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अथ ध्यानम् –
दिगंबरं भस्मसुगंध लेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदां च ।
पद्मासनस्थं रविसोमनेत्र्म दत्तात्रयं नमभीष्टसिद्धिदम् ॥ १ ॥

काषायवस्त्रं करदंडधारिणं कमंडलुं पद्मकरेण शंखम् ।
चक्रं गदाभूषितभूषणाढ्यं श्रीपादराजं शरणं प्रपद्ये ॥ २ ॥

कृते जनार्दनो देवस्त्रेतायां रघुनन्दनः ।
द्वापरे रामकृष्णौ च कलौ श्रीपादवल्लभः ॥ ३ ॥

गुरुचरित्र –
ॐ नमोजी विघ्नहरा ।
गजानना गिरिजाकुमरा ।
जयजयाजी लंबोदरा ।
शकदंता शूर्पकर्णा ॥ १ ॥

त्रिमूर्तिराजा गुरु तूंचि माझा ।
कृष्णातिरी वास करुनी ओजा ।
सद्भक्त तेथे करिती आनंदा ।
त्या देव स्वर्गी बघती विनोदा ॥ २ ॥

जयजयाजी सिद्धमुनी ।
तूं तारक भवार्णावांतुनी ।
संदेह होता माझे मनी ।
आजि तुवां कुडें केले ॥ ३ ॥

ऐशी शिष्याची विनंती ।
ऐकुनि सिद्ध काय बोलती ।
साधु साधु तुझी भक्ति ।
प्रीती पावो श्रीगुरुचरणी ॥ ४ ॥

भक्तजनरक्षणार्थ ।
अवतरला श्रीगुरुनाथ ।
सागरपुत्रांकारणें भगीरथें ।
गंगा आणिली भूमंडळी ॥ ५ ॥

तीर्थे असली अपार परी ।
समस्त सांडुनि प्रीति करी ।
कैसा पावला श्रीदत्ताची ।
श्रीपादश्रीवल्लभ ॥ ६ ॥

ज्यावरी असे श्रीगुरुची प्रीति ।
तीर्थमहिमा ऐकावया चित्ती ।
वांच्छा होतसे त्या ज्ञानज्योती ।
कृपामूर्ति यतिराया॥ ७ ॥

गोकर्णक्षेत्री श्रीपादयती ।
राहिले तीन वर्षे गुप्ती ।
तेथूनी गुरु गीरीपुरा येती ।
लोकानुग्रहाकारणें ॥ ८ ॥

श्रीपाद कुरवपुरी असतां ।
पुढें वर्तली कैसी कथा ।
विस्तारुनी सांग आतां ।
कृपामूर्ति दातारा ॥ ९ ॥

सिद्ध म्हणे नामधारकासी ।
श्रीगुरु महिमा काय पुससी ।
अनंतरुपे परियेसी ।
विश्र्वव्यापक परमात्मा ॥ १० ॥

सिद्ध म्हणे ऐक वत्सा ।
अवतार झाला श्रीपादहर्षा ।
पूर्ववृत्तांत ऐकिला ऐसा ।
कथा सांगितली विप्रस्त्रियेची ॥ ११ ॥

श्रीगुरु म्हणती जननीसी ।
आम्हा ऐसा निरोप देसी ।
अनित्य शरीर तूं जाणसी ।
काय भरवंसा जिविताचा ॥ १२ ॥

श्रीगुरुचरित्र कथामृत ।
सेवितां वांच्छा अधिक होत ।
शमन करणार समर्थ ।
तूचि एक कृपासिंधु ॥ १३ ॥

ऐकुनि शिष्याचे वचन ।
संतोष करी सिद्ध आपण ।
श्रीगुरु चरित्र कामधेनू जाण ।
सांगता झाला विस्तारे ॥ १४ ॥

ऐक शिष्या शिरोमणी ।
धन्य धन्य तुझी वाणी ।
तुझी भक्ति श्रीगुरुचरणी ।
लीन झाली परियेसी ॥ १५ ॥

विनवी शिष्य नामांकित ।
सिद्ध योगियातें पुसत ।
सांगा स्वामी वृत्तांत ।
श्रीगुरुचरित्र विस्तारें ॥ १६ ॥

ऐक शिष्या नामकरणी ।
श्रीगुरुभक्त शिखामणी ।
तुझी भक्ति श्रीगुरुचरणी ।
लीन झाली निर्धारे ॥ १७ ॥

