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लक्ष्मी स्तोत्र – इन्द्रकृत in Hindi/Sanskrit

ऊँ नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम: ।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नम: ॥1॥

पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम: ।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम: ॥2॥

सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नम: ।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नम: ॥3॥

हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नम: ।
कृष्णवक्ष:स्थितायै च कृष्णेशायै नमो नम: ॥4॥

कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने ।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नम: ॥5॥

शस्याधिष्ठातृदेव्यै च शस्यायै च नमो नम: ।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नम: ॥6॥

वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्लक्ष्मी: क्षीरोदसागरे ।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥7॥
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता ।
सुरभी सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥8॥

अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये ।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥9॥

त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥10॥

क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना ।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥11॥

यया विना जगत् सर्वं भस्मीभूतमसारकम् ।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥12॥

सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी ।
यया विना न सम्भाष्यो बान्धवैर्बान्धव: सदा ॥13॥

त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्त: सबान्धव: ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥14॥

यथा माता स्तनन्धानां शिशूनां शैशवे सदा ।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपत: ॥15॥

मातृहीन: स्तनत्यक्त: स चेज्जीवति दैवत: ।
त्वया हीनो जन: कोsपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥16॥

सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके ।
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥17॥

वयं यावत् त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुका: ।
सर्वसम्पद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥18॥

राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि ।
कीर्तिं देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै ॥19॥

कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये ।
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥20॥

प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च ।
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ॥21॥

फलश्रुति:
इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसंध्यं य: पठेन्नर: ।
कुबेरतुल्य: स भवेद् राजराजेश्वरो महान् ॥
सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत् सोsपि कल्पतरुर्नर: ।
पंचलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥
सिद्धिस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं च संयत: ।
महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशय: ॥

Lakshmi Stotram By Indra in English

Om namah kamalavasinyai narayanyai namo namah.
Krishnapriyaye saraye padmaye cha namo namah. ॥1॥

Padmapatrekshanaye cha padmasyayai namo namah.
Padmasanaye padminyai vaishnavyai cha namo namah. ॥2॥

Sarvasampatsvaroopayai sarvadatryai namo namah.
Sukhadaye mokshadaye siddhidayai namo namah. ॥3॥

Haribhaktipradatryai cha harshadatryai namo namah.
Krishnavakshasthitaye cha krishneshayai namo namah. ॥4॥

Krishnashobhasvaroopayai ratnapadme cha shobhane.
Sampatyadhishthatridevyai mahadevyai namo namah. ॥5॥

Shasyadhishthatridevyai cha shasyayai cha namo namah.
Namo buddhisvaroopayai buddhidayai namo namah. ॥6॥

Vaikunṭhe ya mahalakshmirlakshmiḥ kshirodasagare.
Swargalakshmirindragehe rajalakshmirnrupalaye ॥7॥
Grihalakshmishcha grihinam gehe cha grihadevata.
Surabhi sa gavam mata dakshina yajnakamini ॥8॥

Aditirdevamata tvam kamala kamalalaye.
Swaha tvam cha havirdane kavyadane swadha smrita ॥9॥

Tvam hi vishnusvaroopaa cha sarvadhara vasundhara.
Shuddhasattvasvaroopaa tvam narayanaparayana ॥10॥

Krodhahimsavarjita cha varada cha shubhanana.
Paramarthaprada tvam cha haridasyaprada para ॥11॥

Yaya vina jagat sarvam bhasmibhootamasarakam.
Jivanmritam cha vishvam cha shavatulyam yaya vina ॥12॥

Sarvesham cha para tvam hi sarvabandhuvaroopini.
Yaya vina na sambhashyo bandhavairbandhavah sada ॥13॥

Tvaya heeno bandhuhinas tvaya yuktah sabandhavah.
Dharmarthakamamokshanam tvam cha karanarupini ॥14॥

Yatha mata stanadhanam shishunam shaishave sada.
Tatha tvam sarvada mata sarvesham sarvaroopatah ॥15॥

Matrheenas tanatyaktas sa chejjivati daivat.
Tvaya heeno janah ko’pi na jivatyava nishchitam ॥16॥

Suprasannasvaroopaa tvam mam prasanna bhavambike.
Vairigrastam cha vishayam dehi mahyam sanathani ॥17॥

Vayam yavat tvaya heena bandhuhinascha bhikshukah.
Sarvasampadvihinashcha tavad eva haripriye ॥18॥

Rajyam dehi shriyam dehi balam dehi sureshvari.
Kirtim dehi dhanam dehi yasho mahyam cha dehi vai ॥19॥

