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श्री हरि स्तोत्रम् in Hindi/Sanskrit

जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं
शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालं
नभोनीलकायं दुरावारमायं
सुपद्मासहायम् भजेऽहं भजेऽहं ॥1
सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं
जगत्सन्निवासं शतादित्यभासं
गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं
हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहं ॥2

रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं
जलान्तर्विहारं धराभारहारं
चिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं
ध्रुतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहं ॥3

जराजन्महीनं परानन्दपीनं
समाधानलीनं सदैवानवीनं
जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं
त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहं ॥4

कृताम्नायगानं खगाधीशयानं
विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानं
स्वभक्तानुकूलं जगद्व्रुक्षमूलं
निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहं ॥5

समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं
जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशं
सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं
सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहं ॥6

सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं
गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठं
सदा युद्धधीरं महावीरवीरं
महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहं ॥7

रमावामभागं तलानग्रनागं
कृताधीनयागं गतारागरागं
मुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः संपरीतं
गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहं ॥8

फलश्रुति
इदं यस्तु नित्यं समाधाय चित्तं
पठेदष्टकं कण्ठहारम् मुरारे:
स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं
जराजन्मशोकं पुनर्विन्दते नो ॥

Shri Hari Stotram in English

Jagajjaalapaalam chalatkanthamaalam
Sharachchandrabhaalam mahadaityakaalam
Nabhoneelakaayam duraavaaramaayam
Supadmaasahaayam bhaje’ham bhaje’ham ॥1

Sadaambhodhivaasam galatpushpahaasam
Jagatsannivaasam shataadityabhaasam
Gadaachakra shastram lasatpeetavastram
Hasachchaaruvaktram bhaje’ham bhaje’ham ॥2

Ramaakanthahaaram shrutivraatasaaram
Jalaantarvihaaram dharaabhaarahaaram
Chidaanandarupam manojnyasvarupam
Dhrutaanekarupam bhaje’ham bhaje’ham ॥3

Jaraajanmaheenam paraanandapeenam
Samaadhaanalinam sadaivaanaveenam
Jagajjanmahetum suraneekakhetum
Trilokaikasetum bhaje’ham bhaje’ham ॥4

Kritaamnayagaanam khagaadheeshayaanam
Vimukternidaanam haraaraatimaanam
Svabhaktaanukoolam jagadvrukshamoolam
Nirastaartashoolam bhaje’ham bhaje’ham ॥5

Samastaamaresham dvirephaabhakesham
Jagadvimbalesham hrudakaashadesham
Sadaa divyadeham vimuktaakhileham
Suvaikunthageham bhaje’ham bhaje’ham ॥6

Suraalibalishtham trilokeivarishtham
Guruunaam garishtham svarupaikanishtham
Sadaa yuddhadheeram mahaaveeraveeram
Mahaambhodhitheeram bhaje’ham bhaje’ham ॥7

Ramaavaamabhaagam talaanagranagam
Kritaadheenayaagam gataaragaragam
Muneendraih sugeetam suraih samparitam
Gunoudhairateetam bhaje’ham bhaje’ham ॥8

Phalashruti
Idam yastu nityam samaadhaaya chittam
Pathedashtakam kanthahaaram Muraareh:
Sa Vishnorvishokam dhruvam yaati lokam
Jaraajanmashokam punarvindate no ॥

