भवाय चन्द्रचूडाय निर्गुणाय गुणात्मने ।
कालकालाय रुद्राय नीलग्रीवाय मङ्गलम् ॥ १ ॥
वृषारूढाय भीमाय व्याघ्रचर्माम्बराय च ।
पशूनां पतये तुभ्यं गौरीकान्ताय मङ्गलम् ॥ २ ॥
भस्मोद्धूलितदेहाय व्यालयज्ञोपवीतिने ।
रुद्राक्षमालाभूषाय व्योमकेशाय मङ्गलम् ॥ ३ ॥
सूर्यचन्द्राग्निनेत्राय नमः कैलासवासिने ।
सच्चिदानन्दरूपाय प्रमथेशाय मङ्गलम् ॥ ४ ॥
मृत्युंजयाय सांबाय सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे ।
त्र्यंबकाय सुशान्ताय त्रिलोकेशाय मङ्गलम् ॥ ५ ॥
गंगाधराय सोमाय नमो हरिहरात्मने ।
उग्राय त्रिपुरघ्नाय वामदेवाय मङ्गलम् ॥ ६ ॥
सद्योजाताय शर्वाय दिव्यज्ञानप्रदायिने ।
ईशानाय नमस्तुभ्यं पञ्चवक्त्राय मङ्गलम् ॥ ७ ॥
सदाशिवस्वरूपाय नमस्तत्पुरुषाय च ।
अघोरायच घोराय महादेवाय मङ्गलम् ॥ ८ ॥
मङ्गलाष्टकमेतद्वै शंभोर्यः कीर्तयेद्दिने ।
तस्य मृत्युभयं नास्ति रोगपीडाभयं तथा ॥ ९ ॥
श्री शिवमङ्गलाष्टकम्
भवाय चन्द्रचूडाय निर्गुणाय गुणात्मने
यह श्लोक भगवान शिव की स्तुति में है। इसमें शिव जी के विभिन्न रूपों और गुणों का वर्णन किया गया है। हर पंक्ति में शिव जी के एक विशिष्ट रूप का उल्लेख किया गया है।
भवाय चन्द्रचूडाय
इस पंक्ति में भगवान शिव को “भव” कहा गया है। भव का अर्थ होता है संसार या जीवन, और शिव को इस संसार के अधिपति माना गया है। “चन्द्रचूड” का अर्थ है वह देवता जिनके मस्तक पर चंद्रमा शोभित है। शिव जी के मस्तक पर चंद्रमा उनकी शीतलता और शांति का प्रतीक है।
निर्गुणाय गुणात्मने
“निर्गुण” का अर्थ है जो किसी भी गुण से बंधे नहीं हैं। भगवान शिव को निर्गुण कहा जाता है क्योंकि वे किसी एक गुण या रूप में सीमित नहीं होते। “गुणात्मने” का अर्थ है कि वे फिर भी उन गुणों के स्रोत हैं जो संसार में मौजूद हैं। इस पंक्ति में यह दिखाया गया है कि शिव जी निर्गुण होने के बावजूद गुणों से परिपूर्ण हैं।
कालकालाय रुद्राय
“कालकाल” का अर्थ है काल (समय) का भी काल, यानी वह जो समय को भी समाप्त कर सकता है। शिव जी को काल का अधिपति कहा गया है, क्योंकि वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं। “रुद्र” भगवान शिव का एक और नाम है, जिसका अर्थ है वह जो संसार की बुरी शक्तियों का नाश करते हैं।
नीलग्रीवाय मङ्गलम्
“नीलग्रीव” का अर्थ है नीला गला। यह शिव जी की उस स्थिति का वर्णन है जब उन्होंने समुद्र मंथन से निकले विष को अपने गले में रोक लिया था, जिससे उनका गला नीला हो गया था। शिव जी का यह रूप भी उनके महान बलिदान और संसार की रक्षा के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
वृषारूढाय भीमाय व्याघ्रचर्माम्बराय च
वृषारूढाय
यह पंक्ति शिव जी के वृषभ वाहन का वर्णन करती है। “वृष” नंदी बैल को कहा गया है, जो भगवान शिव का वाहन है। शिव का नंदी पर आरूढ़ होना उनके नियंत्रण, संयम और शक्ति का प्रतीक है।
भीमाय
“भीम” का अर्थ होता है भयंकर या भयानक। शिव जी को भीम कहा जाता है क्योंकि उनका रौद्र रूप संसार की बुराइयों को नष्ट करने वाला है। वे विनाशकारी भी हैं और सृजनकारी भी।
