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श्लोक 1: गलद्रक्तमुण्डावलीकण्ठमालामहोघोररावा सुदंष्ट्रा कराला। विवस्त्रा श्मशानालया मुक्तकेशीमहाकालकामाकुला कालिकेयम्॥

अनुवाद: गले में कटा हुआ रक्त से सना मुण्डों की माला धारण करने वाली, अत्यंत भयंकर गर्जना करने वाली, विशाल दांतों वाली और विकराल मुख वाली। नग्न शरीर वाली, श्मशान में निवास करने वाली, खुले केशों वाली, महाकाल के संग कामासक्त, ये हैं काली।

श्लोक 2: भुजे वामयुग्मे शिरोऽसिं दधानावरं दक्षयुग्मेऽभयं वै तथैव। सुमध्याऽपि तुङ्गस्तनाभारनम्रालसद्रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या॥

अनुवाद: बाएं हाथों में सिर और खड्ग धारण किए हुए, दाएं हाथों में वर और अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हुई। सुडौल मध्यभाग, भारी स्तनों से झुकी हुई, रक्त से सने दो सृक्क (पेशियाँ) लटकाती हुई, मुस्कुराते हुए मुख वाली।

श्लोक 3: शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशीलसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची। शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभिश्-चतुर्दिक्षुशब्दायमानाऽभिरेजे॥

अनुवाद: शव के जोड़े से कान की बाली पहने हुए, श्रेष्ठ प्रेत को हाथों में धारण किए हुए, शव की कमरपट्टा धारण किए हुए। शव के आसन पर विराजमान, शिवगणों द्वारा चारों दिशाओं में गूँजती हुई।

श्लोक 4: विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन्समाराध्य कालीं प्रधाना बभूबुः। अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: ब्रह्मा आदि तीनों देवों ने तुम्हारे तीन गुणों की आराधना करके प्रमुखता पाई। देवता, जो अनादि, सुरों के आदि, यज्ञों के आदि और भव के आदि हैं, वे भी तुम्हारे स्वरूप को नहीं जान सकते।

श्लोक 5: जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयंसुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम्। वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: जग को मोहित करने वाली, वाग्वादिनी (सरस्वती) से भी अधिक वाणी देने वाली, मित्रों का पोषण करने वाली, शत्रुओं का संहार करने वाली। वाणी को स्तंभित करने वाली, क्या ही उच्छाटन करने वाली, तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

श्लोक 6: इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्लीमनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात्। तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं-स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: यह स्वर्ग को देने वाली, कल्पवल्ली (कल्पवृक्ष) की तरह इच्छाओं को पूर्ण करने वाली। पुनः तुम्हारे द्वारा संतुष्ट होकर भक्त कृतार्थ होते हैं। परंतु देवता तुम्हारे नित्य स्वरूप को नहीं जान सकते।

श्लोक 7: सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्तालसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते। जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्कास्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: सुरा पान से मतवाली, अपने भक्तों पर अनुरक्त, पवित्र हृदय वाले भक्तों के मन में सदा प्रकट होती है। जप, ध्यान, पूजा के अमृत से धुले हुए पंक (पाप) को मिटाने वाली, तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

श्लोक 8: चिदानन्दकन्दं हसन् मन्दमन्दंशरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम्। मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तंस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: चिदानंद (परम आनन्द) का स्रोत, मंद-मंद मुस्कुराते हुए, शरद चंद्र की करोड़ों किरणों के समान तेजस्वी बिंब (आकृति)। मुनियों और कवियों के हृदय में जो द्योतित होता है, तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

श्लोक 9: महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्राकदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया। न बाला न वृद्धा न कामातुरापिस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: महान मेघ के समान काली, रक्तिम, शुभ्र या विचित्र आकृति की योगमाया। न तो बालिका, न वृद्धा, न ही कामासक्त। तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

श्लोक 10: क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मयालोकमध्ये प्रकाशिकृतं यत्। तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात्स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: मेरे अपराध को क्षमा करें, जो मैंने तुम्हारे महागुप्त भाव को संसार के मध्य में प्रकाशित किया। ध्यान से पवित्र हुए भी चंचलता के कारण तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

श्लोक 11: यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्यस्तदासर्वलोके विशालो भवेच्च। गृहे चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्तिःस्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः॥

अनुवाद: यदि कोई मनुष्य ध्यान सहित इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो वह सर्वत्र प्रसिद्ध होता है। उसके घर में आठ सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और मृत्यु के बाद मुक्ति मिलती है। तुम्हारे स्वरूप को देवता नहीं जान सकते।

समाप्त: इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम्

श्रीकालिकाष्टकं आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है जिसमें महाकाली देवी की महिमा का वर्णन किया गया है। इस स्तोत्र में कुल 11 श्लोक हैं, जो कि महाकाली के विभिन्न रूपों, उनकी शक्तियों, उनके स्वरूप और उनके भक्तों को प्रदान की जाने वाली कृपाओं का विस्तार से वर्णन करते हैं।

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  1. महाकाली का स्वरूप:
    • महाकाली का वर्णन एक भयंकर देवी के रूप में किया गया है जो कटी हुई मुण्डों की माला धारण करती हैं और श्मशान में निवास करती हैं। उनका स्वरूप नग्न और विकराल है, जिसमें वे महाकाल के संग कामासक्त हैं।
    • उनके हाथों में खड्ग, सिर, वर और अभय मुद्रा होती है।
  2. देवताओं के लिए अगम्य:
    • स्तोत्र में वर्णित है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे देवताओं ने उनकी आराधना की और प्रमुखता प्राप्त की, परंतु उनका वास्तविक स्वरूप देवता भी नहीं जान सकते।
    • महाकाली का स्वरूप इतना गुप्त और अगम्य है कि देवता भी उसकी सम्पूर्णता को समझ नहीं पाते।
  3. भक्तों के लिए कृपामयी:
    • महाकाली अपने भक्तों पर अत्यंत कृपा करती हैं। जो भक्त ध्यान, जप और पूजा के माध्यम से उनकी आराधना करते हैं, उन्हें वे सिद्धियाँ और मुक्ति प्रदान करती हैं।
    • यह भी कहा गया है कि महाकाली भक्तों के हृदय में सदा प्रकट रहती हैं और उनकी हर इच्छा को पूर्ण करती हैं।
  4. स्तोत्र का प्रभाव:
    • इस स्तोत्र के पाठ से मनुष्य को सर्वत्र प्रसिद्धि, आठ सिद्धियाँ, और मृत्यु के पश्चात मुक्ति प्राप्त होती है।
    • महाकाली के ध्यान और स्तुति से पवित्र हुए मनुष्य का जीवन समृद्ध और सिद्धियों से युक्त होता है।

विशेष बातें

  • अपराध क्षमा:
    • अंत में कवि अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करता है और स्वीकार करता है कि महाकाली का वास्तविक स्वरूप समझ पाना अत्यंत कठिन है, और देवताओं के लिए भी यह अगम्य है।
  • योगमाया और विभिन्न रूप:
    • महाकाली के विभिन्न रूपों का वर्णन भी किया गया है जैसे कि कभी वे काली होती हैं, कभी रक्तिम, और कभी शुभ्र। वे बालिका, वृद्धा या कामातुर नहीं हैं, बल्कि वे योगमाया हैं।

श्रीकालिकाष्टकं महाकाली के महात्म्य और उनके भयंकर व कृपामयी दोनों रूपों को दर्शाता है। यह स्तोत्र न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि भक्तों के लिए एक साधना का साधन भी है, जिससे वे महाकाली की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।

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