शिव स्तुति, विद्येश्वरसंहिता श्रीशिवमहापुराण in Hindi/Sanskrit
आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभाव-
मार्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम् ।
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं
सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशम् ॥
Shiv Stuti, Vidyeshvara Samhita Shivmahapuran in English
Adyantamangalamajatasamanabhava-
Aryam tamishamajaramaramatmadevam.
Panchananam prabalapanchavinodashilam
Sambhavaye manasi Shankaramambikesham.
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शिव स्तुति, विद्येश्वरसंहिता श्रीशिवमहापुराण का अर्थ
आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभाव
आद्य और अन्त दोनों में मंगल करने वाला वह जो अजात (जिसका जन्म नहीं हुआ) है, जो समान भाव रखता है। यहाँ शिव का वर्णन किया गया है कि वे अनादि और अनन्त हैं, उनका कोई प्रारंभ या अन्त नहीं है। उनका स्वभाव समस्त सृष्टि के प्रति समान है, वे समस्त जीवों के प्रति बिना किसी भेदभाव के करुणा और दया से परिपूर्ण रहते हैं।
शिव का अद्वितीय स्वरूप
इस पंक्ति में शिव को उस ईश्वर के रूप में स्मरण किया गया है, जिनका न कोई जन्म है और न ही मृत्यु। यह उन्हें सृष्टि के सभी प्राणियों और तत्वों से अलग करता है। शिव का यह स्वरूप केवल भौतिकता से परे, आत्मा और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। उनके भीतर ऐसी दिव्यता और शक्ति है जो समय और स्थान की सीमाओं से परे है।
समान भावधारा
शिव का समान भावधारा होना उनके न्याय और करुणा का प्रतीक है। वे किसी से पक्षपात नहीं करते, समस्त प्राणियों को एक समान दृष्टि से देखते हैं। यह उनके आदर्श व्यक्तित्व का परिचायक है कि वे बिना किसी भेदभाव के सबको स्वीकारते हैं और उनका कल्याण करते हैं।
आर्यं तमीशमजरामरमात्मदेवम्
इस पंक्ति में शिव को आर्य बताया गया है, जो श्रेष्ठ और सभ्य हैं। उन्हें ईश्वर के रूप में पुकारा गया है जो अजर (कभी वृद्ध नहीं होते) और अमर (कभी नहीं मरते) हैं। शिव आत्मा के देवता हैं, जो आत्मा को मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
अजर और अमर शिव
शिव को अजर और अमर कहकर उनका अद्वितीयता और अनंतता का वर्णन किया गया है। वे कभी वृद्ध नहीं होते, न ही उनका अस्तित्व कभी समाप्त होता है। यह शिव के निरंतर और शाश्वत होने का सूचक है, वे सदा से हैं और सदा रहेंगे।
आत्मदेव
शिव को आत्मदेव कहा गया है, जो आत्मा के परम देवता हैं। यह दर्शाता है कि शिव केवल भौतिकता से नहीं जुड़े हैं, बल्कि वे आत्मिक शक्ति और चेतना के प्रतीक हैं। वे आत्मा को पवित्र करते हैं और जीवों को मोक्ष की ओर अग्रसर करते हैं।
पञ्चाननं प्रबलपञ्चविनोदशीलं
शिव को पाँच मुख वाले (पञ्चानन) के रूप में वर्णित किया गया है। यह पाँच मुख पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) और पाँच दिशाओं का प्रतीक है। शिव का यह रूप उनके प्रबल और शक्तिशाली होने का प्रतीक है।
पञ्चानन का महत्व
पाँच मुख शिव के विविध रूपों और शक्तियों का प्रतीक हैं। यह पाँच दिशाओं और पाँच तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शिव के पञ्चानन स्वरूप का ध्यान करना उनके समस्त रूपों का स्मरण करना है, जिससे वे समस्त सृष्टि पर अपने प्रभुत्व को प्रकट करते हैं।
प्रबलपञ्चविनोदशीलं
शिव को पाँच प्रकार के विनोदों में प्रवीण कहा गया है, जो उनकी लीलाओं और महिमाओं का द्योतक है। यह पाँच विनोद उनके द्वारा सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह का प्रतीक है। यह दिखाता है कि शिव अपने खेल और लीला के माध्यम से सृष्टि का संचालन करते हैं और उसे संतुलन में रखते हैं।
सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशम्
इस अंतिम पंक्ति में शिव को अम्बिकेश (पार्वती के पति) के रूप में स्मरण किया गया है। मनुष्य को अपने मन में शिव का ध्यान करना चाहिए, जो शंकर के रूप में जाने जाते हैं। शंकर का अर्थ है “कल्याणकारी”, जो सृष्टि के लिए कल्याणकारी कार्य करते हैं।
शंकर का ध्यान
शंकर का ध्यान करने से मनुष्य के मन और आत्मा को शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। वे अम्बिकेश, पार्वती के पति हैं, जो शिव के पारिवारिक जीवन और उनके संवेदनशील और प्रेमपूर्ण स्वभाव को दर्शाता है।
शिव की लीला और सृष्टि में भूमिका