व्याघ्रचर्माम्बराय च
यहां भगवान शिव की वेशभूषा का वर्णन किया गया है। “व्याघ्रचर्म” का अर्थ है बाघ की खाल। शिव जी अक्सर व्याघ्रचर्म धारण करते हैं, जो उनकी शक्ति और अजेयता का प्रतीक है। बाघ को पराजित करके उसकी खाल पहनना इस बात का संकेत है कि शिव जी संसार की सभी बुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करते हैं।
पशूनां पतये तुभ्यं गौरीकान्ताय मङ्गलम्
पशूनां पतये
भगवान शिव को “पशुपति” कहा जाता है, जिसका अर्थ है सभी प्राणियों के स्वामी। वे सभी जीवों के संरक्षक और स्वामी हैं, चाहे वे पशु हों, मानव हों या देवता।
गौरीकान्ताय
यहां शिव जी को “गौरीकांत” कहा गया है, जिसका अर्थ है गौरी (पार्वती) के प्रिय। यह पंक्ति शिव और पार्वती के प्रेम और एकता का प्रतीक है। भगवान शिव और देवी पार्वती का मिलन संसार के संतुलन और शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
मङ्गलम्
“मंगलम्” का अर्थ है शुभकामना या आशीर्वाद। इस पूरे श्लोक में भगवान शिव की स्तुति की गई है और उनके विभिन्न रूपों को नमन किया गया है। भक्तों के लिए यह श्लोक शिव जी के आशीर्वाद को प्राप्त करने का माध्यम है।
भस्मोद्धूलितदेहाय व्यालयज्ञोपवीतिने
भस्मोद्धूलितदेहाय
यहां भगवान शिव के उस रूप का वर्णन है जहां उनका शरीर भस्म से ढका होता है। शिव जी अक्सर अपने शरीर पर भस्म (राख) लगाते हैं, जो सांसारिकता से परे होने का प्रतीक है। यह भी दर्शाता है कि मृत्यु और जीवन के चक्र से परे शिव का अस्तित्व है।
व्यालयज्ञोपवीतिने
“व्याल” का अर्थ है सर्प, और “यज्ञोपवीत” का अर्थ है वह पवित्र धागा जिसे ब्राह्मण धारण करते हैं। भगवान शिव अपने शरीर पर सर्प को यज्ञोपवीत की तरह धारण करते हैं, जो उनकी शक्ति और निर्भयता का प्रतीक है। यह इस बात का भी संकेत है कि वे सभी जीवों के अधिपति हैं, चाहे वह खतरनाक प्राणी ही क्यों न हो।
रुद्राक्षमालाभूषाय व्योमकेशाय मङ्गलम्
रुद्राक्षमालाभूषाय
यहां भगवान शिव को रुद्राक्ष की माला धारण किए हुए बताया गया है। रुद्राक्ष को शिव जी के आंसुओं से उत्पन्न माना जाता है और यह पवित्रता, ध्यान और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है। रुद्राक्ष की माला धारण करने का अर्थ है कि शिव जी सर्वशक्तिमान हैं और ध्यान के प्रतीक भी। यह माला उन्हें ध्यानयोगी के रूप में दिखाती है, जो संसार की बंधनों से मुक्त हैं और केवल परम तत्व में स्थित हैं।
व्योमकेशाय
“व्योम” का अर्थ है आकाश और “केश” का अर्थ है बाल। भगवान शिव के इस रूप में उनके केश आकाश की तरह असीम और अनंत होते हैं। यह उनके उस रूप का भी वर्णन करता है जब उन्होंने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया था। उनका व्योमकेश रूप संसार की समस्त सीमाओं से परे होने का प्रतीक है।
मङ्गलम्
श्लोक के अंत में एक बार फिर से “मंगलम्” का उल्लेख किया गया है, जो भगवान शिव की स्तुति में आशीर्वाद और शुभकामना की भावना व्यक्त करता है। इस श्लोक का उच्चारण करके भक्त भगवान शिव से मंगल की प्रार्थना करते हैं।
