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प्रथमेनार्जिता विद्या,
द्वितीयेनार्जितं धनं ।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः,
चतुर्थे किं करिष्यति ॥

सरल रूपांतरण:
प्रथमे नार्जिता विद्या,
द्वितीये नार्जितं धनम् ।
तृतीये नार्जितं पुण्यं,
चतुर्थे किं करिष्यति ॥

प्रथमेनार्जिता विद्या

यह श्लोक एक महत्वपूर्ण संदेश देता है, जो जीवन में चार चरणों का प्रतीकात्मक अर्थ प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि जीवन के विभिन्न चरणों में व्यक्ति को क्या हासिल करना चाहिए और अगर ये चीजें हासिल नहीं की जातीं, तो अंतिम चरण में व्यक्ति के लिए क्या शेष रहता है।

प्रथमेनार्जिता विद्या:
इसका अर्थ है कि जीवन के पहले चरण में विद्या, अर्थात ज्ञान अर्जित करना सबसे महत्वपूर्ण है। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन के प्रारंभिक चरणों में शिक्षा प्राप्त नहीं करता, तो उसका जीवन अधूरा रह जाता है।

द्वितीयेनार्जितं धनं:
जीवन के दूसरे चरण में धन कमाने का महत्व बताया गया है। जब कोई व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो उसे अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए धन अर्जित करना चाहिए। यह जीवन की आर्थिक स्थिरता के लिए आवश्यक है।

तृतीयेनार्जितः कीर्तिः (सरल रूपांतरण में पुण्यं):
तीसरे चरण में कीर्ति (या सरल रूपांतरण में पुण्य) अर्जित करने की बात की गई है। कीर्ति का मतलब है अच्छा नाम और सम्मान प्राप्त करना, जबकि पुण्य का मतलब अच्छे कर्म करना है। जीवन के इस चरण में व्यक्ति को समाज और धर्म के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, ताकि वह सम्मान और पुण्य कमा सके।

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चतुर्थे किं करिष्यति:
अंत में श्लोक प्रश्न करता है कि यदि किसी ने इन तीन चीजों (विद्या, धन, और कीर्ति/पुण्य) को अर्जित नहीं किया, तो जीवन के चौथे और अंतिम चरण में व्यक्ति क्या करेगा? इसका तात्पर्य यह है कि जीवन के अंतिम चरण में व्यक्ति के पास कोई और विकल्प नहीं बचता, और उसे इस बात का पछतावा होता है कि उसने अपने जीवन में जरूरी चीजें अर्जित नहीं कीं।

इस श्लोक का सार यह है कि जीवन में समय रहते विद्या, धन, और पुण्य/कीर्ति अर्जित करना आवश्यक है। अन्यथा, जीवन का अंतिम चरण निराशा और पछतावे से भरा हो सकता है।

इस श्लोक में जीवन के चार मुख्य चरणों की ओर इशारा किया गया है, और ये चरण मानव जीवन की क्रमिक प्रगति को दर्शाते हैं। इसे चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास) से भी जोड़ा जा सकता है, जिनका वर्णन भारतीय सनातन परंपरा में मिलता है। आइए इन चरणों को और गहराई से समझें:

1. प्रथमेनार्जिता विद्या (ब्रह्मचर्य आश्रम):

  • ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन का पहला चरण है, जिसमें व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने पर ध्यान देना चाहिए। इस चरण में विद्या (शिक्षा और ज्ञान) को अर्जित करना प्राथमिकता होनी चाहिए। ज्ञान अर्जन से व्यक्ति को अपने भविष्य के लिए मजबूत नींव मिलती है। यह चरण बच्चों और युवाओं का होता है, जहां वे शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करते हैं, और अपने जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान और संस्कारों का विकास करते हैं।
  • यदि कोई इस चरण में शिक्षा को गंभीरता से नहीं लेता, तो उसके लिए जीवन के अगले चरण में चुनौतियों का सामना करना मुश्किल हो जाता है।
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2. द्वितीयेनार्जितं धनं (गृहस्थ आश्रम):

  • गृहस्थ आश्रम जीवन का दूसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति को अपने और अपने परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन अर्जित करना पड़ता है। इस चरण में व्यक्ति अपने जीवनसाथी के साथ घर-परिवार बसाता है, और विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में संलग्न होता है।
  • धन अर्जित करने का उद्देश्य केवल भौतिक सुख-सुविधाएं ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन भी होता है। यदि इस चरण में धन का उचित संचय नहीं किया जाता, तो जीवन के अगले चरणों में आर्थिक असुरक्षा हो सकती है।

3. तृतीयेनार्जितः कीर्तिः या पुण्यं (वानप्रस्थ आश्रम):

  • वानप्रस्थ आश्रम जीवन का तीसरा चरण है, जहां व्यक्ति अपने सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों का पालन करते हुए कीर्ति (सम्मान) और पुण्य (अच्छे कर्म) अर्जित करता है। इस चरण में व्यक्ति अपने अनुभवों और ज्ञान को समाज और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ साझा करता है।
  • कीर्ति अर्जित करने का मतलब है, समाज में अच्छा नाम कमाना, जबकि पुण्य अर्जित करने का मतलब है, धार्मिक और नैतिक कर्तव्यों का पालन करना। इस चरण में व्यक्ति को अपने भौतिक जीवन से धीरे-धीरे दूर होते हुए आध्यात्मिक और सामाजिक जिम्मेदारियों की ओर अग्रसर होना चाहिए।

4. चतुर्थे किं करिष्यति (संन्यास आश्रम):

  • संन्यास आश्रम जीवन का अंतिम चरण है, जिसमें व्यक्ति को संसार से विमुख होकर मोक्ष की ओर ध्यान देना चाहिए। अगर जीवन के पूर्व चरणों में विद्या, धन, और कीर्ति/पुण्य का अर्जन नहीं किया गया, तो संन्यास आश्रम में व्यक्ति के पास पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।
  • इस चरण में व्यक्ति का ध्यान भौतिक संसार से हटकर आध्यात्मिक उन्नति और आत्मा की मुक्ति पर होना चाहिए। लेकिन यदि पूर्व चरणों में सही तरीके से जीवन जीया गया हो, तो इस चरण में व्यक्ति के पास संतोष और आत्मिक शांति होती है।
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सारांश:

  • इस श्लोक का संदेश बहुत गहरा और विचारणीय है। यह हमें बताता है कि जीवन के हर चरण में हमें क्या हासिल करना चाहिए और इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किस तरह के प्रयास जरूरी हैं।
  • यदि कोई व्यक्ति जीवन के शुरुआती चरणों में शिक्षा प्राप्त करने में असफल रहता है, तो वह जीवन के बाकी चरणों में भी असफल हो सकता है। इसी प्रकार, यदि उसने धन, कीर्ति या पुण्य अर्जित नहीं किया, तो अंतिम चरण में उसके पास पछतावे के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा।
  • यह श्लोक जीवन को सही दिशा में जीने की प्रेरणा देता है, और हमें बताता है कि जीवन के हर चरण का अपना महत्व है, जिसे समय रहते समझना और उसे सार्थक बनाना ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।

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