे देवी! जो ज्ञान और गुण दैविक कारणों से लुप्त हो गए हैं, उन्हें बार-बार पुनर्जीवित करें, जैसे भगवान योगमाया से अंकुर उत्पन्न करते हैं।
व्याख्या:
- लुप्तं: खोया हुआ ज्ञान।
- योगमाया: ईश्वर की दिव्य शक्ति जो पुनः सृजन करती है।
यहाँ माँ से विनती की गई है कि वे खोई हुई दिव्यता और ज्ञान को पुनः स्थापित करें।
श्लोक 5: ब्रह्मस्वरूपा परमाज्योतिरूपा सनातनी।
अर्थ:
ब्रह्मस्वरूपा परमाज्योतिरूपा सनातनी। सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः॥
हे सनातनी देवी, जो ब्रह्मस्वरूपा और परम ज्योति की प्रतीक हैं, आपको बार-बार प्रणाम।
व्याख्या:
- ब्रह्मस्वरूपा: ब्रह्म का स्वरूप, जो अद्वितीय और अखंड है।
- सनातनी: शाश्वत और अनादि।
माँ वाणी की महिमा का वर्णन करते हुए उनकी शाश्वत उपस्थिति को नमन किया गया है।
श्लोक 6: यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा।
अर्थ:
यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा। ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः॥
जिसके बिना यह समस्त संसार मृत समान है, उस ज्ञान की देवी सरस्वती को प्रणाम।
व्याख्या:
- ज्ञानाधिदेवी: ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी।
- जीवन्मृत: जीवन में ज्ञान और समझ के बिना व्यक्ति मृत के समान होता है।
यह श्लोक जीवन में ज्ञान की आवश्यकता पर जोर देता है।
श्लोक 7: यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा।
अर्थ:
यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा। वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः॥
जिसके बिना संसार मूक और पागल जैसा प्रतीत होता है, उस वाणी की अधिष्ठात्री देवी को प्रणाम।
व्याख्या:
- वागधिष्ठातृदेवी: वाणी और अभिव्यक्ति की देवी।
- मूकम्: वाणी के अभाव में संसार की स्थिति।
देवी वाणी के महत्व को स्पष्ट करते हुए यह प्रार्थना हमें प्रेरित करती है।
श्लोक 8: हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा।
अर्थ:
हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा। वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः॥
जो हिमालय के चंदन, कुंद, चंद्रमा, कुमुद (कमल) और अंबुज (जल में खिले हुए कमल) के समान श्वेत और दिव्य वर्ण वाली हैं, उन अक्षर और वर्णों की अधिष्ठात्री देवी को प्रणाम।
व्याख्या:
- वर्णाधिदेवी: भाषा और वर्णमाला की अधिष्ठात्री देवी।
- चाक्षरायै: अक्षरों और उनके ज्ञान का स्वरूप।
यह श्लोक माँ वाणी की रूप-सज्जा और उनके वर्ण-रूप की सुंदरता का वर्णन करता है। यह भाषा के आधार पर विचार, संवाद, और सृजन की शक्ति को रेखांकित करता है।
श्लोक 9: विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च।
अर्थ:
विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च। इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर् भारत्यै ते नमो नमः॥
विसर्ग, बिंदु, और मात्राओं के रूप में जो प्रकट होती हैं, वे देवी विद्वानों द्वारा गाई जाती हैं। उस भारत्या (सरस्वती) को नमस्कार।
व्याख्या:
- विसर्ग, बिंदु, मात्राएं: भाषा के मूलभूत घटक, जिनसे शब्द और व्याकरण बनते हैं।
- सद्भिः: विद्वान और ज्ञानी जन।
यह श्लोक भाषा और व्याकरण के निर्माण में सरस्वती की भूमिका का महत्त्व बताता है।
श्लोक 10: यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्तुं न शक्नुते।
अर्थ:
यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्तुं न शक्नुते। काल संख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः॥
जिसके बिना संख्याओं की गणना करना असंभव है, जो स्वयं समय और संख्या का स्वरूप है, उस देवी को प्रणाम।
व्याख्या:
- काल संख्यास्वरूपा: समय और गणित की देवी।
- संख्याकृत्: गणना और मापन।
यह श्लोक देवी सरस्वती को गणना और समय के स्वरूप में पूजित करता है।
श्लोक 11: व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता।
अर्थ:
व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता। भ्रमसिद्धान्त रूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः॥
जो व्याख्या का स्वरूप हैं और भ्रम तथा सिद्धांतों को सुलझाने की शक्ति प्रदान करती हैं, उस देवी को प्रणाम।
व्याख्या:
- व्याख्यास्वरूपा: तर्क और विवरण के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने वाली।
- भ्रमसिद्धान्त: सही और गलत को पहचानने की शक्ति।
यहाँ देवी को मार्गदर्शक और तर्क की देवी कहा गया है।
श्लोक 12: स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी।
अर्थ:
स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी। प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः॥
जो स्मृति, ज्ञान, और बुद्धि की शक्ति स्वरूपा हैं, और सृजनात्मक कल्पना शक्ति प्रदान करती हैं, उन देवी को नमस्कार।
व्याख्या:
- स्मृतिशक्ति: पिछले अनुभवों और ज्ञान को याद रखने की शक्ति।
- प्रतिभा और कल्पना: रचनात्मकता और नवोन्मेष की शक्ति।
यह श्लोक सरस्वती को हमारी मानसिक क्षमताओं की मूल शक्ति मानता है।
श्लोक 13-14: सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै।
अर्थ:
सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै। बभूव जडवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥ तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः। उवाच स च तं स्तौहि वाणीमिति प्रजापते॥
जब सनत्कुमार ने ब्रह्मा से ज्ञान पूछा, तो वे जड़वत हो गए और सिद्धांत स्पष्ट करने में असमर्थ रहे। तब भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए और उन्हें देवी वाणी की स्तुति करने का निर्देश दिया।
व्याख्या:
- जडवत्: ज्ञान के बिना, व्यक्ति निष्क्रिय और अक्षम हो जाता है।
- भगवान श्रीकृष्ण: यहाँ मार्गदर्शक के रूप में आते हैं और वाणी की स्तुति का महत्व समझाते हैं।
यह घटना ज्ञान की देवी की महिमा और उनकी स्तुति की अनिवार्यता को दर्शाती है।
श्लोक 15: स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाऽज्ञया परमात्मनः।
अर्थ:
स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाऽज्ञया परमात्मनः। चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम्॥
ब्रह्मा ने परमात्मा की आज्ञा से देवी वाणी की स्तुति की। उनके आशीर्वाद से उन्होंने श्रेष्ठ सिद्धांत की रचना की।
व्याख्या:
- तुष्टाव: स्तुति करना, जो आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने का साधन है।
- सिद्धान्तम्: ज्ञान का व्यवस्थित स्वरूप।
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि देवी वाणी की कृपा से जटिल ज्ञान और सिद्धांत को समझा और व्यक्त किया जा सकता है।
श्लोक 16: यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा।
अर्थ:
यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा। बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥
जब वसुंधरा (पृथ्वी) ने अनंत (भगवान) से ज्ञान प्राप्त करने की प्रार्थना की, तो वह भी मूक (अशक्त) हो गईं और सिद्धांत को प्रकट करने में असमर्थ रहीं।
व्याख्या:
- मूकवत्: बिना वाणी के, किसी विचार को व्यक्त करने में असमर्थ।
- वसुन्धरा: प्रतीक है सृष्टि की, जो ज्ञान के बिना अधूरी है।
यह दर्शाता है कि वाणी के बिना ज्ञान का कोई उपयोग नहीं।
श्लोक 17: तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया।
अर्थ:
तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया। ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम्॥
कश्यप मुनि के निर्देश पर, देवी वाणी की स्तुति की गई। तब सिद्धांत को निर्मल और भ्रम से रहित बनाया गया।
व्याख्या:
- सन्त्रस्तः: भय या असमंजस की स्थिति में मार्गदर्शन माँगना।
- भ्रमभञ्जनम्: जो सत्य और असत्य के बीच के भ्रम को समाप्त कर दे।
यह श्लोक सिद्ध करता है कि माँ वाणी का आशीर्वाद ही जटिल समस्याओं का समाधान है।
