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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं – श्लोक का पूर्ण विवरण

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः

इस श्लोक का अर्थ है:

  • पूर्णमदः: वह (ब्रह्म) पूर्ण है।
  • पूर्णमिदं: यह (सृष्टि) भी पूर्ण है।
  • पूर्णात् पूर्णमुदच्यते: पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है।
  • पूर्णस्य पूर्णमादाय: उस पूर्ण से यह पूर्ण निकालने पर भी।
  • पूर्णमेवावशिष्यते: पूर्ण ही बचता है।

इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्माण्ड और उसमें विद्यमान प्रत्येक वस्तु पूर्णता से बनी है। अगर पूर्ण से पूर्ण को भी हटा दिया जाए तो भी पूर्ण ही बचता है। यह श्लोक इस बात का प्रतीक है कि संसार में सब कुछ संतुलन और संपूर्णता से युक्त है।

इस श्लोक का आध्यात्मिक महत्व

संपूर्णता का सिद्धांत

यह श्लोक संपूर्णता का सिद्धांत सिखाता है। इस श्लोक के माध्यम से यह बताया गया है कि ब्रह्माण्ड में सब कुछ पूर्णता से भरा हुआ है। इस दृष्टिकोण से हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर घटना का एक महत्वपूर्ण और संपूर्ण स्थान है।

आत्म-साक्षात्कार

यह श्लोक यह भी सिखाता है कि हम स्वयं भी उस पूर्ण का ही हिस्सा हैं। आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है कि हमें अपनी आंतरिक पूर्णता को पहचानना चाहिए और अपने आप को अधूरा या अपूर्ण नहीं मानना चाहिए।

अद्वैतवाद का सिद्धांत

यह श्लोक अद्वैतवाद के सिद्धांत को भी दर्शाता है। अद्वैत का मतलब है कि संसार में कोई भेदभाव नहीं है, सब कुछ एक ही तत्व का विस्तार है। इस श्लोक में ‘पूर्ण’ शब्द से यह दर्शाया गया है कि ईश्वर, आत्मा और प्रकृति सब एक ही तत्व का विस्तार हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं है।

शांति मंत्र का महत्व

ॐ शांति, शांति, शांतिः

यह शांति मंत्र त्रिकाल शांति के लिए उच्चारित किया जाता है। इसमें तीन बार ‘शांति’ का जप किया गया है जो इस प्रकार है:

  1. आधिभौतिक शांति: बाहरी वातावरण, प्राकृतिक आपदाओं, और भौतिक समस्याओं से मुक्ति के लिए।
  2. आधिदैविक शांति: दैवीय शक्तियों, ग्रहों की दशा और अदृश्य शक्तियों से मुक्ति के लिए।
  3. आध्यात्मिक शांति: मन, आत्मा और चेतना की आंतरिक शांति के लिए।

इस मंत्र का जप करने से मन में शांति, संतुलन और स्थिरता की अनुभूति होती है।

इस श्लोक का दैनिक जीवन में महत्व

सकारात्मकता का संदेश

यह श्लोक हमें सकारात्मकता और संतुलन का संदेश देता है। इससे हमें यह समझ में आता है कि जीवन में हर परिस्थिति में पूर्णता और संतुलन का अनुभव करना चाहिए। जब भी हम अपने जीवन में किसी कमी या समस्या का अनुभव करें, हमें इस श्लोक का स्मरण कर यह समझना चाहिए कि जीवन में हर अनुभव का एक महत्वपूर्ण स्थान है।

ध्यान और साधना में उपयोग

यह श्लोक ध्यान और साधना के समय बहुत उपयोगी है। इसका जाप करने से मन को शांति, स्थिरता और संतुलन की अनुभूति होती है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं – विस्तृत विवरण

इस श्लोक का मूल स्रोत

यह श्लोक ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ का हिस्सा है, जो भारतीय वेदांत दर्शन का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे उपनिषदों में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण माना जाता है। बृहदारण्यक उपनिषद् में ज्ञान और आत्मा के रहस्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस श्लोक को ‘पूर्णता मंत्र’ या ‘पूर्ण शांति मंत्र’ भी कहा जाता है।

श्लोक में प्रयुक्त शब्दों का विस्तृत अर्थ

पूर्ण (पूर्णम्)

‘पूर्ण’ शब्द का अर्थ है संपूर्ण, अखंड, जिसका कोई अभाव या कमी नहीं हो। यह शब्द ईश्वर, ब्रह्म, आत्मा, और सृष्टि की अखंडता को दर्शाता है।

अदः (अदः)

‘अदः’ का अर्थ है ‘वह’, जो किसी दूर की वस्तु या स्थिति को इंगित करता है। यहाँ ‘अदः’ से तात्पर्य परमात्मा या ब्रह्म से है, जो सर्वत्र और सर्वव्यापी है।

