उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः ।
त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहाः,
मर्त्या भवन्ति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥
सर्व भयानक रोग नाशक मंत्र (Sarv Bhayanak Rog Nashak Mantra)
यह श्लोक श्रीमद्भागवतम् के दशम स्कंध के ४७वें अध्याय का एक श्लोक है। यह भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करता है। इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार है:
अर्थ:
जो मनुष्य विभिन्न प्रकार के भयानक रोगों से पीड़ित होते हैं, जो जलोदर (पेट में पानी भरना) जैसे रोगों से अत्यधिक कष्ट में होते हैं, जिनका शरीर रोगों के भार से झुक गया है, और जो अपने जीवन की आशा खो चुके हैं – यदि वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की धूलि से अपने शरीर को स्नान करते हैं, तो वे उन रोगों से मुक्त होकर भगवान कामदेव के समान सुंदर रूप प्राप्त कर लेते हैं।
यह श्लोक बताता है कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की धूलि के संपर्क से सबसे अधिक पीड़ादायक स्थितियों में भी व्यक्ति न केवल रोगों से मुक्त होता है, बल्कि उसकी सुंदरता भी अद्वितीय हो जाती है। इसका अर्थ यह भी है कि भगवान की शरण में आने से मनुष्य की सारी पीड़ाएँ समाप्त हो जाती हैं और उसे दिव्य सौंदर्य और आनंद की प्राप्ति होती है।
मुख्य बिंदु:
- श्लोक में ‘उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः’ शब्द का अर्थ है: ऐसे लोग जिनका शरीर जलोदर रोग के कारण अत्यधिक पीड़ा में है और जिनका शरीर इस रोग के भार से झुक गया है।
- ‘च्युत-जीविताशाः’ का अर्थ है: जिन्होंने अपने जीवन की सारी आशाएँ खो दी हैं।
- ‘त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहाः’ का अर्थ है: जो लोग भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की धूलि से अपने शरीर को लिप्त करते हैं।
- ‘मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः’ का अर्थ है: ऐसे लोग भगवान कामदेव (मकरध्वज) के समान सुंदर रूप प्राप्त कर लेते हैं।
सर्व भयानक रोग नाशक मंत्र (Sarv Bhayanak Rog Nashak Mantra)
इस श्लोक के गहरे अर्थ और संदर्भ को समझने के लिए हमें इसके विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना होगा:
- जलोदर और अन्य रोगों का उल्लेख:
- ‘जलोदर’ एक गंभीर रोग है जिसमें पेट में पानी भर जाता है, जिससे व्यक्ति का पेट अस्वाभाविक रूप से फूल जाता है और यह अत्यंत पीड़ादायक होता है। श्लोक में इसका उल्लेख इसलिए किया गया है क्योंकि यह रोग न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक रूप से भी व्यक्ति को अत्यधिक कष्ट पहुंचाता है।
- अन्य रोगों का भी उल्लेख इस श्लोक में किया गया है, जो कि ‘भीषण’ (भयानक) होते हैं। यह इंगित करता है कि चाहे रोग कितना भी गंभीर और असहनीय क्यों न हो, भगवान की शरण में आने से उसका निवारण संभव है।
- शारीरिक और मानसिक पीड़ा:
- श्लोक में वर्णित है कि रोग के कारण व्यक्ति का शरीर झुक गया है (‘भार-भुग्नाः’) और जीवन की आशाएँ भी समाप्त हो गई हैं (‘च्युत-जीविताशाः’)। यह दर्शाता है कि जब व्यक्ति अत्यधिक कष्ट में होता है, तब उसका मानसिक संतुलन भी बिगड़ जाता है और वह जीवन की सभी आशाओं से वंचित हो जाता है।
- इस प्रकार की स्थिति में व्यक्ति निराश और असहाय महसूस करता है, और इस श्लोक के माध्यम से यह बताया गया है कि ऐसी स्थिति में भगवान के चरणों की शरण ही एकमात्र उपाय है।
- भगवान के चरणों की धूलि की महिमा:
- ‘त्वत्पाद-पंकज-रजो-मृत-दिग्ध-देहाः’ का गूढ़ अर्थ है कि भगवान के चरणों की धूलि में इतना दिव्य प्रभाव है कि वह मृतप्राय (जीवन की सारी आशाएँ खो चुके) व्यक्ति को भी जीवनदान दे सकती है। यह धूलि व्यक्ति के शरीर पर लगते ही उसे पुनः स्वस्थ और सुंदर बना देती है।
- चरणों की धूलि का यह अर्थ भी है कि भगवान की भक्ति, उनके चरणों का स्मरण, और उनके चरणों की पूजा ही वह साधन है जो मनुष्य को जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति दिला सकता है।
- मकरध्वज (कामदेव) का तुलनात्मक संदर्भ:
- कामदेव को भारतीय पौराणिक कथाओं में प्रेम और सौंदर्य का देवता माना जाता है। उन्हें मकरध्वज भी कहा जाता है, क्योंकि उनके ध्वज (ध्वजा) पर मकर (मगरमच्छ) का चिह्न होता है।
- इस श्लोक में कहा गया है कि जो व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की धूलि से अपने शरीर को लिप्त करता है, वह कामदेव के समान सुंदर रूप प्राप्त करता है। इसका तात्पर्य यह है कि भगवान की कृपा से न केवल व्यक्ति के शारीरिक कष्ट दूर होते हैं, बल्कि उसे दिव्य सौंदर्य भी प्राप्त होता है, जो सभी को आकर्षित करता है।
- श्लोक का आध्यात्मिक संदेश:
- यह श्लोक हमें यह संदेश देता है कि जीवन के किसी भी संकट या रोग से मुक्ति पाने के लिए भगवान की शरण ही सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी उपाय है।
- भौतिक जीवन में चाहे जितने भी कष्ट क्यों न हों, भगवान की कृपा और उनके चरणों की शरण में आने से ही वह सब समाप्त हो सकता है।
- अंत में, यह श्लोक भगवान की भक्ति और उनकी शरणागति की अपरिमित महिमा को उजागर करता है, जो व्यक्ति को सभी दुखों से मुक्त कर दिव्यता और सौंदर्य की ओर ले जाती है।