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हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥५॥

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥८॥

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम् ॥१५॥

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥

॥ फलश्रुति ॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे ।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥१७॥

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने ।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥१८॥

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् ।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम् ॥१९॥

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः ।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते ॥२०॥

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा ।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥२१॥

न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥२२॥

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः ।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि ॥२३॥

पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि ।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ॥२४॥

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी ।
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया ॥२५॥

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः ।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता ॥२६॥

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम् ।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम् ॥२७॥

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम् ।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ॥२८॥

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती ।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ॥२९॥

वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् ।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीस्वरीं त्वाम् ॥३०॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३१॥

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥३२॥

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् ।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥३३॥

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥३४॥

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते ।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥३५॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः ।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥३६॥

य एवं वेद ।
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥३७॥

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श्रीसूक्त का संपूर्ण विवरण

श्रीसूक्त हिन्दू धर्मग्रंथों में एक महत्वपूर्ण और पवित्र स्तोत्र है, जो लक्ष्मी देवी की महिमा और कृपा का वर्णन करता है। इसे ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में पाया जाता है। श्रीसूक्त का पाठ करने से व्यक्ति को धन, समृद्धि और सुख-शांति की प्राप्ति होती है। आइए श्रीसूक्त के प्रत्येक श्लोक का विस्तृत विवरण जानते हैं।

श्रीसूक्त का प्रारंभ

हरिः ॐ

यह श्लोक का प्रारंभिक मंत्र है जो परमात्मा के प्रति समर्पण को दर्शाता है। ‘हरिः’ का अर्थ है भगवान विष्णु और ‘ॐ’ ब्रह्माण्ड की आदिस्वरूप ध्वनि है।

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्

श्लोक 1

मूल मंत्र:
“हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥”

भावार्थ:
हे अग्निदेव! आप मुझे स्वर्ण के समान चमकने वाली, रजत और सुवर्ण की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान चमकती हुईं और सुनहरी लक्ष्मी को यहाँ आमंत्रित करें।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्

श्लोक 2

मूल मंत्र:
“तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥”

भावार्थ:
हे अग्निदेव! आप उन लक्ष्मी को आमंत्रित करें जो कभी नष्ट नहीं होतीं, जिनकी कृपा से हमें सोना, गाएँ, घोड़े और अनेक सेवक प्राप्त होते हैं।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्

श्लोक 3

मूल मंत्र:
“अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥”

भावार्थ:
मैं देवी लक्ष्मी का आह्वान करता हूँ, जो अश्वों से युक्त, रथ के मध्य में स्थित और हाथियों की आवाज से जागरूक होती हैं। वे मेरी रक्षा करें और मेरे जीवन को समृद्ध बनाएं।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां

श्लोक 4

मूल मंत्र:
“कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥”

भावार्थ:
मैं उन लक्ष्मी देवी का आह्वान करता हूँ, जो स्वर्णिम दीवारों से घिरी हुईं, जलनशील, संतुष्ट और संतुष्टि प्रदान करने वाली हैं। जो पद्मासन पर विराजमान और कमल के समान रंग वाली हैं।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं

श्लोक 5

मूल मंत्र:
“चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥”

भावार्थ:
मैं उन लक्ष्मी देवी की शरण लेता हूँ, जो चंद्रमा के समान प्रकाशित, यशस्वी और देवताओं द्वारा पूजित हैं। हे लक्ष्मी! आप मुझसे दरिद्रता को नष्ट करें।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिः

श्लोक 6

मूल मंत्र:
“आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥”

भावार्थ:
हे लक्ष्मी! आप सूर्य के समान तेजस्वी हैं, तपस्या से उत्पन्न हुए हैं, बिल्व वृक्ष के समान हैं। आपकी कृपा से मेरी सभी बाहरी और भीतरी अलक्ष्मी (दरिद्रता) समाप्त हो।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह

श्लोक 7

मूल मंत्र:
“उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥”

भावार्थ:
हे देवताओं के मित्र, कीर्ति देवी, आप मेरी कृपा करें। मैं इस राष्ट्र में समृद्धि और यश प्राप्त करूं।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं

श्लोक 8

मूल मंत्र:
“क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥”

भावार्थ:
मैं भूख, प्यास, आलस्य और दरिद्रता को नष्ट करता हूँ। हे देवी, मेरी समस्त दरिद्रता और अभावों को मेरे घर से दूर करें।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्

