- – यह कविता जीवन को एक रेलगाड़ी की तरह दर्शाती है, जिसमें पाप और धर्म दो पट्टियाँ हैं जिन पर जीवन चलता है।
- – कर्म को सिग्नल के रूप में बताया गया है, जो जीवन की गाड़ी को रोक या आगे बढ़ा सकता है।
- – शरीर को गाड़ी का ढांचा और मन को इंजन बताया गया है, जो जीवन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- – भजन और आध्यात्मिकता को गाड़ी की बैटरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अंधकार को दूर करता है।
- – ज्ञान और बुद्धि को गार्ड और चेकर के रूप में दिखाया गया है, जो जीवन की सही दिशा और मार्गदर्शन करते हैं।
- – कविता में जीवन के सफर को निरंतर चलने वाली गाड़ी के रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय आवश्यक है।

दो पहिये की गाड़ी तेरी,
हँसला गाड़ीवान,
डगर पर चलती है,
इंजन इसका गजब बनाया,
कारीगर करतार,
डगर पर चलती है।।
देखे – जीवन तो भैया एक रेल है।
पाप धर्म दो पटड़ी है,
गाड़ी आती जाती है,
कर्म का सिग्नल लगता है,
गाड़ी वहीँ रुक जाती है,
लख चौरासी स्टेशन को,
करती है यह पार,
डगर पर चलती है।।
नौ दस मास बनाने में,
इस गाड़ी को लगते है,
हाड़ मांस के पिंजरे में,
पल पल गाड़ी रचती है,
इस गाड़ी में पुरजे लगे है,
नो नाड़ी दस द्वार,
डगर पर चलती है।।
सात से पाँच लगे डिब्बे,
मन का इंजन लगता है,
उदर की अग्नि में भाई,
दो टेम कोयला लगता है,
भजन बैटरी इस गाड़ी का,
दूर करे अंधियार,
डगर पर चलती है।।
ज्ञानीराम जी गार्ड बने,
हाथ मे झंडी रखते है,
बुद्धिराम चेकर इसका,
टिकट चेक वो करते है,
कहे ‘आलूसिंह’ इस गाड़ी को,
समझे समझणहार,
डगर पर चलती है।।
दो पहिये की गाड़ी तेरी,
हँसला गाड़ीवान,
डगर पर चलती है,
इंजन इसका गजब बनाया,
कारीगर करतार,
डगर पर चलती है।।
प्रेषक – जगदीश प्रसाद शर्मा।
8890089022