ध्यान लागले श्रीगुरुचरणी ।
तृप्ति नोव्हें अंतःकरणी ।
कथामृत संजिवनी ।
आणिक निरोपावी दातारा ॥ १८ ॥

अज्ञान तिमिर रजनीत ।
निजलो होतो मदोन्मत्त ।
श्रीगुरुचरित्र वचनामृत ।
प्राशन केले दातारा ॥ १९ ॥

स्वामी निरोपिलें आम्हांसी ।
श्रीगुरु आले गाणगापुरासी ।
गौप्यरुपें अमरपुरासी ।
औदुंबरी असती जाण ॥ २० ॥

सिद्ध म्हणे नामधारका ।
ब्रह्मचारी कारणिका ।
उपदेशी ज्ञान विवेका ।
तये प्रेत जननीसी ॥ २१ ॥

तुझा चरणसंपर्क होता ।
झाले ज्ञान मज आतां ।
परमार्थी मन ऐकता ।
झाले तुझे प्रसादें ॥ २२ ॥

लोटांगणे श्रीगुरुसी ।
जाऊनि राजा भक्तिसी ।
नमस्कारी विनयेसी ।
एकभावें करुनियां ॥ २३ ॥

शिष्यवचन परिसुनी ।
सांगता झाला सिद्धमुनी ।
ऐक भक्ता नामकरणी ।
श्रीगुरुचरित्र अभिनव ॥ २४ ॥

सिद्ध म्हणे ऐक बाळा ।
श्रीगुरुची अगम्य लीला ।
सांगता न सरे बहुकाळा ।
साधारण मी सांगतसे ॥ २५ ॥

श्रीगुरु म्हणती ब्राह्मणासी ।
नको भ्रमुरे युक्तिसी ।
वेदांत न कळे ब्रह्मयासी ।
अनंत वेद असती जाण ॥ २६ ॥

चतुर्वेद विस्तारेसी ।
श्रीगुरु सांगती विप्रासी ।
पुढे कथा वर्तली कैसी ।
विस्ताराची दातारा ॥ २७ ॥

नामधारक म्हणे सिद्धासी ।
पुढील कथा सांगा आम्हांसी ।
उल्हास होतो मानसी ।
श्रीगुरुचरित्र अति गोड ॥ २८ ॥

पुढे कथा कवणेपरी ।
झाली असे गुरुचरित्री ।
निरुपावे विस्तारी ।
सिद्धमुनी कृपासिंधु ॥ २९ ॥

श्रीगुरुचरित्र सुधारस ।
तुम्ही पाजिला आम्हांस ।
परी तृप्त नव्हे गा मानस ।
तृषा आणिक होतसे ॥ ३० ॥

सिद्ध म्हणे नामधारका ।
पुढें अपूर्व झाले ऐका ।
योगेश्र्वर कारणिका ।
सांगे स्त्रियांचे स्वधर्म ॥ ३१ ॥

पतिव्रतेची रीती ।
सांगे देवासी बृहस्पती ।
सहगमनाची फलश्रुती ।
येणेपरी निरुपिली ॥ ३२ ॥

श्रीगुरु आले मठासी ।
पुढे कथा वर्तली कैसी ।
विस्तारुनि आम्हांसी ।
निरुपावें स्वामिया ॥ ३३ ॥

श्रीगुरु म्हणती दंपतीसी ।
ऐका पाराशरऋषी ।
तया काश्मीररायासी ।
रुद्राक्षमहिमा निरुपिला ॥ ३४ ॥

पुढें कथा वर्तली कैसी ।
विस्तारुनि सांगा वहिली ।
मति माझी असे वेधिली ।
श्रीगुरुचरित्र ऐकावया ॥ ३५ ॥

गांणगापुरी असतां श्रीगुरु ।
महिमा झाला अपरंपारु ।
सांगता नये विस्तारु ।
तावन्मात्र सांगतसे ॥ ३६ ॥

ऐसा श्रीगुरु दातारु ।
भक्तजना कल्पतरु ।
सांगता झाला आचारु ।
कृपा करुनि विप्रांसी ॥ ३७ ॥

आर्त झालो मी तृषेचा ।
घोट भरवीं गा अमृताचा ।
चरित्रभाग सांगे श्रीगुरुचा ।
माझे मन निववी वेगी ॥ ३८ ॥

सिद्ध म्हणे नामधारका ।
अपूर्व झाले ऐका ।
साठ वर्षे वांझ देखा ।
पुत्रकन्या प्रसवली ॥ ३९ ॥

सिद्ध म्हणे नामधारका ।
अपूर्व वर्तले आणिक ऐका ।
वृक्ष झाला काष्ट सुका ।
विचित्र कथा परियेसा ॥ ४० ॥

