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नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।

नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥

श्रील प्रभुपाद

यह एक संस्कृत श्लोक है जो श्रील प्रभुपाद, जिन्हें भक्तिवेदांत स्वामी भी कहा जाता है, की स्तुति और सम्मान में रचित है। इस श्लोक का अर्थ निम्नलिखित है:

श्लोक:

नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले
श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।
नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे
निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥

अर्थ:

  1. नम ॐ विष्णु-पादाय: मैं उस महान आत्मा को नमन करता हूँ, जो भगवान विष्णु के चरणों में समर्पित हैं।
  2. कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले: जो इस धरती पर भगवान श्रीकृष्ण के प्रिय सेवक हैं।
  3. श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने: जो श्रीमत भक्तिवेदांत स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं।
  4. नमस्ते सारस्वते देवे: मैं उस दिव्य व्यक्तित्व को नमन करता हूँ, जो श्रील सरस्वती ठाकुर के अनुयायी हैं।
  5. गौर-वाणी-प्रचारिणे: जो भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का प्रचार-प्रसार करते हैं।
  6. निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे: जो पश्चिमी देशों में व्यक्ति-विशेषता और शून्यवाद (मायावाद) से प्रभावित लोगों को भगवद-भक्ति की ओर प्रेरित कर उनका उद्धार कर रहे हैं।

विस्तृत विवरण:

यह श्लोक श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी को समर्पित है, जिन्होंने इस्कॉन (इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस) की स्थापना की और श्रीमद्भागवतम् एवं भगवद्गीता के ज्ञान को विश्वभर में फैलाया। इस श्लोक में उनके लिए सम्मान व्यक्त किया गया है, जिन्होंने अपने जीवन को भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके संदेश को फैलाने के लिए समर्पित कर दिया।

इस श्लोक में उल्लेख किया गया है कि श्रील प्रभुपाद जी ने न केवल भारत में, बल्कि पाश्चात्य देशों में भी वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को कृष्ण-भक्ति का मार्ग दिखाया।

इस श्लोक में उन्हें भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित बताया गया है, जो गौर वाणी (श्री चैतन्य महाप्रभु के उपदेश) के प्रचारक हैं। उन्होंने निर्विशेषवाद (जिसमें भगवान का कोई रूप नहीं माना जाता) और शून्यवाद (जो संसार को केवल एक शून्य मानता है) का खंडन करते हुए, कृष्ण की दिव्य प्रेम-भक्ति का प्रचार किया। वे पश्चिमी देशों में जाकर वहाँ के लोगों को भी भक्ति-मार्ग की ओर ले गए और उन्हें आध्यात्मिक जीवन की ओर प्रेरित किया।

इस प्रकार, यह श्लोक श्रील प्रभुपाद जी के महान कार्यों और उनके प्रति सम्मान को व्यक्त करता है।

श्रील प्रभुपाद प्रणति

श्लोक का संदर्भ और श्रील प्रभुपाद के जीवन एवं कार्यों के बारे में विस्तार से समझते हैं:

श्लोक का महत्व

यह श्लोक श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी के प्रति उनके शिष्यों और अनुयायियों द्वारा व्यक्त की गई गहरी श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। इस श्लोक का उच्चारण विशेष रूप से इस्कॉन (ISKCON) मंदिरों में उनकी पूजा-अर्चना और उनके योगदान को याद करने के लिए किया जाता है। इस श्लोक में उनकी उस अटूट भक्ति को दर्शाया गया है जो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित की थी।

श्रील प्रभुपाद का जीवन

श्रील प्रभुपाद का जन्म 1 सितम्बर, 1896 को कोलकाता में हुआ था। उनका मूल नाम अभयचरणारविंद दास था। वे बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे और उनके जीवन का उद्देश्य था भगवद-भक्ति और श्रीकृष्ण के संदेश को पूरी दुनिया में फैलाना।