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श्री हरि स्तोत्रम् का अर्थ

जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालं (पहला श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
यह श्लोक भगवान विष्णु की स्तुति में है, जिसमें उनकी महिमा का वर्णन किया गया है। श्लोक में विष्णु को जगत का रक्षक (जगज्जालपालं) कहा गया है, जिनकी गर्दन में मोतियों की माला (चलत्कण्ठमालं) शोभायमान है। उनके माथे पर शरद ऋतु के चंद्रमा की जैसी शीतलता है (शरच्चन्द्रभालं) और वे महादैत्य (बड़े राक्षसों) के काल अर्थात संहारक (महादैत्यकालं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु को ‘जगज्जालपालं’ के रूप में जाना जाता है, जिसका अर्थ है कि वे पूरे ब्रह्मांड की रक्षा करने वाले हैं। उनकी ग्रीवा में हमेशा मोतियों की माला (चलत्कण्ठमालं) हिलती रहती है, जो उनके अद्वितीय सौंदर्य और देवत्व का प्रतीक है। उनका माथा शरद ऋतु के चंद्रमा की तरह चमकदार है, जो शांति और शीतलता का प्रतीक है। साथ ही, वे राक्षसों और दुष्ट शक्तियों का विनाश करने वाले महाकाल (महादैत्यकालं) हैं।

नभोनीलकायं दुरावारमायं सुपद्मासहायम् (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
यह श्लोक भगवान विष्णु के अन्य गुणों को दर्शाता है, जिनका वर्णन करते हुए उन्हें नीले आकाश की तरह वर्ण का (नभोनीलकायं) कहा गया है। वे एक अदृश्य और अपार मायावी शक्ति (दुरावारमायं) रखते हैं, और उनके साथ सदा लक्ष्मीजी (सुपद्मासहायम्) होती हैं, जो धन और ऐश्वर्य की देवी हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु के नीले रंग की तुलना आकाश से की गई है, जो उनकी व्यापकता और अनंतता का प्रतीक है। यह रंग उनकी शाश्वत और अपरिमेय प्रकृति का प्रतीक है। उनके पास एक ऐसी मायावी शक्ति है जिसे समझना या पार पाना बहुत कठिन है। साथ ही, वे सदा देवी लक्ष्मी के साथ रहते हैं, जो सौभाग्य और समृद्धि की देवी हैं।

सदाम्भोधिवासं गलत्पुष्पहासं जगत्सन्निवासं शतादित्यभासं (दूसरा श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु का निवास समुद्र (सदाम्भोधिवासं) में बताया गया है, और उनके सुंदर चेहरे पर हमेशा एक फूल जैसी मुस्कान (गलत्पुष्पहासं) खिली रहती है। वे समस्त संसार के आधार हैं (जगत्सन्निवासं) और उनका तेज सैकड़ों सूर्यों के समान है (शतादित्यभासं)।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु का वास समुद्र में माना जाता है, क्योंकि समुद्र को असीम शक्ति और गहराई का प्रतीक माना जाता है। विष्णु के मुख पर जो मुस्कान खिलती रहती है, उसे फूलों से तुलना कर इसे बहुत ही शांतिपूर्ण और कोमल बताया गया है। वे पूरे संसार के पालनहार और आधार हैं। उनका तेज सैकड़ों सूर्यों की भांति प्रकाशित है, जो उनकी अपार शक्ति और प्रकाशमयी स्वरूप का प्रतीक है।

गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं हसच्चारुवक्त्रं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु के हाथों में गदा और चक्र (गदाचक्रशस्त्रं) शोभायमान रहते हैं। वे पीले वस्त्र (लसत्पीतवस्त्रं) पहनते हैं और उनका मुखमंडल सदा मुस्कुराता रहता है (हसच्चारुवक्त्रं)।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु के हाथों में गदा और चक्र उनके शौर्य और न्याय के प्रतीक हैं। गदा उनके बल और शक्ति का प्रतीक है, जबकि चक्र उनके न्याय और धर्म का प्रतीक है। उनके पीले वस्त्र उनका संबंध पृथ्वी और समृद्धि से दर्शाते हैं, और उनका हंसता हुआ चेहरा उनके शांत और करुणामय स्वभाव को प्रकट करता है।

रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं जलान्तर्विहारं धराभारहारं (तीसरा श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
यह श्लोक भगवान विष्णु को ‘रमाकण्ठहारं’ यानी लक्ष्मीपति के रूप में वर्णित करता है, जिनका ह्रदय सदा देवी लक्ष्मी से जुड़ा है। वे श्रुतियों (वेदों) के सार (श्रुतिव्रातसारं) का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान विष्णु जल में विहार (जलान्तर्विहारं) करते हैं और धरती के भार को हरने वाले (धराभारहारं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु का लक्ष्मी से गहरा संबंध है, जिन्हें वे सदा अपने ह्रदय में रखते हैं। वे वेदों के सार तत्व को समझाने वाले हैं, क्योंकि वे ज्ञान और धर्म का मूल स्रोत हैं। विष्णु समुद्र में निवास करते हुए धरती पर फैले भार, जो पाप और अधर्म का भार है, को दूर करते हैं। उनका यह रूप अत्यंत सौम्य और करुणामय है।

चिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं ध्रुतानेकरूपं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु का स्वरूप चिदानंदमय (चिदानन्दरूपं) है, अर्थात वे परम ज्ञान और आनंद के स्वरूप हैं। उनका स्वरूप मन को मोहने वाला (मनोज्ञस्वरूपं) है और वे अनेक रूपों को धारण (ध्रुतानेकरूपं) करते हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु को चिदानंद, यानी परम चेतना और परम आनंद का स्वरूप कहा गया है। उनका स्वरूप इतना सुंदर और मोहक है कि उसे देख कर मन शांत हो जाता है। विष्णु अनेक रूपों में प्रकट होते हैं और हर रूप में वे अपने भक्तों की रक्षा और मार्गदर्शन करते हैं।

जराजन्महीनं परानन्दपीनं समाधानलीनं सदैवानवीनं (चौथा श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
यह श्लोक भगवान विष्णु को जराजन्म से रहित (जराजन्महीनं) कहता है, अर्थात उनका न तो जन्म होता है और न ही वे वृद्ध होते हैं। वे परमानंद में लीन (परानन्दपीनं) हैं, सदा समाधि की अवस्था में रहते हैं (समाधानलीनं), और सदैव नए और ताजगी से भरे रहते हैं (सदैवानवीनं)।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु का यह स्वरूप उन्हें शाश्वत और अनंत बनाता है। वे जन्म और मृत्यु के चक्र से परे हैं, और सदैव परमानंद में स्थित रहते हैं। उनकी स्थिति समाधि जैसी है, जो उन्हें सदा शांत और स्थिर बनाए रखती है। उनका हर रूप नित्य नवीनता से भरा हुआ होता है, जो उनके अनंत सौंदर्य और करुणा का प्रतीक है।

जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं त्रिलोकैकसेतुं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु को इस श्लोक में जगत के जन्म का कारण (जगज्जन्महेतुं) बताया गया है। वे देवताओं की सेना के लिए ध्वज के समान (सुरानीककेतुं) हैं और तीनों लोकों के एकमात्र सेतु (त्रिलोकैकसेतुं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु को ब्रह्मांड के निर्माण का कारण माना जाता है। वे इस जगत के पालनहार और सृष्टि के जन्मदाता हैं। देवताओं के लिए वे ध्वज की तरह प्रेरणा और शक्ति का स्रोत हैं, जो देवताओं के बल और उनकी विजय का प्रतीक है। विष्णु तीनों लोकों – स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल – के बीच सेतु का कार्य करते हैं, अर्थात वे सभी लोकों को जोड़ने वाले हैं।

कृताम्नायगानं खगाधीशयानं विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानं (पांचवा श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
यह श्लोक भगवान विष्णु की स्तुति में कहा गया है कि वे अम्नाय (वेदों) का गायन करने वाले (कृताम्नायगानं) हैं। वे गरुड़ पर विराजमान (खगाधीशयानं) हैं, और मुक्ति (विमुक्ति) का कारण (विमुक्तेर्निदानं) हैं। साथ ही, वे हर (भगवान शिव) के शत्रुओं का संहार करने वाले (हरारातिमानं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु वेदों के आधार हैं और उनके गायन से धर्म की शिक्षा और प्रचार करते हैं। वे गरुड़ पर सवार होते हैं, जो उनकी शक्ति और तीव्रता का प्रतीक है। विष्णु अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने वाले हैं, और वे उन सभी दुष्ट शक्तियों का संहार करते हैं जो शिव और धर्म के विरुद्ध हैं।