जयजयाजी सिद्धमुनी ।
तू तारक या भवार्णवांतुनी ।
नानाधर्म विस्तारुनि ।
श्रीगुरुचरित्र निरुपिले ॥ ४१ ॥

मागें कथानक निरुपिले ।
सायंदेव शिष्य भले ।
श्रीगुरुंनी त्यांसी निरुपिलें ।
कलत्र पुत्र आणि म्हणती ॥ ४२ ॥

श्रीगुरु म्हणती द्विजासी ।
या अनंत व्रतासी ।
सांगेन ऐका तुम्हांसी ।
पूर्वी बहुती आराधिले ॥ ४३ ॥

श्रीगुरु माझा मलिकार्जुन ।
पर्वत म्हणजे श्रीगुरु भुवन ।
आपण नये आतां येथून ।
सोडून चरण श्रीगुरुचे ॥ ४४ ॥

तू भेटलासी मज तारक ।
दैन्य गेले सकळहि दुःख ।
सर्वाभीष्ट लाधले सुख ।
श्रीगुरुचरित्र ऐकतां ॥ ४५ ॥

गाणगापुरीं असतां श्रीगुरु ।
ख्याती झाली अपारु ।
लोक येती थोरथोरु ।
भक्त बहुत झाले असती ॥ ४६ ॥

सांगेन ऐका कथा विचित्र ।
जेणें होय पतित पवित्र ।
ऐसे हें गुरुचरित्र ।
तत्परतेसी परियेसी ॥ ४७ ॥

श्रीगुरु नित्य संगमासी ।
जात होते अनुष्ठानासी ।
मार्गांत शूद्र परियेसी ।
शेती आपुल्या उभा असे ॥ ४८ ॥

त्रिमूर्तीचा अवतार ।
वेषधारी झाला नर ।
राहिले प्रीती गाणगापुर ।
कवण क्षेत्र म्हणूनिया ॥ ४९ ॥

तेणे मागितला वर ।
राज्यपद धुरंधर ।
प्रसन्न झाला त्यासी गुरुवर ।
दिधला वर परियेसा ॥ ५० ॥

राजभेटी घेउनी ।
श्रीपाद आले गाणगाभुवनी ।
योजना करिती आपुले मनीं ।
गौप्य रहावे म्हणूनिया ॥ ५१ ॥

म्हणे सरस्वती गंगाधर ।
श्रोतया करी नमस्कार ।
कथा ऐका मनोहर ।
सकळाभीष्ट लाधेल ॥ ५२ ॥

॥ इति श्रीगुरुचरित्रकथाकल्पतरौ
सिद्धनामधारकसंवादे द्विपंचाशत् श्र्लोकात्मकं
गुरुचरित्र संपूर्णम् ॥

बावन श्लोकी श्री गुरुचरित्र

इस पूरे श्लोक का विस्तृत विवरण निम्नलिखित है:

अथ ध्यानम् –

यह श्लोक भगवान दत्तात्रेय और श्रीपाद श्रीवल्लभ की महिमा और ध्यान की विधि का वर्णन करता है। इसमें ध्यान के माध्यम से दिव्य ऊर्जा और आशीर्वाद प्राप्त करने की विधि दी गई है।

1. श्लोक (अथ ध्यानम्)

“दिगंबरं भस्मसुगंध लेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदां च । पद्मासनस्थं रविसोमनेत्रं दत्तात्रयं नमभीष्टसिद्धिदम् ॥”

  • अर्थ: इस श्लोक में भगवान दत्तात्रेय का ध्यान करने की विधि बताई गई है। इसमें भगवान दत्तात्रेय को दिगंबर (जिसके वस्त्र आकाश है), शरीर पर भस्म का लेप, हाथों में चक्र, त्रिशूल, डमरु और गदा धारण किए हुए दर्शाया गया है। वे कमलासन में बैठे हैं और उनके तीन नेत्र हैं – सूर्य, चंद्र और अग्नि के रूप में। यह श्लोक उन भक्तों के लिए है जो अपने मनोकामनाओं की सिद्धि की कामना करते हैं।

2. श्लोक (श्रीपाद श्रीवल्लभ ध्यानम्)

“काषायवस्त्रं करदंडधारिणं कमंडलुं पद्मकरेण शंखम् । चक्रं गदाभूषितभूषणाढ्यं श्रीपादराजं शरणं प्रपद्ये ॥”