श्लोक 9

मूल मंत्र:
“गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥”

भावार्थ:
मैं उन लक्ष्मी देवी का आह्वान करता हूँ जो सुगंधित, नित्य समृद्धि देने वालीं और समस्त प्राणियों की स्वामिनी हैं।

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मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि

श्लोक 10

मूल मंत्र:
“मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥”

भावार्थ:
हे लक्ष्मी देवी, आप मेरे मनोकामना की पूर्ति करें, मेरी वाणी को सत्य और प्रभावशाली बनाएं। पशुओं की वृद्धि और अन्न की समृद्धि मेरे घर में हो।

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम

श्लोक 11

मूल मंत्र:
“कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥”

भावार्थ:
हे कर्दम ऋषि, आप मुझे पुत्र-पौत्र और समृद्धि प्रदान करें। पद्ममालिनी लक्ष्मी देवी को मेरे कुल में स्थाई रूप से स्थापित करें।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे

श्लोक 12

मूल मंत्र:
“आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥”

भावार्थ:
हे जल देवता, आप मेरे घर में स्निग्धता और समृद्धि की वर्षा करें। देवी लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास करने दें।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्

श्लोक 13

मूल मंत्र:
“आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥”

भावार्थ:
हे अग्निदेव, आप मुझे आर्द्र, पुष्करिणी, पुष्ट, पिङ्गल और पद्ममालिनी लक्ष्मी को यहाँ आमंत्रित करें।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्

श्लोक 14

मूल मंत्र:
“आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥”

भावार्थ:
हे अग्निदेव, आप मुझे सुवर्ण, हेममालिनी और सूर्य के समान तेजस्वी लक्ष्मी को यहाँ आमंत्रित करें।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्

श्लोक 15

मूल मंत्र:
“तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम्

॥”

भावार्थ:
हे अग्निदेव, आप मुझे उन लक्ष्मी को आमंत्रित करें, जिनसे सोना, गाएँ, घोड़े और सेवक प्राप्त होते हैं।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्

श्लोक 16

मूल मंत्र:
“यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥”

भावार्थ:
जो भी शुद्ध और पवित्र होकर इस श्रीसूक्त का प्रतिदिन 15 मंत्रों के साथ जप करेगा, उसे लक्ष्मी की कृपा अवश्य मिलेगी।

श्रीसूक्त के फलश्रुति

पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे

मूल मंत्र:
“पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम्॥”

भावार्थ:
हे पद्ममुखी, पद्मपद, पद्मनेत्री, पद्मजन्मा देवी! आप मेरी रक्षा करें जिससे मुझे सुख प्राप्त हो।

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने

मूल मंत्र:
“अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥”

भावार्थ:
हे अश्व, गौ, धन और महाधन देने वाली देवी! आप मुझे सभी प्रकार की समृद्धि और इच्छाएं प्रदान करें।

उपसंहार

श्रीसूक्त का पाठ करने से व्यक्ति को लक्ष्मी देवी की कृपा प्राप्त होती है। यह स्तोत्र न केवल धन और समृद्धि की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह मानसिक और आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करता है। श्रीसूक्त का नित्य पाठ करने से जीवन में सुख-समृद्धि और शांति का वास होता है।

श्रीसूक्त का महत्त्व और विशेषता

श्रीसूक्त का पाठ हिन्दू धर्म में अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। यह केवल धन-धान्य की प्राप्ति का माध्यम नहीं है, बल्कि व्यक्ति के जीवन में समृद्धि, शांति, और संतोष का भी प्रतीक है। यह वेदों के विशेष सूक्तों में से एक है, जिसे सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त करने हेतु उच्चारित किया जाता है।

श्रीसूक्त का आध्यात्मिक महत्व

लक्ष्मी की कृपा का स्रोत

श्रीसूक्त देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने का एक शक्तिशाली साधन है। इसे प्रतिदिन श्रद्धा और विश्वास के साथ करने से देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है, जो व्यक्ति के जीवन में न केवल धन-धान्य की वृद्धि करती हैं, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक संतोष भी प्रदान करती हैं।

गृहस्थ जीवन में समृद्धि

श्रीसूक्त के पाठ से गृहस्थ जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। यह सभी प्रकार की आर्थिक तंगी, दरिद्रता और कष्टों को दूर करने वाला माना गया है। इसका नियमित पाठ करने से घर में धन, धान्य और ऐश्वर्य का वास होता है।