स्वभक्तानुकूलं जगद्व्रुक्षमूलं निरस्तार्तशूलं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु अपने भक्तों के प्रति अत्यंत अनुकूल (स्वभक्तानुकूलं) रहते हैं। वे जगत रूपी वृक्ष की जड़ (जगद्व्रुक्षमूलं) हैं और सभी प्रकार के दुखों (आर्तशूल) को नष्ट करने वाले (निरस्तार्तशूलं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु अपने भक्तों के प्रति सदा दयालु और कृपालु रहते हैं। वे संसार रूपी वृक्ष की जड़ हैं, जो पूरे जगत को आधार प्रदान करती हैं। उनका यह रूप समस्त कष्टों और पीड़ाओं को समाप्त करने वाला है। उनके भक्त जब भी किसी कठिनाई में होते हैं, वे विष्णु से प्रार्थना करके अपने सभी दुखों से मुक्ति पाते हैं।

समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशं (छठा श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु समस्त देवताओं के स्वामी (समस्तामरेशं) हैं। उनकी केशराशि भौंरे (द्विरेफ) की तरह काली और सुंदर है। वे पूरे जगत के स्वामी (जगद्विम्बलेशं) हैं और उनके ह्रदय में आकाश का निवास (ह्रुदाकाशदेशं) है।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु सभी देवताओं के अधिपति हैं, जो उनकी सर्वोच्च स्थिति और सत्ता का प्रतीक है। उनके केश काले और घने हैं, जिनकी तुलना भौंरे से की गई है, जिससे उनका सौंदर्य और आकर्षण झलकता है। विष्णु इस पूरे संसार के स्वामी हैं और उनके ह्रदय में आकाश है, जो उनकी असीमता और अनंतता का प्रतीक है। उनका यह रूप शाश्वत और व्यापक है।

सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं सुवैकुण्ठगेहं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु का शरीर दिव्य (सदा दिव्यदेहं) है और वे समस्त पापों और अशुद्धियों से मुक्त (विमुक्ताखिलेहं) हैं। उनका निवास स्थान वैकुण्ठ (सुवैकुण्ठगेहं) है, जो परमधाम है।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु का शरीर नित्य दिव्य और प्रकाशमयी है, जिसमें कोई अशुद्धि नहीं होती। वे समस्त संसार के पापों से परे हैं और उनके ह्रदय में किसी प्रकार की माया या मोह का वास नहीं होता। उनका निवास वैकुण्ठ में है, जो मोक्ष का धाम माना जाता है। वैकुण्ठ में केवल वे ही पहुंच सकते हैं, जो समस्त पापों और बंधनों से मुक्त होते हैं।

सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठं (सातवां श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु देवताओं की सेना में सबसे शक्तिशाली (सुरालिबलिष्ठं) हैं। वे तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ (त्रिलोकीवरिष्ठं) हैं और गुरुओं में सबसे महान (गुरूणां गरिष्ठं) हैं। उनका स्वरूप एकमात्र सत्य में स्थित (स्वरूपैकनिष्ठं) है।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु देवताओं की सेना के प्रमुख हैं और उनकी शक्ति असीम है। वे तीनों लोकों – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल – में सबसे श्रेष्ठ और पूजनीय हैं। उनके ज्ञान और सत्य का कोई मुकाबला नहीं है, जिससे वे सभी गुरुओं में सबसे महान माने जाते हैं। उनका स्वरूप एकमात्र सत्य में स्थित है, जिससे वे कभी परिवर्तनशील नहीं होते।

