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हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ – भजन (Akhiya Hari Darshan Ki Pyasi)

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हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

देखियो चाहत कमल नैन को,
निसदिन रहेत उदासी,
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

आये उधो फिरी गए आँगन,
दारी गए गर फँसी,
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

केसर तिलक मोतीयन की माला,
ब्रिन्दावन को वासी,
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

काहू के मन की कोवु न जाने,
लोगन के मन हासी,
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस बिन,
लेहो करवट कासी,
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ
अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी ॥

हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ – भजन का गहराई से विश्लेषण

सूरदास जी के भजन “हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ” में उनकी भक्ति, प्रेम, और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहन समर्पण प्रकट होता है। इस भजन के प्रत्येक शब्द में भक्ति का ऐसा भाव छिपा है, जो किसी साधक की आध्यात्मिक यात्रा को दर्शाता है। इस विश्लेषण में हम न केवल शब्दों का अर्थ समझेंगे, बल्कि उनके पीछे छिपे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदेशों को भी विस्तार से जानेंगे।

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हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ

पंक्ति: हरी दर्शन की प्यासी अखियाँ, अखियाँ हरी दर्शन की प्यासी।
गहन विश्लेषण:
भक्त की आँखें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अतृप्त हैं। यह केवल एक सामान्य अभिलाषा नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक प्यास है, जो आत्मा के उस गहरे स्तर से उत्पन्न होती है, जहाँ केवल ईश्वर के साथ मिलन ही पूर्णता देता है। ‘प्यास’ यहाँ केवल भौतिक अर्थों में नहीं, बल्कि आत्मा के उस अनुभव को दर्शाता है जो संसार के किसी भी सुख से तृप्त नहीं हो सकता। यह भाव वैराग्य की ओर इशारा करता है, जहाँ व्यक्ति संसार की हर वस्तु से विरक्त हो जाता है और केवल भगवान की ओर आकर्षित रहता है।


देखियो चाहत कमल नैन को

पंक्ति: देखियो चाहत कमल नैन को, निसदिन रहेत उदासी।
गहन विश्लेषण:
यहाँ श्रीकृष्ण के रूप का प्रतीकात्मक वर्णन है। ‘कमल नैन’ श्रीकृष्ण के नेत्रों की कोमलता और उनकी दिव्यता का प्रतीक है। भक्त की यह लालसा, कि वह उन नेत्रों के दर्शन करे, उसकी अंतर्दृष्टि को उजागर करती है। हर दिन ‘उदासी’ केवल बाहरी स्थिति नहीं है, बल्कि उस आत्मा की व्याकुलता है, जो अपने स्रोत (भगवान) से अलग हो गई है। इस पंक्ति में वैष्णव भक्ति परंपरा की अद्वैत भावना झलकती है, जिसमें भक्त भगवान को स्वयं का अभिन्न अंग मानता है।


आये उधो फिरी गए आँगन

पंक्ति: आये उधो फिरी गए आँगन, दारी गए गर फँसी।
गहन विश्लेषण:
यह पंक्ति महाभारत की उस घटना की ओर संकेत करती है, जब उद्धव भगवान श्रीकृष्ण का संदेश लेकर ब्रज आए। गोकुल की गोपियों और भक्तों ने उद्धव से भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की प्रार्थना की। लेकिन उद्धव उनका यह संदेश लेकर लौट गए, और भक्तों की आशा धूमिल हो गई। यह घटना आध्यात्मिक प्रतीकों से भरी है:

  1. उद्धव का संदेश: वह ज्ञान और भक्ति के बीच संतुलन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. भक्तों की व्याकुलता: यह भक्त और भगवान के बीच के उस अंतराल को दर्शाती है, जिसे केवल भक्ति के माध्यम से ही भरा जा सकता है।
    यह पंक्ति यह भी सिखाती है कि भगवान के प्रति प्रेम और समर्पण में धैर्य का कितना महत्व है।
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केसर तिलक मोतीयन की माला

पंक्ति: केसर तिलक मोतीयन की माला, ब्रिन्दावन को वासी।
गहन विश्लेषण:
यह पंक्ति श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप का चित्रण करती है। ‘केसर तिलक’ उनकी अलौकिकता का प्रतीक है। केसर और मोती, जो संसार में भी अद्वितीय और सुंदर माने जाते हैं, भगवान के स्वरूप के सामने फीके पड़ जाते हैं।
ब्रजवासियों के लिए ‘ब्रिन्दावन’ केवल एक स्थान नहीं है; यह उनकी भावनाओं और स्मृतियों का केन्द्र है। ब्रज का हर कण श्रीकृष्ण के चरणों का साक्षी है। यह पंक्ति व्यक्ति को यह याद दिलाती है कि ईश्वर का सच्चा स्वरूप केवल बाहरी सौंदर्य में नहीं, बल्कि उनके प्रति व्यक्ति के प्रेम और समर्पण में निहित है।


काहू के मन की कोवु न जाने

पंक्ति: काहू के मन की कोवु न जाने, लोगन के मन हासी।
गहन विश्लेषण:
यहाँ भक्त की आंतरिक पीड़ा और सामाजिक उपेक्षा का वर्णन है। भक्ति का मार्ग हमेशा सरल नहीं होता; यह कई बार भक्त को समाज के दृष्टिकोण से अलग-थलग कर देता है। ‘लोगन के मन हासी’ उस व्यंग्य का प्रतीक है, जो एक भक्त को सहना पड़ता है।
यहाँ एक गहरी सीख छिपी है: सच्ची भक्ति बाहरी मान्यता पर निर्भर नहीं होती। यह भक्त और भगवान के बीच का निजी संबंध है, जिसे केवल वही समझ सकते हैं, जो इस मार्ग पर चलते हैं।


सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस बिन

पंक्ति: सूरदास प्रभु तुम्हारे दरस बिन, लेहो करवट कासी।
गहन विश्लेषण:
सूरदास जी अपनी भक्ति को चरम सीमा पर ले जाते हैं। ‘करवट कासी’ का अर्थ है मृत्यु को गले लगाना। यह पंक्ति जीवन और मृत्यु के प्रति उनकी अद्वितीय दृष्टि को प्रकट करती है। यदि ईश्वर के दर्शन नहीं होते, तो जीवन का कोई अर्थ नहीं।
यहाँ सूरदास जी का समर्पण हमें यह सिखाता है कि भक्ति केवल मन की स्थिति नहीं है, बल्कि यह आत्मा की सबसे गहरी इच्छा है।


इस भजन में सूरदास जी की भक्ति केवल व्यक्तिगत भावना नहीं है, बल्कि यह हर भक्त की सार्वभौमिक भावना को प्रकट करती है। क्या आप इससे जुड़े और गहरे आयामों को समझना चाहते हैं? यदि हाँ, तो मैं इसे और विस्तार से समझाने के लिए तैयार हूँ।

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