Kamam dehi matim dehi bhogan dehi haripriye.
Gyanam dehi cha dharmam cha sarvasaubhagyamipsitam ॥20॥

Prabhavam cha pratapam cha sarvadhikaram eva cha.
Jayam parakramam yuddhe paramaisvaryam eva cha ॥21॥

Phalashruti:
Idam stotram mahapunyam trisandhyam yah pathennarah.
Kuberatulyah sa bhaved rajarajeshvaro mahan.
Siddhastotram yadi pathet sopi kalpatarurnarah.
Panchalakshajapenaiya stotrasiddhirbhavenrunam.
Siddhistotram yadi pathet masamekam cha sanyatah.
Mahasukhicha rajendro bhavishyati na sanshayah.

इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र PDF Download

इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र का अर्थ

यह श्लोक महालक्ष्मी स्तोत्र है, जो देवी लक्ष्मी की स्तुति के लिए है। इसमें देवी लक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों, उनकी कृपा और महिमा का वर्णन किया गया है। यहाँ हर श्लोक का विस्तार से अर्थ दिया गया है:

श्लोक 1:

ऊँ नम: कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नम: ।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नम: ॥1॥

अर्थ: मैं उस देवी को नमन करता हूँ जो कमल पर विराजमान हैं, नारायण की पत्नी हैं, और भगवान कृष्ण को प्रिय हैं। वे देवी लक्ष्मी हैं जो सारस्वरूपा हैं और पद्मिनी (कमल की तरह सौंदर्य और पवित्रता वाली) हैं।

श्लोक 2:

पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम: ।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम: ॥2॥

अर्थ: जिनके नेत्र कमल के पत्तों के समान हैं, जिनका मुख कमल के समान है, और जो पद्मासन (कमलासन) में बैठी हैं, ऐसी पद्मिनी देवी को, जो वैष्णवी (विष्णु की पत्नी) हैं, मैं नमन करता हूँ।

श्लोक 3:

सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नम: ।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नम: ॥3॥

अर्थ: जो सभी संपत्तियों की स्वरूपा हैं और जो सभी को दान देती हैं, उन देवी को नमन। जो सुख, मोक्ष और सिद्धि प्रदान करती हैं, उन्हें बार-बार प्रणाम।

श्लोक 4:

हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नम: ।
कृष्णवक्ष:स्थितायै च कृष्णेशायै नमो नम: ॥4॥

अर्थ: जो हरि (विष्णु) की भक्ति प्रदान करती हैं और आनंद देती हैं, उन देवी को नमन। जो भगवान कृष्ण के वक्षस्थल में निवास करती हैं और कृष्णेश्वरी (कृष्ण की पत्नी) हैं, उन्हें नमस्कार।

श्लोक 5:

कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने ।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नम: ॥5॥

अर्थ: जो कृष्ण की शोभा की स्वरूप हैं, जो रत्न के कमल पर शोभायमान हैं, जो समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं और जो महादेवी हैं, उन्हें नमस्कार।

श्लोक 6:

शस्याधिष्ठातृदेव्यै च शस्यायै च नमो नम: ।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नम: ॥6॥

अर्थ: जो शस्य (फसल) की अधिष्ठात्री देवी हैं, जो बुद्धि की स्वरूप हैं और बुद्धि प्रदान करती हैं, उन्हें नमस्कार।

श्लोक 7:

वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्लक्ष्मी: क्षीरोदसागरे ।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥7॥

अर्थ: जो वैकुंठ में महालक्ष्मी हैं, जो क्षीरसागर (समुद्र) में लक्ष्मी हैं, जो स्वर्ग में इन्द्र की लक्ष्मी हैं, और जो राजाओं के महल में राजलक्ष्मी हैं, उन सभी रूपों में उन्हें नमन।

श्लोक 8:

गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता ।
सुरभी सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥8॥

अर्थ: जो गृहिणियों के घर में गृहलक्ष्मी के रूप में, गवों (गायों) की माता सुरभि के रूप में, और यज्ञ की कामना करने वाली दक्षिणा के रूप में विराजमान हैं, उन्हें नमन।

श्लोक 9:

अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये ।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥9॥

अर्थ: जो अदिति के रूप में देवताओं की माता हैं, जो कमला (लक्ष्मी) के रूप में कमल में निवास करती हैं, जो हवि (यज्ञ सामग्री) देने में स्वाहा और पितरों को दिए गए दान में स्वधा के रूप में जानी जाती हैं, उन्हें नमन।

श्लोक 10:

त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥10॥

अर्थ: आप ही विष्णु की स्वरूपा हैं, समस्त संसार की आधार भूमि हैं, शुद्ध सत्त्व स्वरूप हैं और नारायण की परायण (पूजा करने वाली) हैं।

श्लोक 11:

क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना ।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥11॥

अर्थ: जो क्रोध और हिंसा से रहित हैं, जो वरदान देने वाली हैं और जिनका मुखमंडल शुभ है, जो परमार्थ (मोक्ष) देने वाली हैं और हरि के दास्यभाव (सेवा) की परमप्रदाता हैं, उन्हें नमन।

श्लोक 12:

यया विना जगत् सर्वं भस्मीभूतमसारकम् ।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥12॥

अर्थ: जिनके बिना यह सम्पूर्ण जगत् असारक (नष्ट) हो जाता है, जिनके बिना संसार जीवित रहते हुए भी मृत के समान है, और शव के तुल्य हो जाता है, उन्हें प्रणाम।

श्लोक 13:

सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी ।
यया विना न सम्भाष्यो बान्धवैर्बान्धव: सदा ॥13॥

अर्थ: आप ही सबसे श्रेष्ठ और सभी रिश्तेदारों के रूप में उपस्थित हैं। आपके बिना कोई भी रिश्तेदार आपस में संवाद नहीं कर सकता।

श्लोक 14:

त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्त: सबान्धव: ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥14॥

अर्थ: आपके बिना, व्यक्ति बंधु (रिश्तेदार) विहीन है, और आपके साथ होने से सब बंधुयुक्त हो जाते हैं। आप ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कारण स्वरूपा हैं।

श्लोक 15:

यथा माता स्तनन्धानां शिशूनां शैशवे सदा ।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपत: ॥15॥

अर्थ: जैसे माता अपने दूध से छोटे बच्चों को शैशव अवस्था में पालती है, वैसे ही आप भी सर्वदा सभी की माता हैं, सभी रूपों में।

श्लोक 16:

मातृहीन: स्तनत्यक्त: स चेज्जीवति दैवत: ।
त्वया हीनो जन: कोsपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥16॥

अर्थ: जैसे माता से वंचित बच्चा जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार आपके बिना कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता, यह निश्चित है।

श्लोक 17:

सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके ।
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥17॥

अर्थ: हे अम्बिके! आप अपने सुप्रसन्न स्वरूप में मुझ पर कृपा करें। हे सनातनि! मुझे सभी शत्रुओं और दुर्गुणों से मुक्त करें और अपने शुभ आशीर्वाद दें।

श्लोक 18:

वयं यावत् त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुका: ।
सर्वसम्पद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥18॥

अर्थ: हे हरि प्रिय! जब तक हम आपसे रहित हैं, तब तक हम बंधुहीन, भिक्षुक और सभी प्रकार की संपत्तियों से वंचित हैं।

श्लोक 19:

राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि ।
कीर्तिं देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै ॥19॥

अर्थ: हे सुरेश्वरि! मुझे राज्य, समृद्धि, बल, कीर्ति, धन और यश प्रदान करें।

श्लोक 20:

कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये ।
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥20॥

अर्थ: हे हरि प्रिय! मुझे

कामना, बुद्धि, भोग, ज्ञान, धर्म और समस्त सौभाग्य प्रदान करें।

श्लोक 21:

प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च ।
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ॥21॥

अर्थ: मुझे प्रभाव, प्रताप, सभी अधिकार, युद्ध में विजय, पराक्रम और परम ऐश्वर्य प्रदान करें।

फलश्रुति:

इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसंध्यं य: पठेन्नर: ।
कुबेरतुल्य: स भवेद् राजराजेश्वरो महान् ॥
सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत् सोsपि कल्पतरुर्नर: ।
पंचलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥
सिद्धिस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं च संयत: ।
महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशय: ॥

अर्थ: जो व्यक्ति इस महान पुण्यदायक स्तोत्र को प्रतिदिन त्रिसंध्या (प्रातः, मध्यान्ह, संध्या) समय पढ़ता है, वह कुबेर के समान धनवान और राजाओं का राजा बन जाता है। यदि कोई इस सिद्ध स्तोत्र को पढ़ता है तो वह कल्पवृक्ष के समान फलदायी बन जाता है। इसे पाँच लाख बार जपने से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है। यदि कोई एक माह तक संयमपूर्वक इस सिद्ध स्तोत्र को पढ़ता है तो वह महान सुखी और राजाओं का राजा बन जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं।

इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र का महत्व

यह महालक्ष्मी स्तोत्र देवी लक्ष्मी की स्तुति में रचा गया एक अत्यंत पवित्र और फलदायी स्तोत्र है। इसके प्रत्येक श्लोक में देवी लक्ष्मी के विभिन्न रूपों, गुणों, और उनकी कृपा का वर्णन किया गया है।

इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से साधक को देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और वह समृद्धि, सुख, शांति, और ऐश्वर्य का अनुभव करता है। आइए इस स्तोत्र के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को और विस्तार से समझते हैं:

1. देवी लक्ष्मी के स्वरूप:

श्लोकों में देवी लक्ष्मी को कई स्वरूपों में वर्णित किया गया है:

  • कमलवासिनी: देवी लक्ष्मी को कमल पर विराजमान दिखाया गया है, जो उनकी पवित्रता और निर्मलता का प्रतीक है।
  • नारायणी: वे भगवान विष्णु की पत्नी हैं और इसीलिए उन्हें नारायणी कहा गया है।
  • कृष्णप्रिय: भगवान कृष्ण को अत्यंत प्रिय हैं, अतः उन्हें कृष्णप्रिय कहा गया है।
  • पद्मिनी: जिनका मुखमंडल और नेत्र कमल के समान सुंदर हैं, वे पद्मिनी कही जाती हैं।

2. देवी लक्ष्मी की कृपा:

  • इस स्तोत्र में देवी लक्ष्मी की कृपा से सुख, मोक्ष, सिद्धि, हरि-भक्ति, और आनंद प्राप्ति का वर्णन किया गया है। साधक जो भी उद्देश्य लेकर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे वह प्राप्त होता है।
  • यह भी कहा गया है कि देवी लक्ष्मी की उपस्थिति के बिना, जीवन मृत के समान हो जाता है। वे ही जीवन में समृद्धि और सुख का आधार हैं।

3. स्तोत्र का फल:

  • इस स्तोत्र को त्रिसंध्या (प्रातः, मध्यान्ह, संध्या) समय पाठ करने से व्यक्ति कुबेर (धन के देवता) के समान समृद्ध हो जाता है।
  • इसे लगातार पाँच लाख बार जपने से यह सिद्ध हो जाता है, और इससे व्यक्ति की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
  • इसे एक माह तक संयमपूर्वक पाठ करने से व्यक्ति को महान सुख और राजसत्ता प्राप्त होती है।

4. देवी लक्ष्मी की महिमा:

  • देवी लक्ष्मी को सभी संपत्तियों की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है, जो सभी भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्रदान करने में सक्षम हैं।
  • वे अदिति (देवताओं की माता), सुरभि (गायों की माता), दक्षिणा (यज्ञ की पूरक) और स्वाहा (यज्ञ की अग्नि में दी जाने वाली आहुति) के रूप में भी पूजनीय हैं।
  • वैकुण्ठ में वे महालक्ष्मी के रूप में और इन्द्रलोक में स्वर्गलक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार, वे विभिन्न लोकों में विभिन्न रूपों में विद्यमान हैं और सभी प्रकार की समृद्धि का स्रोत हैं।

5. बंधुत्व का महत्व:

  • श्लोकों में देवी लक्ष्मी को सभी प्रकार के बंधु-बांधवों की अधिष्ठात्री देवी बताया गया है। उनके बिना कोई भी संबंध स्थायी नहीं रह सकता।
  • उनके बिना व्यक्ति बंधुहीन (रिश्ते-नातों से विहीन) हो जाता है और उनके साथ होने से वह सभी बंधनों से जुड़ जाता है।

6. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अधिष्ठात्री:

  • देवी लक्ष्मी को धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की कारण स्वरूपा बताया गया है। इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए देवी लक्ष्मी की आराधना आवश्यक मानी गई है।

7. मातृत्व का महत्व:

  • देवी लक्ष्मी को सभी का मातृ स्वरूप माना गया है। जैसे माँ अपने छोटे बच्चों को दूध पिलाकर उनका पालन-पोषण करती है, वैसे ही देवी लक्ष्मी अपने भक्तों की सभी प्रकार से रक्षा और पालन करती हैं।

8. स्तोत्र की सिद्धि:

  • यह स्तोत्र सिद्ध है और इसे पढ़ने से व्यक्ति के सभी प्रकार के कष्ट दूर होते हैं। विशेष रूप से, यदि इसे विशेष संकल्प और नियमपूर्वक जपा जाए, तो यह अत्यधिक फलदायी होता है।

इस प्रकार, महालक्ष्मी स्तोत्र देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति और जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिए अत्यंत प्रभावशाली माना जाता है। इसे श्रद्धापूर्वक पाठ करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं और वह जीवन के सभी सुखों का अनुभव करता है।

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