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श्रीसूक्त के पाठ के लाभ

शारीरिक, मानसिक और आर्थिक लाभ

  1. धन और समृद्धि की प्राप्ति: श्रीसूक्त का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को धन, वैभव और समृद्धि प्राप्त होती है।
  2. मानसिक शांति और संतोष: इसका पाठ करने से मानसिक अशांति, चिंता और तनाव दूर होते हैं।
  3. आध्यात्मिक उन्नति: श्रीसूक्त का पाठ व्यक्ति को आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करता है और आत्मिक शांति प्रदान करता है।

रोग और दरिद्रता का नाश

श्रीसूक्त का पाठ करने से घर से रोग, दरिद्रता और सभी प्रकार की बाधाओं का नाश होता है। यह व्यक्ति को सभी प्रकार की नकारात्मक शक्तियों से मुक्त करता है और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।

श्रीसूक्त का पाठ करने की विधि

पवित्रता और शुद्धता का महत्व

श्रीसूक्त का पाठ करने से पहले व्यक्ति को स्नान आदि करके स्वयं को पवित्र करना चाहिए। इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिमा के सामने दीपक जलाकर, पुष्प, धूप और नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। पाठ करते समय मन को एकाग्र रखें और लक्ष्मी देवी का ध्यान करें।

श्रीसूक्त पाठ का समय

श्रीसूक्त का पाठ प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना शुभ माना गया है। विशेष रूप से शुक्रवार के दिन इसका पाठ करना अधिक फलदायी होता है। यह उपाय लक्ष्मी पूजन के समय भी किया जा सकता है।

श्रीसूक्त का समाज पर प्रभाव

आर्थिक समृद्धि और समाज कल्याण

श्रीसूक्त का पाठ न केवल व्यक्ति विशेष के लिए लाभकारी है, बल्कि इसके प्रभाव से समाज में भी समृद्धि और खुशहाली का वातावरण बनता है। अगर किसी समाज या परिवार में श्रीसूक्त का सामूहिक पाठ किया जाता है, तो वहां आर्थिक संकट दूर होता है और समाज में धन-धान्य की वृद्धि होती है।

सुख-शांति और सामाजिक स्थिरता

श्रीसूक्त का पाठ करने से समाज में आपसी प्रेम, सहयोग और सद्भावना का भाव उत्पन्न होता है। यह सामाजिक स्थिरता और सामूहिक शांति का मार्ग प्रशस्त करता है।

श्रीसूक्त से जुड़ी अन्य कथाएँ और मान्यताएँ

देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति की कथा

पुराणों के अनुसार, जब देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तब देवी लक्ष्मी समुद्र से प्रकट हुईं। वे भगवान विष्णु की अर्द्धांगिनी हैं और समृद्धि, ऐश्वर्य, और वैभव की देवी मानी जाती हैं। श्रीसूक्त का पाठ करने से व्यक्ति समुद्र मंथन के समय प्राप्त लक्ष्मी की कृपा प्राप्त कर सकता है।

राजा बलि और महालक्ष्मी

एक कथा के अनुसार, राजा बलि ने श्रीसूक्त का नियमित पाठ किया, जिससे वे अत्यंत समृद्ध हुए। लेकिन जब उन्होंने अपनी समृद्धि का अहंकार किया, तो उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। इस कथा से यह समझा जा सकता है कि श्रीसूक्त का पाठ विनम्रता और श्रद्धा के साथ ही करना चाहिए।

श्रीसूक्त पाठ से संबंधित सावधानियाँ

श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व

श्रीसूक्त का पाठ करते समय मन में श्रद्धा और विश्वास का होना अत्यंत आवश्यक है। बिना श्रद्धा और विश्वास के किए गए पाठ से फल की प्राप्ति नहीं होती।

पवित्रता का ध्यान रखें

श्रीसूक्त का पाठ करते समय पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की अपवित्रता से बचना चाहिए और शुद्ध मन से पाठ करना चाहिए।

उपसंहार

श्रीसूक्त एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जो देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने का एक श्रेष्ठ मार्ग है। इसका नियमित और श्रद्धापूर्वक पाठ करने से व्यक्ति के जीवन में समृद्धि, शांति और सुख का वास होता है। यह केवल भौतिक संपत्ति की प्राप्ति ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का भी स्रोत है। श्रीसूक्त का नित्य पाठ करके व्यक्ति अपने जीवन को सफल और सुखमय बना सकता है।

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