- – यह कविता बजरंग (हनुमान) की भक्ति और उनकी वीरता का वर्णन करती है, जो विभीषण के ताने का जवाब देते हैं।
- – लंकापति (रावण) की सभा में बजरंग ने अपने सीने को फाड़कर राम और सीता के प्रति अपनी भक्ति और निष्ठा दिखाई।
- – सीता और राम की मूर्ति देखकर लंकापति घबराया और शर्मिंदा होकर सिर झुकाया।
- – सीता ने बजरंग की भक्ति की प्रशंसा करते हुए उन्हें अजर-अमर और वरदान देने की बात कही।
- – बजरंग को राम ने भरत के समान माना और उनकी भक्ति को कालों और युगों से जोड़कर बताया गया है।
- – कविता में बजरंग की माया और उनकी सदाबहार भक्ति को सभी युगों में महत्वपूर्ण बताया गया है।

ताना रे ताना विभीषण का,
जिसको नहीं सुहाया,
भरी सभा में फाड़ के सीना,
बजरंग ने दिखलाया,
बैठे राम राम राम,
सीता राम राम राम।।
तर्ज – माई नी माई मुंडेर पे तेरी।
देख राम सीता की मूरत,
लंकापति घबराया,
धन्य है रे बजरंगी उसको,
जिसका तू है जाया,
शर्मिंदा हो लंकपति ने,
अपना शीश झुकाया,
भरी सभा में फाड़ के सीना,
बजरंग ने दिखलाया,
बैठे राम राम राम,
सीता राम राम राम।।
देख भगत की भक्ति,
सीता बोली सुन ऐ लाला,
अजर अमर होगा तू जग में,
वर इनको दे डाला,
श्री राम ने भी तो इनको,
भरत समान बताया,
भरी सभा में फाड़ के सीना,
बजरंग ने दिखलाया,
बैठे राम राम राम,
सीता राम राम राम।।
तुम त्रेता में तुम द्वापर में,
तुम ही हो कलयुग में,
आना जाना जग वालो का,
तुम रहते हर जुग में,
‘राजपाल’ बजरंग ही जाने,
बजरंगी की माया,
भरी सभा में फाड़ के सीना,
बजरंग ने दिखलाया,
बैठे राम राम राम,
सीता राम राम राम।।
ताना रे ताना विभीषण का,
जिसको नहीं सुहाया,
भरी सभा में फाड़ के सीना,
बजरंग ने दिखलाया,
बैठे राम राम राम,
सीता राम राम राम।।