  • अर्थ: यह श्लोक भगवान श्रीपाद श्रीवल्लभ का ध्यान करते समय की स्थिति का वर्णन करता है। वे काषायवस्त्र (साधु का वस्त्र) पहने हुए हैं, उनके हाथ में दंड (साधु का छड़ी) और कमंडल (पवित्र जल रखने का पात्र) है। वे कमल (पवित्रता का प्रतीक) और शंख (ध्वनि का प्रतीक) धारण किए हुए हैं। इस श्लोक में भक्त उनसे शरण लेने की प्रार्थना करते हैं, जो सभी आभूषणों से सुशोभित हैं।

3. श्लोक (अवतार सिद्धांत)

“कृते जनार्दनो देवस्त्रेतायां रघुनन्दनः । द्वापरे रामकृष्णौ च कलौ श्रीपादवल्लभः ॥”

  • अर्थ: यह श्लोक विभिन्न युगों में भगवान के अवतारों का वर्णन करता है। सतयुग में भगवान जनार्दन (विष्णु) के रूप में, त्रेतायुग में रघुनंदन (राम), द्वापरयुग में राम और कृष्ण, और कलियुग में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार धारण किया है।

गुरुचरित्र (श्री गुरु की महिमा)

यह श्लोक गुरुचरित्र की महिमा का वर्णन करता है। इसमें भगवान गणेश की स्तुति की गई है, जिन्हें विघ्नहर्ता (सभी बाधाओं को दूर करने वाला), लंबोदर (बड़े पेट वाले) और गजानन (हाथी के सिर वाले) के रूप में पूजा जाता है। इसके साथ ही गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है।

ॐ नमोजी विघ्नहरा । गजानना गिरिजाकुमरा । जयजयाजी लंबोदरा । शकदंता शूर्पकर्णा ॥

  • अर्थ: इस श्लोक में गणेश जी की महिमा का गुणगान किया गया है। गणेश जी, जो विघ्नों का हरण करते हैं, गिरिजा के पुत्र हैं, लंबे कानों वाले, और जिन्हें लंबोदर, शकदंता, शूर्पकर्ण आदि नामों से जाना जाता है।

अन्य श्लोक

इन श्लोकों में गुरु की महिमा, शिष्य और गुरु के बीच के संवाद, और भक्त के लिए गुरु के मार्गदर्शन का वर्णन किया गया है। इसमें गुरुचरित्र, गुरु के आशीर्वाद, और शिष्य की भक्ति की महिमा का गुणगान किया गया है।

अंत में

“इति श्रीगुरुचरित्रकथाकल्पतरौ सिद्धनामधारकसंवादे द्विपंचाशत् श्र्लोकात्मकं गुरुचरित्र संपूर्णम् ॥”

  • अर्थ: इस श्लोक के साथ गुरुचरित्र कथा समाप्त होती है, जिसमें सिद्ध नामधारक के साथ संवाद किया गया है। इस कथा में गुरु की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है।

यह संपूर्ण श्लोक और उसका विवरण भगवान दत्तात्रेय, श्रीपाद श्रीवल्लभ, और गुरुचरित्र के महात्म्य का विस्तृत वर्णन करता है, जिसमें भक्तगण ध्यान, स्तुति और भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर सकते हैं।

बावन श्लोकी श्री गुरुचरित्र महत्व

हाँ, इन श्लोकों में छिपे गहरे आध्यात्मिक और धार्मिक तत्वों को और विस्तार से समझा सकते हैं:

ध्यानम् का महत्व

“अथ ध्यानम्” का अर्थ है ‘ध्यान की विधि’। ध्यान श्लोक का उद्देश्य भगवान दत्तात्रेय और श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप का ध्यान करना है ताकि साधक उनके दिव्य स्वरूप को अपनी आंतरिक दृष्टि से देख सके। ध्यान करने से मन को शांति मिलती है और साधक को आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है।

  1. दिगंबरं भस्मसुगंध लेपनं: दिगंबर का अर्थ है ‘जिसके वस्त्र दिशाएं हैं’, यानी वे निराकार और निरावरण हैं। उनके शरीर पर भस्म का लेपन है, जो उनकी साधुता और वैराग्य का प्रतीक है। यह हमें माया से परे जाने की शिक्षा देता है।
  2. चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदां च: चक्र, त्रिशूल, डमरु और गदा उनके हाथों में धारण हैं, जो उनकी शक्ति और विनाशकारी क्षमता का प्रतीक हैं। यह शस्त्र उन्हें सभी बाधाओं को दूर करने और संसार की बुराइयों का नाश करने में समर्थ बनाते हैं।
  3. पद्मासनस्थं रविसोमनेत्रं: भगवान दत्तात्रेय पद्मासन में बैठे हैं, जो शांति और स्थिरता का प्रतीक है। उनके तीन नेत्र हैं – सूर्य, चंद्र, और अग्नि के प्रतीक, जो उनकी सर्वज्ञता का प्रतीक है।
  4. दत्तात्रयं नमभीष्टसिद्धिदम्: दत्तात्रेय को नमन करते हुए भक्त उनसे अपने अभिष्ट की सिद्धि की कामना करता है।