सूर्यचन्द्राग्निनेत्राय नमः कैलासवासिने
सूर्यचन्द्राग्निनेत्राय
इस पंक्ति में भगवान शिव के त्रिनेत्र (तीन आंखें) का वर्णन किया गया है। भगवान शिव के तीन नेत्र हैं—सूर्य, चंद्र और अग्नि। उनकी तीसरी आंख को अग्नि का प्रतीक माना जाता है, जो संसार की बुराइयों और अज्ञान को नष्ट करती है। सूर्य और चंद्र उनके अन्य दो नेत्र हैं, जो संसार को जीवन, प्रकाश और ऊर्जा प्रदान करते हैं।
नमः कैलासवासिने
“कैलासवासिन” का अर्थ है वह जो कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। भगवान शिव का निवास स्थान कैलाश पर्वत माना जाता है, जो एक पवित्र और शांतिपूर्ण स्थान है। यह उनकी तपस्या, ध्यान और शांति का प्रतीक है। कैलाश पर्वत को पृथ्वी पर स्वर्ग का रूप माना जाता है, जहां शिव जी ध्यानमग्न रहते हैं।
सच्चिदानन्दरूपाय प्रमथेशाय मङ्गलम्
सच्चिदानन्दरूपाय
इस पंक्ति में भगवान शिव को सच्चिदानंद कहा गया है, जिसका अर्थ है सत्य (सत्), चैतन्य (चित्), और आनंद (आनंद) का स्वरूप। शिव जी केवल शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि वे परम सत्य और चेतना के रूप में हैं, जो अनंत आनंद और मोक्ष का प्रतीक है। वे इस संसार की हर सजीव और निर्जीव वस्तु में विद्यमान हैं।
प्रमथेशाय
“प्रमथ” शब्द का अर्थ है भूत-प्रेत या शक्तियां जो शिव के साथ रहती हैं। शिव जी को “प्रमथेश” कहा जाता है क्योंकि वे इन प्रमथों (भूत-गणों) के स्वामी हैं। उनके ये गण उनके साथ हर समय रहते हैं और उनकी सेवा में रहते हैं। यह भगवान शिव के अद्भुत और अनूठे स्वरूप को दर्शाता है कि वे न केवल देवताओं के, बल्कि भूत-प्रेतों के भी स्वामी हैं।
मृत्यंजयाय सांबाय सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे
मृत्यंजयाय
भगवान शिव को “मृत्युञ्जय” कहा जाता है, जिसका अर्थ है मृत्यु को जीतने वाला। वे मृत्यु के देवता भी हैं और भक्तों को मृत्यु के भय से मुक्त करते हैं। शिव जी के इस रूप में उनका उद्देश्य जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त करना है। मृत्युञ्जय का जाप करने से व्यक्ति को दीर्घायु और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
सांबाय
“सांब” का अर्थ है साथ में अम्बा (पार्वती) के। शिव जी को सांब कहा जाता है क्योंकि वे हमेशा अपनी पत्नी, देवी पार्वती के साथ रहते हैं। यह उनके विवाह और प्रेम के अद्वितीय बंधन का प्रतीक है।
सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे
भगवान शिव को सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कारण माना जाता है। “सृष्टिस्थित्यन्तकारिण” का अर्थ है वह जो सृष्टि की उत्पत्ति, उसकी देखभाल और अंत का कारण है। वे पूरे ब्रह्मांड के निर्माता, संरक्षक और संहारक हैं। शिव जी की यह शक्ति उनकी त्रिलोकीश्वरीयता को दर्शाती है।
त्र्यंबकाय सुशान्ताय त्रिलोकेशाय मङ्गलम्
त्र्यंबकाय
