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करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा ।
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधं ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥

क्षमा मंत्र

करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा

यह पंक्ति उस पाप की चर्चा करती है जो व्यक्ति अपने हाथों और पैरों द्वारा करता है। हाथों द्वारा किए गए कर्मों में चोरी, हिंसा, किसी का अपमान, या अन्य कोई पाप सम्मिलित हो सकता है। पैरों द्वारा किए गए पापों में अनुचित स्थानों पर जाना, गलत संगत में रहना, या किसी के प्रति द्वेष भावना रखना हो सकता है। यह मनुष्य के शारीरिक क्रियाओं द्वारा किए गए पापों की बात करता है।

वाक्कायजं कर्मजं वा

यहां पर वाणी और शरीर द्वारा किए गए पापों की बात की जा रही है। वाक्कायज पापों में व्यक्ति के द्वारा बोली गई कठोर या झूठी बातें आती हैं जो किसी के दिल को दुखाती हैं। इसके अलावा, शरीर से किए गए पाप जैसे हिंसा, किसी का अनादर करना या किसी भी प्रकार की शारीरिक अत्याचार सम्मिलित हो सकता है। इन पंक्तियों के माध्यम से यह बात सामने आती है कि हम अपने शब्दों और शारीरिक कार्यों से पाप कर सकते हैं।

श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधं

इस पंक्ति में श्रवण (सुनने), नयन (देखने) और मानसिक (मानसिक) पापों का उल्लेख किया गया है। श्रवण से किए गए पापों में किसी के गपशप को सुनना, गलत बातें सुनना और उनके प्रभाव में आना शामिल है। नयनज पापों में गलत चीजों को देखना, ईर्ष्या से किसी को देखना, और बुरी दृष्टि से किसी की ओर देखना शामिल है। मानसं वा का अर्थ है मन से किए गए पाप, जिसमें किसी के प्रति बुरी सोच रखना, ईर्ष्या, द्वेष या किसी के प्रति बुरी भावनाएं रखना शामिल है।

विहितमविहितं वा

यहां पर विधिपूर्वक और अविधिपूर्वक किए गए कार्यों का उल्लेख किया गया है। ‘विहित’ का अर्थ होता है धर्म के अनुरूप किए गए कार्य और ‘अविहित’ का मतलब है धर्म के विरुद्ध किए गए कार्य। इस पंक्ति का उद्देश्य यह है कि चाहे वह कर्म धार्मिक हो या अधार्मिक, जाने-अनजाने में किए गए हर पाप के लिए क्षमा याचना की जा रही है।

सर्वमेतत्क्षमस्व

इस पंक्ति के माध्यम से व्यक्ति भगवान से उन सभी पापों के लिए क्षमा मांग रहा है, जो उसने जान-बूझकर या अनजाने में किए हैं। यह एक विनती है कि भगवान उन सभी गलतियों को माफ कर दें जो उसके जीवन में कहीं न कहीं हुई हैं। यह एक गहन प्रार्थना है जिसमें अपने सभी पापों की स्वीकृति और उन्हें क्षमा करने की प्रार्थना है।

जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो

यह अंतिम पंक्ति महादेव (शिव) की स्तुति करते हुए कहती है कि हे करुणा के महासागर, महादेव, शंभू, आपकी जय हो। यहां पर भगवान शिव की करुणा और उनकी दया की प्रशंसा की जा रही है। शिव को करुणा का महासागर कहा गया है, जो सभी जीवों को अपने असीम प्रेम और दया से संजीवनी प्रदान करते हैं।

भावार्थ और आध्यात्मिक महत्व

यह श्लोक भगवान शिव की उपासना में रचा गया है, जिसमें व्यक्ति अपने द्वारा किए गए सभी पापों के लिए क्षमा मांगता है। व्यक्ति अपने कर्म, वाणी, विचार और इंद्रियों से किए गए सभी पापों को भगवान के समक्ष स्वीकार करता है और उनसे क्षमा की प्रार्थना करता है। यह एक गहरी आध्यात्मिक साधना है जो व्यक्ति को उसकी गलतियों का बोध कराती है और भगवान के सामने उसे समर्पण करने की प्रेरणा देती है।

आध्यात्मिक साधना में क्षमा का महत्व

क्षमा याचना हमारे जीवन में आत्मशुद्धि का साधन है। जब हम अपनी गलतियों को स्वीकारते हैं और उनके लिए क्षमा मांगते हैं, तो हम अपने अहंकार को छोड़ते हैं और ईश्वर की दया के प्रति समर्पित होते हैं। भगवान शिव, जिन्हें ‘शंभू’ कहा गया है, का नाम ही हमें यह सिखाता है कि वे सृष्टि के कल्याण के प्रतीक हैं। उनकी दया असीम है और वे अपने भक्तों की सभी गलतियों को क्षमा करते हैं।

शिव की करुणा का महत्त्व

शिव को करुणा का महासागर कहा गया है क्योंकि वे सभी प्राणियों को समान रूप से देखते हैं और सभी के प्रति प्रेम और करुणा रखते हैं। उनके लिए पाप और पुण्य का भेद नहीं है; वे अपने भक्तों की भक्ति और समर्पण को देखते हैं। यही कारण है कि वे क्षमाशील हैं और उनके चरणों में क्षमा की प्रार्थना करना व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से मुक्त करता है।

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अस्वीकरण (Disclaimer) : नुस्खे, योग, धर्म, ज्योतिष आदि विषयों पर HinduismFAQ में प्रकाशित/प्रसारित वीडियो, आलेख एवं समाचार सिर्फ आपकी जानकारी के लिए हैं। 'HinduismFAQ' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।