उन्होंने अपने गुरु, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी के आदेश पर भगवद्गीता, श्रीमद्भागवतम्, उपनिषदों आदि का अंग्रेजी में अनुवाद किया, ताकि पश्चिमी लोग भी वैदिक साहित्य को समझ सकें। उन्होंने 1965 में, 69 वर्ष की आयु में, भारत से अमेरिका की यात्रा की और वहाँ जाकर “इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस” (ISKCON) की स्थापना की। उनकी भक्ति और समर्पण से इस्कॉन संगठन आज विश्व के 100 से भी अधिक देशों में फैला हुआ है और लाखों लोग इससे जुड़े हुए हैं।

श्रील प्रभुपाद का योगदान

  1. वैदिक साहित्य का अनुवाद: उन्होंने भगवद्गीता, श्रीमद्भागवतम्, चैतन्य चरितामृत, और अन्य वैदिक ग्रंथों का सरल अंग्रेजी में अनुवाद किया। यह उनके प्रमुख कार्यों में से एक है, जिसने पश्चिमी लोगों को वैदिक ज्ञान के निकट लाया।
  2. इस्कॉन की स्थापना: इस्कॉन की स्थापना से उन्होंने पूरे विश्व में श्रीकृष्ण भक्ति आंदोलन को फैलाया। इस्कॉन के माध्यम से उन्होंने कई मंदिरों, फार्म कम्यूनिटीज, स्कूलों और भोजन वितरण कार्यक्रमों की स्थापना की।
  3. हरिनाम संकीर्तन: उन्होंने हरिनाम संकीर्तन (भगवान के नाम का जप और कीर्तन) का प्रचार किया, जिससे लोग भगवान के नाम का स्मरण कर सकें और अपने जीवन को आध्यात्मिक बना सकें।
  4. मायावाद का खंडन: उन्होंने मायावाद (अद्वैत वेदांत) और शून्यवाद का खंडन किया, जो यह मानते हैं कि भगवान का कोई रूप नहीं है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भगवान श्रीकृष्ण सगुण और साकार हैं, और हमें उनके प्रति प्रेमभाव से भक्ति करनी चाहिए।
  5. भक्ति के चार सिद्धांतों की स्थापना: उन्होंने चार सिद्धांतों का पालन करने पर जोर दिया—
  • मांसाहार का त्याग
  • नशा (शराब, सिगरेट आदि) का त्याग
  • जुआ का त्याग
  • अवैध संबंधों का त्याग

6. वृन्दावन और मायापुर धाम का विकास: उन्होंने वृन्दावन और मायापुर में कई मंदिरों और भक्ति केंद्रों की स्थापना की, जिससे विश्वभर के भक्त इन पवित्र स्थलों का दर्शन कर सकें और भक्ति के मार्ग पर चल सकें।

निर्विशेषवाद और शून्यवाद का खंडन

श्रील प्रभुपाद ने अपनी पुस्तकों और प्रवचनों के माध्यम से निर्विशेषवाद (Impersonalism) और शून्यवाद (Voidism) का खंडन किया। उन्होंने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण का रूप, नाम, लीला आदि सभी दिव्य हैं और भगवान कोई शून्य या निर्गुण (गुणों से रहित) नहीं हैं। उन्होंने श्रीमद्भागवतम् के आधार पर यह सिद्ध किया कि भगवान साकार और सगुण हैं और हमें उनके प्रति प्रेमभाव से भक्ति करनी चाहिए। उन्होंने भगवद्गीता के श्लोक “मां एकं शरणं व्रज” (केवल मेरी शरण में आओ) का भी यही अर्थ बताया कि श्रीकृष्ण ही परम भगवान हैं और हमें केवल उनकी शरण में ही जाना चाहिए।

निष्कर्ष

श्रील प्रभुपाद ने अपने जीवन को भगवान श्रीकृष्ण की सेवा और भक्ति के प्रसार के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए पूरे विश्व में वैदिक धर्म और कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। उनका योगदान आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करता है और उनकी पुस्तकों और शिक्षाओं के माध्यम से लोग आध्यात्मिक शांति प्राप्त कर रहे हैं। यह श्लोक उनकी उसी महानता का वर्णन करता है और हमें उनके प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करने का अवसर देता है।

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