श्लोक 18: व्यासः पुराणसूत्रं च पप्रच्छ वाल्मीकि यदा।
अर्थ:
व्यासः पुराणसूत्रं च पप्रच्छ वाल्मीकि यदा। मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम्॥
जब महर्षि व्यास ने वाल्मीकि से पुराण सूत्रों के बारे में पूछा, तो वे मौन हो गए और जगदंबा (माँ वाणी) का स्मरण किया।
व्याख्या:
- मौनीभूतः: जब वाणी की शक्ति क्षीण हो जाती है, तो मार्गदर्शन के लिए देवी की आवश्यकता होती है।
- सस्मार: स्मरण करना, जिससे शक्ति प्राप्त होती है।
यह माँ वाणी की सर्वव्यापकता और उनके आशीर्वाद से प्रेरणा प्राप्त करने का वर्णन करता है।
श्लोक 19: तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः।
अर्थ:
तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः। स प्राप निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम्॥
तब माँ वाणी के वरदान से मुनीश्वर (वाल्मीकि) ने सिद्धांत की रचना की और शुद्ध ज्ञान प्राप्त किया, जो प्रमाद को समाप्त करने वाला है।
व्याख्या:
- निर्मलं ज्ञानं: जो शुद्ध और सत्य हो।
- प्रमादध्वंस: अज्ञान और भ्रम का नाश।
यह श्लोक दिखाता है कि देवी वाणी की कृपा से ही सही ज्ञान प्राप्त होता है।
श्लोक 20: पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः।
अर्थ:
पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः। त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्करे॥
व्यास जी ने पुराण सूत्र सुनकर माँ वाणी की सेवा की और पुष्कर में सौ वर्षों तक ध्यान किया।
व्याख्या:
- शतवर्षं: लंबी अवधि तक भक्ति और ध्यान।
- पुष्कर: पवित्र तीर्थस्थल जहाँ ध्यान और साधना की जाती है।
यह श्लोक श्रद्धा और भक्ति की महिमा को व्यक्त करता है।
श्लोक 21: तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह।
अर्थ:
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह। तदा वेदविभागं च पुराणानि चकार ह॥
माँ वाणी के आशीर्वाद से व्यास जी महान कवि बने और उन्होंने वेदों का विभाजन तथा पुराणों की रचना की।
व्याख्या:
- कवीन्द्र: महान कवि, जो समाज का मार्गदर्शन करते हैं।
- वेदविभाग: वेदों को चार भागों में विभाजित करना।
यह श्लोक माँ वाणी के योगदान को साहित्य और धर्म में दर्शाता है।
श्लोक 22: यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं शिवा शिवम्।
अर्थ:
यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं शिवा शिवम्। क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्य तस्यै ज्ञानं दधौ विभुः॥
जब महेंद्र (इंद्र) ने शिवजी से तत्त्व ज्ञान के बारे में पूछा, तो शिवजी ने क्षणभर माँ वाणी का स्मरण किया और उन्हें ज्ञान प्रदान किया।
व्याख्या:
- तत्त्वज्ञान: सृष्टि के मूलभूत सिद्धांतों का ज्ञान।
- सञ्चिन्त्य: ध्यान और स्मरण करना।
यह श्लोक दिखाता है कि देवी वाणी की कृपा से ही देवताओं को भी ज्ञान की प्राप्ति होती है।
श्लोक 23: पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रस्च बृहस्पतिम्।
अर्थ:
पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रस्च बृहस्पतिम्। दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे॥
जब इंद्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र (भाषा और व्याकरण) के बारे में पूछा, तो बृहस्पति ने दिव्य हज़ार वर्षों तक पुष्कर में आपका ध्यान किया।
व्याख्या:
- शब्दशास्त्र: भाषा और व्याकरण का विज्ञान।
- दिव्यं वर्षसहस्रं: लम्बी अवधि तक की गई तपस्या।
यह श्लोक तपस्या और देवी वाणी के प्रति पूर्ण समर्पण की महिमा को व्यक्त करता है।
श्लोक 24: तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम्।
अर्थ:
तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम्। उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम्॥
दिव्य हज़ार वर्षों की तपस्या के बाद देवी वाणी से वर प्राप्त कर, बृहस्पति ने इंद्र को शब्दशास्त्र और उसके अर्थ का ज्ञान दिया।
व्याख्या:
- वरं प्राप्य: देवी की कृपा से ज्ञान प्राप्त करना।
- तदर्थं: शब्दों और उनके अर्थ का ज्ञान।
यह श्लोक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तप और समर्पण की अनिवार्यता को दर्शाता है।
श्लोक 25: अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः।
अर्थ:
अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः। ते च त्वां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरि॥
जिन मुनीश्वरों ने अपने शिष्यों को पढ़ाया और स्वयं ज्ञान प्राप्त किया, वे भी देवी सरस्वती का ध्यान और स्मरण कर अपनी विद्या में प्रगति करते हैं।
व्याख्या:
- अध्यापिताः: शिक्षा प्रदान करना।
- प्रवर्तन्ते: विद्या का विस्तार करना।
यह श्लोक शिक्षकों और शिष्यों दोनों के लिए माँ वाणी के महत्व को रेखांकित करता है।
श्लोक 26: त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः।
अर्थ:
त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः। दैत्यैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः॥
आपकी स्तुति और पूजा मुनियों, मनुष्यों, दैत्यों, देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, और शिव द्वारा की जाती है।
व्याख्या:
- संस्तुता: स्तुति करना।
- पूजिता: पूजा करना।
यह श्लोक दर्शाता है कि माँ वाणी का महत्व सभी लोकों और जातियों में है।
श्लोक 27: जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः।
अर्थ:
जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः। यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः॥
जब सहस्रास्य (हजार मुखों वाले), पंचवक्त्र (पाँच मुखों वाले), और चतुर्मुख (चार मुखों वाले) भी स्तुति करने में असमर्थ हैं, तो मैं, एक मुख वाला मानव, उनकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ?
व्याख्या:
- जडीभूतः: निष्क्रिय, स्तुति करने में अक्षम।
- एकास्य: एक मुख वाला साधारण मानव।
यह श्लोक माँ वाणी की स्तुति की कठिनाई और उनके अनंत महत्त्व को दर्शाता है।
श्लोक 28: इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः।
अर्थ:
इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः। प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः॥
यह कहते हुए याज्ञवल्क्य ने भक्ति और नम्रता से झुककर माँ को प्रणाम किया, उपवास किया और बार-बार रोकर अपनी स्तुति अर्पित की।
व्याख्या:
- भक्तिनम्र: भक्ति और विनम्रता का प्रतीक।
- रुरोद: आँसुओं के माध्यम से अपनी भक्ति व्यक्त करना।
यह श्लोक साधक के हृदय की गहराई और माँ वाणी के प्रति असीम श्रद्धा को दर्शाता है।
श्लोक 29: तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम्।
अर्थ:
तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम्। सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह॥
तब माँ वाणी ज्योति स्वरूप में प्रकट हुईं और याज्ञवल्क्य को आशीर्वाद दिया: “तुम महान कवि बनोगे।” यह कहकर वे वैकुण्ठ लौट गईं।
व्याख्या:
- ज्योतिः स्वरूपा: माँ वाणी का दिव्य रूप।
- सुकवीन्द्र: महान कवि।
यह श्लोक देवी वाणी के आशीर्वाद की महिमा को प्रकट करता है।
श्लोक 30: महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेकं च यः पठेत्।
अर्थ:
महामूर्खश्च दुर्मेधा वर्षमेकं च यः पठेत्। स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद्ध्रुवम्॥
जो महामूर्ख और दुर्बुद्धि व्यक्ति भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह निश्चित रूप से पंडित, मेधावी और महान कवि बन जाएगा।
व्याख्या:
- दुर्मेधा: कमजोर बुद्धि वाला।
- ध्रुवम्: निश्चित रूप से।
यह श्लोक माँ वाणी की स्तुति का महत्व और इसके प्रभाव को प्रमाणित करता है।
समापन:
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः संपूर्णं ॥
यह स्तोत्र माँ वाणी की महिमा और कृपा का परिचायक है। इसे पढ़ने और मनन करने से हर साधक को विद्या, स्मृति, और ज्ञान प्राप्त होता है।