- – यह गीत माटी के मटके और घड़ियों के कुम्हार की तुलना मानव जीवन से करता है, जो नाजुक और अस्थिर होता है।
- – गीत में गर्भधारण से लेकर जन्म और जीवन के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख है, जो जीवन की नाजुकता को दर्शाता है।
- – कुम्हार की बनाई घड़ी की तरह मानव शरीर भी नाजुक है, जिसे संभालने और समझने की जरूरत है।
- – जीवन में समय और अवसर की अहमियत बताई गई है, जिसे भूलना नहीं चाहिए।
- – गीत में दया, धर्म, और ईश्वर की भक्ति की भी बात की गई है, जो जीवन को सार्थक बनाते हैं।
- – यह रचना राजस्थान की लोक संस्कृति और भाषा की सुंदरता को प्रस्तुत करती है।

माटी केडो मटको घड़ियों रे कुम्भार,
दोहा- जेसे चुड़ी काच थी,
वेसी नर की देह,
जतन करीमा सु जावसी,
हर भज लावो ले।
माटी केडो मटको घड़ियों रे कुम्भार,
घड़ियों रे कुम्भार,
काया तो थारी काची रे घडी,
भुलो मती गेला रे गेवार,
गेला रे गेवार,
काया तो थारी अजब घड़ी।।
नौ नौ महीना रियो रे,
गर्भ रे माय,
उधे माथे झुले ये रयो,
कोल वचन थु किया हरि सु आप,
बाहर आकर भुल रे गयो,
माटी केड़ो मटको घड़ियों रे कुम्हार,
काया तो थारी काची रे घडी।।
नख-शिख रा तो करिया,
रे बणाव,
सुरत साहेबे चोखी रे घड़ी,
अनो-धनो रा भरीया रे भण्डार,
उम्र साहेबे ओछी रे लिखी,
माटी केड़ो मटको घड़ियों रे कुम्हार,
काया तो थारी काची रे घडी।।
बांधी म्हारे साहेबे,
दया धरम री पाल,
जिण में लागी इन्दर झड़ी,
अरट बेवे बारहों ही मास,
इन्दर वाली एक ही झणी,
माटी केड़ो मटको घड़ियों रे कुम्हार,
काया तो थारी काची रे घडी।।
हरी रा बन्दा सायेब ने चितार,
आयो अवसर भुलो रे मती,
बोल्या खाती बगसो जी घर नार,
संगत सांची साधा री भली,
माटी केड़ो मटको घड़ियों रे कुम्हार,
काया तो थारी काची रे घडी।।
माटी केडो मटको घड़ियों रे कुम्भार,
घड़ियों रे कुम्भार,
काया तो थारी काची रे घडी,
भुलो मती गेला रे गेवार,
गेला रे गेवार,
काया तो थारी अजब घड़ी।।
Singer – Prakash Ji Mali,
Sent By – Bhavesh jangid
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