शिव को संहारकर्ता के रूप में भी जाना जाता है, लेकिन इसका अर्थ विनाशक नहीं बल्कि सृष्टि के चक्र को निरंतर बनाए रखना है। सृष्टि के तीन मुख्य कार्य होते हैं – सृजन, पालन और संहार। शिव संहार के देवता हैं, लेकिन यह संहार विनाश के लिए नहीं बल्कि पुनरुत्थान के लिए होता है। वे पुरानी और नकारात्मक चीज़ों को समाप्त करते हैं ताकि नए का उदय हो सके। यह उनकी लीला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। शिव की इस भूमिका को गहराई से समझने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि वे नाश नहीं बल्कि पुनर्निर्माण के देवता हैं।
शिव का योगी स्वरूप
शिव को महामंत्रियों में से एक और महान योगी माना जाता है। वे ध्यान की गहराइयों में लीन रहते हैं और आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत हैं। उनका यह स्वरूप उन्हें सम्पूर्ण जगत से जुड़ा होने के बावजूद उसे पीछे छोड़ देने का प्रतिनिधित्व करता है। शिव का योगी रूप उनके विरक्ति, संयम और आत्म-संयम के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। वे सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठकर ध्यान, ध्यान और साधना के प्रतीक हैं।
शिव का डमरु और त्रिशूल
शिव के हाथों में डमरु और त्रिशूल होते हैं। डमरु से निकलने वाली ध्वनि सृष्टि के उत्पन्न होने का प्रतीक है, और त्रिशूल त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के तीन प्रमुख कार्यों – सृजन, पालन और संहार – का प्रतीक है।
- डमरु से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को ओमकार की ध्वनि के रूप में भी देखा जाता है, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। यह ध्वनि सृष्टि की शुरुआत को दर्शाती है।
- त्रिशूल शिव के तीन प्रमुख कार्यों को दर्शाता है – संहार, सृजन, और पुनर्निर्माण। यह प्रतीकात्मक रूप से बुराइयों के विनाश और सत्य की स्थापना का प्रतीक है।
अम्बिकेश: शिव का पारिवारिक स्वरूप
शिव को अम्बिकेश कहा गया है, जिसका अर्थ है पार्वती के पति। इस रूप में शिव को न केवल एक योगी और तपस्वी के रूप में देखा जाता है, बल्कि एक गृहस्थ और परिवार का पोषण करने वाले के रूप में भी जाना जाता है। उनके इस रूप से यह शिक्षा मिलती है कि एक व्यक्ति संसारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवन में संतुलन स्थापित कर सकता है।
पारिवारिक और प्रेममय जीवन
पार्वती के साथ शिव का विवाह और उनके परिवार में गणेश और कार्तिकेय का समावेश दर्शाता है कि शिव केवल तपस्वी और त्यागी नहीं हैं, बल्कि वे एक प्रेमपूर्ण परिवार के मुखिया भी हैं। शिव-पार्वती का संबंध आदर्श दाम्पत्य जीवन का प्रतीक है, जिसमें प्रेम, त्याग, और समर्पण सर्वोपरि हैं।
पंचानन स्वरूप का रहस्य
शिव का पंचानन रूप उन्हें पाँच दिशाओं और पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश) का अधिपति बनाता है। इसका तात्पर्य यह है कि वे सम्पूर्ण सृष्टि के प्रत्येक तत्व पर नियंत्रण रखते हैं। शिव के पंचमुखी स्वरूप में पाँचों मुख दिशाओं की ओर हैं, जो यह इंगित करता है कि वे पूरे विश्व में सर्वत्र हैं।
- उत्तर दिशा का मुख तत्पुरुष कहलाता है, जो ध्यान और साधना का प्रतीक है।
- पूर्व दिशा का मुख सद्योजात कहलाता है, जो सृजन का प्रतीक है।
- दक्षिण दिशा का मुख अघोर कहलाता है, जो विनाश और नाश का प्रतीक है, लेकिन यह नाश सकारात्मक और पुनर्निर्माण के लिए होता है।
- पश्चिम दिशा का मुख वामदेव कहलाता है, जो संरक्षण और सुरक्षा का प्रतीक है।
- आकाश दिशा का मुख ईशान कहलाता है, जो शुद्धता और आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है।
शिव और पंचविनोदशीलता
शिव की पंचविनोदशीलता सृष्टि के पांच प्रमुख कार्यों को दर्शाती है, जो उनके प्रबल और दिव्य स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। ये पाँच कार्य हैं:
- सृष्टि (उत्पत्ति) – सृष्टि के आरम्भ का कार्य, जिससे समस्त जगत का उदय होता है।
- स्थिति (पालन) – यह संसार के संचालन और उसके नियमों को बनाए रखने का कार्य है।
- संहार (विनाश) – यह पुराने और नकारात्मक तत्वों का अंत कर नई सृष्टि की प्रक्रिया है।
- तिरोभाव (अंतर्धान) – यह ईश्वर की शक्ति का लोप या छिपा हुआ रहना है, जो सृष्टि के नियमों में गहराई से लिपटा हुआ है।
- अनुग्रह (कृपा) – यह शिव की कृपा है, जो जीवों को मोक्ष की ओर ले जाती है।