श्रीपाद श्रीवल्लभ ध्यानम् का महत्व

श्रीपाद श्रीवल्लभ भगवान दत्तात्रेय के पहले अवतार माने जाते हैं। उनका ध्यान भक्तों के लिए अत्यंत लाभकारी माना जाता है, खासकर उनके शरणागतों के लिए जो आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं।

  1. काषायवस्त्रं करदंडधारिणं: काषाय वस्त्र (गेरुए वस्त्र) साधुता और वैराग्य का प्रतीक हैं। करदंड (हाथ में दंड) उनके अनुशासन और नियमों के पालन का प्रतीक है।
  2. कमंडलुं पद्मकरेण शंखम्: कमंडल और शंख धार्मिक अनुष्ठानों और पवित्रता का प्रतीक हैं। यह उनकी साधना और भक्तों के लिए आशीर्वाद का प्रतीक है।
  3. श्रीपादराजं शरणं प्रपद्ये: भक्त श्रीपाद श्रीवल्लभ की शरण में जाकर उनके संरक्षण की प्रार्थना करता है, जो सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं और जो अपनी कृपा से सभी बाधाओं को दूर करते हैं।

गुरुचरित्र का महात्म्य

गुरुचरित्र श्लोकों का उद्देश्य भक्तों को गुरु के प्रति आस्था और भक्ति की महिमा का बोध कराना है। इसमें गुरु की महिमा, उनकी अनुग्रह शक्ति, और शिष्य के लिए उनके मार्गदर्शन का वर्णन किया गया है।

  1. ॐ नमोजी विघ्नहरा: गणेश जी को विघ्नहर्ता कहा गया है, जो सभी बाधाओं को दूर करते हैं। यह श्लोक गणेश जी की स्तुति के साथ शुरू होता है, जो किसी भी शुभ कार्य से पहले गणेश जी का स्मरण करने की परंपरा का हिस्सा है।
  2. त्रिमूर्तिराजा गुरु तूंचि माझा: गुरु को त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का स्वरूप माना गया है। यह गुरु की सर्वशक्तिमान स्थिति को दर्शाता है, जो अपने शिष्यों को मार्गदर्शन और आशीर्वाद देने में सक्षम हैं।
  3. गोकर्णक्षेत्री श्रीपादयती: गोकर्ण क्षेत्र में श्रीपाद श्रीवल्लभ का निवास स्थान माना जाता है। वहाँ तीन वर्षों तक उन्होंने तपस्या की और भक्तों को दर्शन दिए।
  4. श्रीगुरुचरित्र सुधारस: गुरुचरित्र को अमृत के समान माना गया है, जो साधकों के लिए जीवनी शक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत है।

कथानक का विस्तार

गुरुचरित्र में विभिन्न कथाओं के माध्यम से गुरु की महिमा और उनके अनुग्रह का वर्णन किया गया है। यह श्लोक उन कथाओं की ओर संकेत करता है, जिनमें गुरु ने अपने शिष्यों को मार्गदर्शन दिया और उनकी कठिनाइयों को दूर किया।

  • सिद्धनामधारक संवाद: यह संवाद गुरु और शिष्य के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान का उदाहरण है। सिद्ध योगी और नामधारक के बीच का यह संवाद शिष्य की जिज्ञासा और गुरु की कृपा का प्रतीक है।
  • श्रीगुरुचरित्र सुधारस: यह गुरुचरित्र की महानता और उसके पाठ से मिलने वाले लाभों का वर्णन करता है। इसमें बताया गया है कि कैसे गुरुचरित्र के अध्ययन से भक्तों की इच्छाएं पूरी होती हैं और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है।

इन श्लोकों के माध्यम से भक्तों को यह शिक्षा दी जाती है कि गुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति के बिना जीवन में सच्ची उन्नति संभव नहीं है। गुरुचरित्र का अध्ययन और इसका पालन जीवन को सुखमय और कष्टों से मुक्त बनाता है।

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