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स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां
न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः ।
गो ब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं
लोकाः समस्ताः सुखिनोभवंतु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां – लोकक्षेम मंत्र

यह श्लोक एक प्रार्थना है, जो हिन्दू धर्मग्रंथों से ली गई है। इसमें सभी के कल्याण और शांति की कामना की गई है। आइए इस श्लोक का अर्थ और विवरण हिन्दी में समझते हैं:

श्लोक का अर्थ:

  1. स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां
    प्रजाओं के लिए कल्याण हो, और शासक न्यायपूर्वक राज्य का पालन करें।
  2. न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः
    राजा लोग धरती पर धर्म और न्याय के मार्ग से शासन करें।
  3. गो ब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं
    गायों और ब्राह्मणों को सदा शुभता प्राप्त हो।
  4. लोकाः समस्ताः सुखिनोभवंतु
    सभी लोग संसार में सुखी हों।
  5. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
    ओम, शांति, शांति, शांति।

विस्तृत विवरण:

  1. स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां: इस पंक्ति में प्रजा के कल्याण की कामना की गई है। “स्वस्ति” का अर्थ है कल्याण। इसमें यह कामना की जा रही है कि सभी लोग सुरक्षित और खुशहाल रहें। साथ ही, यह भी प्रार्थना की गई है कि जो राजा और शासक हैं, वे अपने लोगों का सही तरीके से, न्यायपूर्वक और धर्म के अनुसार पालन करें।
  2. न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः: यह पंक्ति विशेष रूप से शासकों के लिए है, जिसमें कहा गया है कि राजा और शासक लोग न्याय के मार्ग पर चलें और धर्म के अनुसार राज्य का संचालन करें। ‘महीं’ का अर्थ है धरती और ‘महीशाः’ का अर्थ है राजा। इसमें न्याय की सर्वोच्चता को स्थापित करने की कामना की गई है।
  3. गो ब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं: यह पंक्ति गायों और ब्राह्मणों के कल्याण की कामना करती है। ‘गो’ का अर्थ गाय और ‘ब्राह्मणेभ्यः’ का अर्थ ब्राह्मण है। गायों को हिन्दू धर्म में पवित्र माना गया है, और ब्राह्मणों को वेद और धर्म का ज्ञाता। इसलिए इन दोनों के कल्याण की प्रार्थना की गई है, जिससे वे सदा सुखी और सुरक्षित रहें।
  4. लोकाः समस्ताः सुखिनोभवंतु: इस पंक्ति में सभी लोकों (संसारों) के सुख की कामना की गई है। यह कामना की जा रही है कि सभी प्राणी, चाहे वे किसी भी लोक में हों, वे सभी सुखी और प्रसन्न रहें। इसमें सम्पूर्ण विश्व और सभी जीवों के सुखी और समृद्ध रहने की प्रार्थना की गई है।
  5. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः: यह पंक्ति शांति की कामना करती है। ‘ॐ’ ब्रह्मांड की पवित्र ध्वनि है, और ‘शांति’ का अर्थ है मन की शांति, वातावरण की शांति, और सभी प्रकार की शांति। तीन बार ‘शांति’ बोलने का अर्थ है आंतरिक शांति, बाहरी शांति और सार्वभौमिक शांति की प्रार्थना।

समग्र भाव:

यह श्लोक एक सार्वभौमिक प्रार्थना है जो सभी प्राणियों के कल्याण, शांति, और सुख की कामना करता है। इसमें राजा को न्याय के साथ शासन करने, गायों और ब्राह्मणों के कल्याण, और सम्पूर्ण विश्व के सुख की प्रार्थना की गई है। अंत में, तीन बार ‘शांति’ कहकर आंतरिक, बाह्य, और सार्वभौमिक शांति की कामना की जाती है।

स्वस्ति: प्रजाभ्यः परिपालयंतां – लोकक्षेम मंत्र

इस श्लोक के प्रत्येक शब्द और पंक्ति के गहन अर्थ को समझने के लिए हमें इसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को भी समझना होगा।

शब्दों का गहन अर्थ:

  1. स्वस्ति (स्व+असति): ‘स्वस्ति’ शब्द संस्कृत का एक बहुत ही गहरा शब्द है, जिसका अर्थ केवल ‘कल्याण’ नहीं है, बल्कि यह एक सकारात्मक ऊर्जा और शुभता की कामना को भी व्यक्त करता है। ‘स्व’ का अर्थ है ‘स्वयं’ और ‘असति’ का अर्थ है ‘अस्तित्व में होना’। यानी, स्वयं के अस्तित्व में शुभता की कामना करना।
  2. प्रजाभ्यः (प्रजा+अभ्यः): ‘प्रजा’ का अर्थ है जनता, सामान्य लोग या नागरिक। ‘अभ्यः’ शब्द का प्रयोग एक विशेष उद्देश्य के लिए किया जाता है। यह पंक्ति दर्शाती है कि सभी लोगों के लिए कल्याण की कामना की जा रही है, न कि केवल किसी एक वर्ग या समुदाय के लिए।
  3. परिपालयंतां: इस शब्द का अर्थ है पालन करना, रक्षा करना। इसका भाव यह है कि जो शासक या नेता हैं, वे अपने कर्तव्यों का पूरी निष्ठा और न्यायपूर्वक पालन करें, जिससे प्रजा का कल्याण हो सके।
  4. न्यायेन मार्गेण: ‘न्याय’ का अर्थ है उचित या सही मार्ग, और ‘मार्ग’ का अर्थ है रास्ता। यानी शासकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सही और न्यायपूर्ण मार्ग पर चलें। इस पंक्ति में यह समझाया गया है कि राजा या शासक को धर्म और सत्य के मार्ग पर चलते हुए न्यायपूर्ण शासन करना चाहिए।
  5. महीं महीशाः: ‘महीं’ का अर्थ धरती है, और ‘महीशा’ का अर्थ राजा। इस पंक्ति का भाव है कि धरती पर जो भी शासक हैं, वे धर्म और न्याय के मार्ग पर चलें और प्रजा की सेवा करें। यह राजा को केवल एक पद नहीं मानता, बल्कि एक सेवा का दायित्व समझता है।
  6. गो ब्राह्मणेभ्यः: ‘गो’ का अर्थ केवल गाय नहीं है, यह सभी जीव-जंतुओं की पवित्रता और उनके कल्याण का प्रतीक भी है। ‘ब्राह्मण’ केवल एक जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि यह ज्ञान, शिक्षा और संस्कृति का प्रतीक है। इस पंक्ति में यह प्रार्थना की गई है कि सभी जीव-जंतु और विद्वान, जो समाज को सही दिशा देने का कार्य करते हैं, वे सदा सुरक्षित और सुखी रहें।
  7. शुभमस्तु नित्यं: ‘शुभमस्तु’ का अर्थ है शुभता बनी रहे, और ‘नित्यं’ का अर्थ है सदा, हमेशा। यह केवल एक बार की शुभकामना नहीं है, बल्कि निरंतर शुभता और समृद्धि की कामना की जा रही है।
  8. लोकाः समस्ताः: ‘लोकाः’ का अर्थ है सभी लोक (संसार), और ‘समस्ताः’ का अर्थ है सभी, यानी यह केवल एक स्थान विशेष की बात नहीं है। इस पंक्ति में पूरे ब्रह्मांड, सभी जीवों और सभी लोकों के लिए कल्याण की कामना की गई है।
  9. सुखिनोभवंतु: ‘सुखिनः’ का अर्थ है सुखी होना और ‘भवंतु’ का अर्थ है हो जाना। इस पंक्ति में सभी के सुखी होने की कामना की गई है, जिसमें किसी भी प्रकार के कष्ट या दुःख का स्थान न हो।
  10. ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः: ‘ॐ’ ब्रह्मांड की ध्वनि है, जो हर प्रकार की ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है। तीन बार ‘शांति’ कहने का अर्थ है आंतरिक (मन, हृदय की शांति), बाहरी (परिवार, समाज, पर्यावरण की शांति), और आध्यात्मिक (आत्मा, ब्रह्मांड की शांति) की कामना करना।

इस श्लोक का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व:

  • सर्वजन हिताय: यह श्लोक “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” की भावना को प्रकट करता है, यानी सभी लोगों के कल्याण और सुख की कामना करता है।
  • धर्म और न्याय की शिक्षा: इसमें शासकों के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है कि वे धर्म और न्याय के मार्ग पर चलें, जिससे समाज में संतुलन और शांति बनी रहे।
  • वसुधैव कुटुम्बकम्: “लोकाः समस्ताः सुखिनोभवंतु” की भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को प्रकट करती है, जिसका अर्थ है कि पूरा संसार एक परिवार है और सभी का कल्याण ही सच्चा कल्याण है।
  • शांति और समृद्धि की कामना: यह श्लोक केवल व्यक्तिगत या राष्ट्रीय शांति की बात नहीं करता, बल्कि सार्वभौमिक शांति की कामना करता है, जो हर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है।

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