भगवान शिव को “त्र्यंबक” कहा जाता है, जिसका अर्थ है तीन नेत्रों वाला। जैसा कि पहले बताया गया, शिव जी के तीन नेत्र हैं, जो सूर्य, चंद्र और अग्नि का प्रतीक हैं। इन नेत्रों से शिव जी संसार को प्रकाश, ऊर्जा और जीवन देते हैं, जबकि उनका तीसरा नेत्र संसार की बुराइयों और अज्ञान का नाश करता है। त्र्यंबक शिव का वह रूप है, जो ब्रह्मांड के रहस्यों और शक्तियों को नियंत्रित करता है।
सुशान्ताय
“सुशांत” का अर्थ है अत्यंत शांत। भगवान शिव को सुशांत कहा गया है क्योंकि वे अपनी साधना और ध्यान में लीन रहते हैं। शिव जी का यह शांत रूप उनके अंदर की असीम शांति और संतुलन को दर्शाता है। भले ही वे विनाशकारी भी हैं, उनका आंतरिक स्वभाव अत्यंत शांत और स्थिर है। यही गुण उन्हें ध्यान के देवता के रूप में स्थापित करता है।
त्रिलोकेशाय
शिव जी को त्रिलोकी के स्वामी कहा गया है, जिसका अर्थ है तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल) के स्वामी। वे समस्त ब्रह्मांड के राजा और संरक्षक हैं। उनका यह रूप उन्हें सभी देवताओं और जीवों के प्रति समानता का भाव रखता है। त्रिलोकेश का अर्थ है कि वे केवल पृथ्वी के ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड के ईश्वर हैं।
गंगाधराय सोमाय नमो हरिहरात्मने
गंगाधराय
भगवान शिव को “गंगाधर” कहा जाता है क्योंकि उन्होंने गंगा नदी को अपनी जटाओं में धारण किया है। यह कहानी समुद्र मंथन के समय की है जब गंगा को पृथ्वी पर लाने का काम शिव ने किया था ताकि उसका वेग कम हो सके और पृथ्वी पर कोई अनर्थ न हो। गंगा, शिव जी की जटाओं से होकर शांत रूप से बहती है, जो शिव की शक्ति और दया का प्रतीक है।
सोमाय
“सोम” का अर्थ है चंद्रमा, और शिव जी को “सोम” कहा जाता है क्योंकि वे अपने मस्तक पर चंद्रमा को धारण करते हैं। यह उनकी शीतलता, शांति और संयम का प्रतीक है। चंद्रमा का शिव के मस्तक पर होना उनके वैराग्य और सृष्टि के प्रति उनके नियंत्रित दृष्टिकोण को दर्शाता है।
नमो हरिहरात्मने
यहां शिव जी को “हरिहरात्मा” कहा गया है, जो शिव और विष्णु के एकात्मता का प्रतीक है। हरि का अर्थ विष्णु और हर का अर्थ शिव है। यह पंक्ति बताती है कि शिव और विष्णु एक ही हैं, उनके कार्य और स्वरूप भिन्न हो सकते हैं, लेकिन वे दोनों ब्रह्मांड की रक्षा के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। इस मंत्र से यह स्पष्ट होता है कि शिव और विष्णु के बीच कोई भेद नहीं है, वे दोनों मिलकर ब्रह्मांड की संचालन शक्ति हैं।
उग्राय त्रिपुरघ्नाय वामदेवाय मङ्गलम्
उग्राय
“उग्र” का अर्थ होता है क्रोधी या कठोर। भगवान शिव के इस रूप को उग्र कहा गया है क्योंकि वे जब क्रोध में आते हैं, तो संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकते हैं। शिव जी का यह उग्र रूप संसार की नकारात्मक शक्तियों और दुष्ट प्रवृत्तियों का विनाश करने वाला है। उनका उग्र रूप रौद्र रूप से जुड़ा हुआ है, जिसमें वे संसार के दुष्टों का नाश करते हैं।
त्रिपुरघ्नाय
शिव जी को “त्रिपुरघ्न” कहा जाता है क्योंकि उन्होंने त्रिपुरासुर का संहार किया था। त्रिपुरासुर तीन महाशक्तिशाली राक्षसों का राजा था, जिसने तीन अलग-अलग किलों में अपनी सत्ता स्थापित की थी। इन किलों को नष्ट करने के लिए शिव ने अपना त्रिशूल चलाया और त्रिपुरासुर का विनाश किया। यह पंक्ति शिव जी की उन शक्तियों का वर्णन करती है, जो बुरी शक्तियों का नाश करती हैं।