सदा युद्धधीरं महावीरवीरं महाम्भोधितीरं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु सदा युद्ध में धीर (सदा युद्धधीरं) रहते हैं और सबसे बड़े वीर (महावीरवीरं) हैं। वे महा समुद्र के तीर पर स्थित (महाम्भोधितीरं) हैं, जो उनकी स्थिरता और असीम शक्ति का प्रतीक है।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु का धैर्य युद्ध में भी अटूट होता है। वे सदा शांति और धैर्य से लड़ते हैं और सबसे बड़े वीर माने जाते हैं। उनका निवास महासागर के तट पर माना जाता है, जो उनकी असीमित शक्ति और स्थिरता का प्रतीक है। महासागर की गहराई और विशालता की तरह ही विष्णु की शक्ति भी अनंत है।

रमावामभागं तलानग्रनागं कृताधीनयागं गतारागरागं (आठवां श्लोक)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु के बाएं भाग में देवी लक्ष्मी (रमा) विराजमान हैं (रमावामभागं)। वे तल पर एक विशाल नाग (तलानग्रनागं) पर शयन करते हैं। उन्होंने यज्ञों को अपने अधीन (कृताधीनयागं) किया हुआ है और वे समस्त कामनाओं और राग से परे (गतारागरागं) हैं।

विस्तृत व्याख्या:
विष्णु के बाएं भाग में देवी लक्ष्मी का वास है, जो धन, समृद्धि और ऐश्वर्य की देवी हैं। विष्णु का शयन शेषनाग पर होता है, जो उनकी शक्ति और सुरक्षा का प्रतीक है। विष्णु सभी यज्ञों और धार्मिक अनुष्ठानों के अधिष्ठाता हैं और उन्होंने इन्हें अपने अधीन कर रखा है। वे समस्त भौतिक इच्छाओं और रागों से मुक्त हैं, जो उनकी आध्यात्मिक उन्नति और शुद्धता का प्रतीक है।

मुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः संपरीतं गुणौधैरतीतं (श्लोक का दूसरा भाग)

श्लोक का अर्थ:
भगवान विष्णु की स्तुति मुनियों द्वारा गाई जाती है (मुनीन्द्रैः सुगीतं) और वे देवताओं द्वारा घिरे रहते हैं (सुरैः संपरीतं)। वे गुणों के भंडार (गुणौधैरतीतं) से भी परे हैं, अर्थात उनके गुण अनंत हैं।

विस्तृत व्याख्या:
भगवान विष्णु की स्तुति और भजन महान मुनि और ऋषि गाते हैं। वे देवताओं के प्रिय हैं और सदा उनके बीच घिरे रहते हैं। उनके गुणों का कोई पार नहीं है, क्योंकि वे अनंत और अपार हैं। विष्णु की महिमा का वर्णन करने के लिए शब्द भी कम पड़ जाते हैं। उनकी प्रत्येक लीला और कार्य धर्म और सत्य पर आधारित होते हैं।

फलश्रुति (इस श्लोक का फल)

फलश्रुति का अर्थ:
जो भी व्यक्ति इस अष्टक का नियमित रूप से (नित्यं समाधाय चित्तं) पाठ करता है, वह भगवान विष्णु की कृपा से विष्णुलोक में जाता है (स विष्णोर्विशोकं ध्रुवं याति लोकं)। उसे पुनः जन्म (जराजन्मशोकं) और मृत्यु का भय नहीं सताता है।

विस्तृत व्याख्या:
फलश्रुति का तात्पर्य है कि इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है। विष्णु भगवान के इस अष्टक का पाठ करने वाला व्यक्ति उनके धाम (वैकुण्ठ) को प्राप्त करता है। इसके प्रभाव से उसे संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है।

श्लोकों की धार्मिक महत्ता

भगवान विष्णु को हिन्दू धर्म में परम पालक के रूप में पूजा जाता है। वे त्रिमूर्ति का एक प्रमुख अंग हैं और सृष्टि, पालन और संहार का कार्य त्रिमूर्ति में ब्रह्मा, विष्णु और शिव द्वारा किया जाता है। विष्णु का प्रमुख कार्य संसार की रक्षा करना और धर्म की स्थापना करना है। जब-जब पृथ्वी पर धर्म का नाश और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब भगवान विष्णु विभिन्न अवतारों में अवतरित होते हैं, जैसे कि राम, कृष्ण, और नृसिंह आदि। इस श्लोक में भगवान विष्णु की उन सभी शक्तियों का वर्णन किया गया है जो उनके दिव्य स्वरूप का हिस्सा हैं।