इदं (इदं)

‘इदं’ का अर्थ है ‘यह’, जो पास की वस्तु या स्थिति को इंगित करता है। यहाँ ‘इदं’ से तात्पर्य इस सृष्टि से है, जो हमारी दृष्टि में प्रत्यक्ष है।

उदच्यते (उदच्यते)

इसका अर्थ है ‘उत्पन्न होना’ या ‘प्रकट होना’। इस शब्द का प्रयोग यह बताने के लिए किया गया है कि यह सृष्टि उस पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुई है।

अवशिष्यते (अवशिष्यते)

इसका अर्थ है ‘बचना’। इस शब्द के माध्यम से यह बताया गया है कि जब पूर्ण से पूर्ण को हटा दिया जाता है, तब भी पूर्ण ही शेष रहता है।

श्लोक के भिन्न-भिन्न अर्थ और व्याख्या

योग दृष्टिकोण से अर्थ

इस श्लोक को योग की दृष्टि से देखें तो इसका मतलब है कि जब हम अपनी आत्मा को परमात्मा से जोड़ते हैं, तो हमें अपनी आंतरिक संपूर्णता का अनुभव होता है। ध्यान, प्राणायाम और योगासन के माध्यम से हम अपनी आत्मा की उस पूर्णता को महसूस कर सकते हैं, जो इस श्लोक में वर्णित है।

अद्वैत वेदांत की दृष्टि से

अद्वैत वेदांत के सिद्धांत के अनुसार, इस श्लोक का मतलब है कि केवल एक ही सत्य है, और वह ब्रह्म है। हर जीव, हर वस्तु, हर तत्व उसी एक ब्रह्म का हिस्सा है। यहाँ द्वैत या भिन्नता का कोई स्थान नहीं है। यह श्लोक इस अद्वैत का ही प्रतीक है।

भक्ति मार्ग की दृष्टि से

भक्ति मार्ग में, इस श्लोक का मतलब है कि भगवान की कृपा से ही यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है और भगवान की कृपा ही हमें इस सृष्टि के विभिन्न रंगों और रसों का अनुभव कराती है। जो भी कुछ हम देखते हैं, वह उसी भगवान का ही प्रतिबिंब है।

दैनिक जीवन में इस श्लोक का प्रभाव

मानसिक शांति और संतुलन

इस श्लोक का पाठ करने से मन को शांति, संतुलन और स्थिरता प्राप्त होती है। जब भी हम किसी चिंता, तनाव, या विक्षोभ का अनुभव करें, इस श्लोक का जाप करने से मानसिक शांति मिलती है और हम अपनी मूल प्रकृति को पहचानने में सक्षम होते हैं।

आत्मबोध और स्व-स्वीकृति

यह श्लोक आत्मबोध का संदेश देता है। इसके माध्यम से हम अपने अस्तित्व की पूर्णता को पहचान सकते हैं और स्व-स्वीकृति का अभ्यास कर सकते हैं। जब हमें अपनी आत्मा की संपूर्णता का अनुभव होता है, तो हम स्वयं को अधिक प्रेम और स्वीकृति के साथ देख पाते हैं।

कठिन परिस्थितियों में मार्गदर्शन

जीवन में जब हमें कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तो यह श्लोक हमें यह याद दिलाता है कि हम भी उसी पूर्णता का हिस्सा हैं। इस समझ के साथ हम किसी भी विपरीत परिस्थिति का सामना साहस और धैर्य के साथ कर सकते हैं।

श्लोक के जप और अभ्यास के लाभ

ध्यान में उपयोग

इस श्लोक का उपयोग ध्यान के समय किया जा सकता है। ध्यान के प्रारंभ और अंत में इस श्लोक का जाप करने से ध्यान में एकाग्रता आती है और आंतरिक शांति का अनुभव होता है।

मंत्र साधना में उपयोग

इस श्लोक को मंत्र साधना में भी प्रयोग किया जा सकता है। इसका नियमित जाप करने से मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है।

यज्ञ और हवन में उपयोग

इस श्लोक का पाठ यज्ञ और हवन के दौरान भी किया जाता है। यह शांति और समृद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाता है। इस श्लोक का उच्चारण वातावरण को शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

निष्कर्ष

यह श्लोक न केवल एक मंत्र है, बल्कि जीवन जीने की कला का भी परिचायक है। इसे समझने और जीवन में उतारने से हमें आत्मबोध, मानसिक शांति, और संतुलन की प्राप्ति होती है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में हर वस्तु, हर व्यक्ति, और हर परिस्थिति में पूर्णता है। हमें केवल इसे देखने और अनुभव करने की दृष्टि को विकसित करना है।

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