वामदेवाय
“वामदेव” शिव जी के पांच मुखों में से एक मुख का नाम है। यह मुख सृजन की शक्ति का प्रतीक है। वामदेव शिव के उस रूप को दर्शाता है जो करुणा, सृजन और संतुलन से भरा हुआ है। इस मुख से भगवान शिव ने ब्रह्मांड की सृष्टि की और उसे व्यवस्थित किया।
सद्योजाताय शर्वाय दिव्यज्ञानप्रदायिने
सद्योजाताय
“सद्योजात” शिव के पांच मुखों में से एक और मुख का नाम है। इस मुख से भगवान शिव ने तुरंत ही सृष्टि का निर्माण किया। सद्योजात मुख जीवन और रचना की शुरुआत का प्रतीक है। यह पंक्ति शिव जी की रचनात्मक और सृजनशील शक्तियों को व्यक्त करती है।
शर्वाय
“शर्व” भगवान शिव का एक और नाम है, जिसका अर्थ होता है विनाशक। शिव जी को शर्व कहा जाता है क्योंकि वे संसार की विनाशकारी शक्तियों का नाश करते हैं। यह नाम उनके रौद्र और उग्र रूप का प्रतीक है, जिसमें वे संसार के पापों और अधर्म को समाप्त करने के लिए प्रकट होते हैं।
दिव्यज्ञानप्रदायिने
यहां शिव जी को वह देवता बताया गया है जो “दिव्य ज्ञान” प्रदान करते हैं। शिव ज्ञान के स्रोत हैं और उन्होंने संसार को सच्चिदानंद और ब्रह्मज्ञान का मार्ग दिखाया है। उनका यह रूप साधकों को ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।
ईशानाय नमस्तुभ्यं पञ्चवक्त्राय मङ्गलम्
ईशानाय
“ईशान” शिव के पांच मुखों में से एक और मुख का नाम है। इस मुख से शिव जी समस्त ब्रह्मांड की देखभाल करते हैं और उसे व्यवस्थित रूप से संचालित करते हैं। ईशान मुख उत्तर दिशा का प्रतिनिधित्व करता है और यह शिव जी के उस रूप को दर्शाता है जो सृजन, पोषण और नियंत्रण का स्रोत है।
पञ्चवक्त्राय
भगवान शिव के पांच मुखों का वर्णन किया गया है। उनके ये पांच मुख विभिन्न दिशाओं और उनके विभिन्न गुणों का प्रतीक हैं। प्रत्येक मुख से शिव जी सृष्टि, स्थिति, प्रलय, ज्ञान और शक्ति का संचालन करते हैं। पञ्चवक्त्र शिव की सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमानता को दर्शाता है, जो ब्रह्मांड की सभी दिशाओं में व्याप्त है।
मङ्गलम्
इस श्लोक के अंत में शिव जी की स्तुति करते हुए एक बार फिर से “मंगलम्” कहा गया है, जिसका अर्थ शुभकामना और आशीर्वाद है। भक्त शिव जी से जीवन में शांति, सुरक्षा और समृद्धि की कामना करते हैं।
सदाशिवस्वरूपाय नमस्तत्पुरुषाय च
सदाशिवस्वरूपाय
भगवान शिव को “सदाशिव” कहा जाता है, जिसका अर्थ है शाश्वत शिव। वे हमेशा अजेय और अटल रहते हैं। उनका यह रूप शांति, मोक्ष और दिव्यता का प्रतीक है। सदाशिव वह स्वरूप है जो ब्रह्मांड के प्रारंभ से लेकर अंत तक अनंतकाल तक बना रहेगा। वे जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हैं।
नमस्तत्पुरुषाय च
“तत्पुरुष” शिव के पांच मुखों में से एक और मुख का नाम है। यह मुख शिव जी के उस रूप का प्रतिनिधित्व करता है जो ब्रह्मांड में हर जीवित प्राणी में व्याप्त है। शिव जी को सभी प्राणियों का पुरुष कहा जाता है, क्योंकि वे ही सृष्टि के आधार और स्रोत हैं।