श्लोक का आध्यात्मिक महत्व

भगवान विष्णु के इन अष्टकों को नियमित रूप से पढ़ने का आध्यात्मिक महत्व अत्यधिक है। यह श्लोक विष्णु की भक्ति को बढ़ाता है और उनके प्रति निष्ठा को गहरा करता है। श्लोक में वर्णित गुण और शक्तियाँ यह प्रेरणा देती हैं कि भगवान विष्णु के चरणों में श्रद्धा रखने से संसार के सभी दुख, कष्ट, और मोह का नाश होता है। भक्त अपने जीवन में संतोष और आंतरिक शांति का अनुभव करता है। यह श्लोक न केवल भगवान विष्णु की महिमा का गुणगान करता है, बल्कि इसमें यह संदेश भी निहित है कि धर्म और सत्य के पथ पर चलने वाला व्यक्ति हमेशा सुरक्षित और समृद्ध रहता है।

श्लोक के हर शब्द का गूढ़ अर्थ

  • जगज्जालपालं: इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भगवान विष्णु सम्पूर्ण ब्रह्मांड के रक्षक और पालनकर्ता हैं। वे इस संसार में फैले जाल रूपी माया को नियंत्रित करते हैं।
  • चलत्कण्ठमालं: भगवान विष्णु के गले में मोतियों की माला है, जो निरंतर हिलती रहती है और यह उनके जीवन की निरंतरता और इस ब्रह्मांड की स्थिरता का प्रतीक है।
  • शरच्चन्द्रभालं: यह शब्द उनके शीतल और मनमोहक स्वरूप को दर्शाता है। उनके मस्तक पर शरद ऋतु के चन्द्रमा की भांति शीतलता और शांति का प्रकाश फैलता है।
  • महादैत्यकालं: भगवान विष्णु महादैत्य, अर्थात बड़े राक्षसों का विनाश करने वाले हैं। उनका यह स्वरूप अंधकार और असत्य के नाश का प्रतीक है।

ध्यान और साधना के लिए मार्गदर्शन

इस श्लोक का नियमित पाठ ध्यान और साधना में अत्यधिक लाभकारी माना जाता है। यह श्लोक व्यक्ति को भगवान विष्णु के ध्यान में लीन करने में मदद करता है। हर श्लोक में भगवान विष्णु के गुणों और शक्तियों का वर्णन है, जो ध्यान के समय मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करता है। यदि कोई व्यक्ति इस अष्टक को ध्यानपूर्वक रोज़ पढ़ता है, तो उसे विष्णु की कृपा से संसार के दुखों और मोह से मुक्ति मिलती है।

वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति

फलश्रुति में यह कहा गया है कि इस अष्टक का पाठ करने वाला व्यक्ति विष्णु धाम, अर्थात वैकुण्ठ को प्राप्त करता है। वैकुण्ठ धाम को वह स्थान माना जाता है, जहाँ भगवान विष्णु निवास करते हैं। यह धाम संसार के सभी कष्टों से मुक्त है और यहाँ केवल शांति और आनंद है। इस अष्टक का पाठ व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है और उसे ईश्वर के निकट ले जाता है।

श्रद्धालुओं के लिए प्रेरणा

इस श्लोक में न केवल भगवान विष्णु की महिमा का वर्णन है, बल्कि यह भक्तों के लिए एक प्रेरणा स्रोत भी है। श्लोक यह संदेश देता है कि जो व्यक्ति भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखता है, उसे संसार के सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है। यह श्लोक एक आध्यात्मिक मार्गदर्शन है, जो यह सिखाता है कि भगवान विष्णु की शरण में आने से व्यक्ति को केवल मोक्ष ही नहीं, बल्कि इस जीवन में भी सुख और शांति मिलती है।

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