अघोरायच घोराय महादेवाय मङ्गलम्
अघोरायच
“अघोर” शिव का वह रूप है जो अत्यंत दयालु और कृपालु है। अघोर का अर्थ होता है वह जो भय को दूर करता है। शिव जी के इस रूप को शांति, दया और करुणा का प्रतीक माना जाता है। अघोर रूप से भक्तों को शांति और सुरक्षा मिलती है।
घोराय
“घोर” शिव जी का वह रूप है जो अत्यंत उग्र और कठोर होता है। जब संसार में बुराई अपने चरम पर पहुंच जाती है, तो शिव जी अपने घोर रूप में प्रकट होते हैं और दुष्टों का संहार करते हैं। घोर रूप शिव के रौद्र रूप का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें वे संसार को धर्म और सत्य के मार्ग पर लाने के लिए कठोर निर्णय लेते हैं।
महादेवाय
“महादेव” का अर्थ है देवों के देव। भगवान शिव को महादेव कहा जाता है क्योंकि वे सभी देवताओं के भी ईश्वर हैं। उनका यह रूप उनकी सर्वोच्चता और सभी प्राणियों पर उनके अधिकार को दर्शाता है। महादेव को संसार के समस्त देवताओं और प्राणियों के रक्षक और पालनकर्ता माना जाता है।
मङ्गलाष्टकमेतद्वै शंभोर्यः कीर्तयेद्दिने
मङ्गलाष्टकमेतद्वै
इस पंक्ति में “मङ्गलाष्टक” शब्द का उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ है भगवान शिव की स्तुति में लिखे गए आठ श्लोक। इन आठ श्लोकों में भगवान शिव के विभिन्न रूपों, गुणों और उनकी महिमा का वर्णन किया गया है। ये श्लोक भगवान शिव की असीम शक्ति, करुणा और उनके गुणों की प्रशंसा करते हैं। “मङ्गलाष्टकम” का पाठ भक्तों के लिए एक पवित्र कार्य माना गया है, क्योंकि इससे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।
शंभोर्यः कीर्तयेद्दिने
इस पंक्ति में “शंभो” का अर्थ भगवान शिव से है, जिन्हें शंभु कहा जाता है। “कीर्तयेद्दिने” का अर्थ है जो भक्त इस मङ्गलाष्टक का दिन में पाठ करता है। यह पंक्ति बताती है कि जो भक्त प्रतिदिन भगवान शिव की इस मङ्गलाष्टक स्तुति का उच्चारण करते हैं, वे शिव की कृपा प्राप्त करते हैं। इससे भक्तों को जीवन में शांति, समृद्धि और शक्ति मिलती है।
तस्य मृत्युभयं नास्ति रोगपीडाभयं तथा
तस्य मृत्युभयं नास्ति
इस पंक्ति का अर्थ है कि जो भक्त प्रतिदिन इस मङ्गलाष्टक का पाठ करता है, उसे मृत्यु का भय नहीं रहता। भगवान शिव मृत्यु के देवता हैं और वे अपने भक्तों को मृत्यु के भय से मुक्त कर देते हैं। “मृत्युञ्जय” शिव का वह रूप है जो मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है, और इस स्तुति का पाठ करने से भक्त को दीर्घायु और आत्मशांति प्राप्त होती है।
रोगपीडाभयं तथा
यह पंक्ति बताती है कि भगवान शिव की इस स्तुति का पाठ करने से रोगों और कष्टों का भय भी समाप्त हो जाता है। शिव जी को भस्म और औषधियों का देवता माना जाता है, और वे अपने भक्तों को हर प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं। शिव जी की कृपा से भक्त स्वस्थ और सुखी रहते हैं, और उनका जीवन शांति से व्यतीत होता है।