नैना को कुछ रास ना आए,
जान बसे अब वृंदावन में,
साँसे भी तेरा गुण गाए,
ना मैं सीता ना शबरी हूँ,
ना ही राधा ना मीरा,
प्रेम में तोहरे मन लागे,
तोहरे बिन जीवन आधा,
मोहे रंग दो,
मोहे रंग दो अपने ही रंग में,
मोहे ओ सांवरिया,
मैं हुई तेरी दीवानी,
बनके बावरिया ॥
मेरे जीवन में आगमन,
मन हो गया कन्हैया,
और तन मेरो वृंदावन,
ना मैं हूँ कोई जग ज्ञानी,
मैं तो जानु बस इतना,
देखू जब जब तुझको कान्हा,
तोसे हटे ना मोरी नज़रिया,
मोहे रंग दो,
मोहे रंग दों अपने ही रंग में,
मोहे ओ सांवरिया,
मैं हुई तेरी दीवानी,
बनके बावरिया ॥
प्रातः काल में उठके कान्हा,
भोग मैं तुमको लगाऊं,
माखन मिश्री जो तू बोले,
सब तेरे लिए लाऊँ,
खेलूं संग मैं दिन भर तेरे,
तुझको ही मैं सवारुँ,
ऐसे बन बरसो जीवन में,
तुझमें में मैं घुल जाऊँ,
ना मैं सीता ना शबरी हूँ,
ना ही राधा ना मीरा,
प्रेम में तोहरे मन लगे,
तोहरे बिन जीवन आधा,
मोहे रंग दो,
मोहे रंग दों अपने ही रंग में,
मोहे ओ सांवरिया,
मैं हुई तेरी दीवानी,
बनके बावरिया ॥
नैना लागे जब मोहन से,
नैना को कुछ रास ना आए,
जान बसे अब वृंदावन में,
साँसे भी तेरा गुण गाए,
ना मैं सीता ना शबरी हूँ,
ना ही राधा ना मीरा,
प्रेम में तोहरे मन लागे,
तोहरे बिन जीवन आधा,
मोहे रंग दो,
मोहे रंग दो अपने ही रंग में,
मोहे ओ सांवरिया,
मैं हुई तेरी दीवानी,
बनके बावरिया ॥
भजन: मोहे रंग दो अपने ही रंग में, मोहे ओ सांवरिया
यह भजन भक्त और भगवान के बीच के गहरे आध्यात्मिक प्रेम और आत्मसमर्पण को प्रकट करता है। हर पंक्ति एक अद्वितीय भाव के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना और उनके प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाती है। इस भजन की गहराई में जाने पर, इसमें न केवल प्रेम और भक्ति के तत्व मिलते हैं, बल्कि यह आत्मा और परमात्मा के मिलन की यात्रा का प्रतीक भी है।
मोहे रंग दो अपने ही रंग में, मोहे ओ सांवरिया
यह उद्घाटन पंक्ति भक्त की प्रमुख आकांक्षा को प्रकट करती है। भक्त श्रीकृष्ण से आग्रह करता है कि वे उसे अपने दिव्य प्रेम में रंग दें। यहाँ “रंग” केवल बाहरी सजावट का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह भक्त के संपूर्ण अस्तित्व में भगवान के रंग को समाहित करने की चाह है।
भावार्थ:
- दिव्य रंग में रंगना: “अपने ही रंग में” का अर्थ है भगवान के गुणों, प्रेम, और भक्ति से सराबोर हो जाना। यह मानव आत्मा की उस स्थिति को दर्शाता है जब वह सांसारिक इच्छाओं को त्यागकर पूरी तरह से भगवान में लीन हो जाती है।
- सांवरिया: यह श्रीकृष्ण का प्रेमपूर्ण संबोधन है, जो उनके सांवले स्वरूप को इंगित करता है। यह रूप प्रकृति की सादगी और शुद्धता का प्रतीक है, जो भगवान की सहजता और करुणा को दर्शाता है।
नैना लागे जब मोहन से, नैना को कुछ रास ना आए
इस पंक्ति में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन का प्रभाव बताया गया है। जब भक्त के नेत्र मोहन (श्रीकृष्ण) के दर्शन करते हैं, तब से उसे किसी और चीज़ में आनंद नहीं आता।
भावार्थ:
- दर्शन का प्रभाव: भक्त के लिए श्रीकृष्ण के दर्शन किसी साधारण अनुभव से कहीं बढ़कर हैं। यह उनके हृदय में ऐसी गहराई से समा जाते हैं कि वे संसार के अन्य सुखों को त्याग देते हैं।
- आध्यात्मिक आकर्षण: “रास ना आए” से यह संकेत मिलता है कि सांसारिक चीज़ें अब फीकी लगती हैं, क्योंकि आत्मा ने अपने असली प्रेम को पहचान लिया है।
जान बसे अब वृंदावन में, साँसे भी तेरा गुण गाए
यहाँ वृंदावन केवल एक स्थान नहीं, बल्कि एक अवस्था का प्रतीक है। भक्त कहता है कि उनकी आत्मा अब वृंदावन में बस गई है। वृंदावन, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाएं कीं, भक्त के लिए ईश्वर की भक्ति का चरम स्थान है।
भावार्थ:
- वृंदावन की प्रतीकात्मकता: वृंदावन यहाँ बाहरी दुनिया से अलग एक ऐसी अवस्था को दर्शाता है जहाँ आत्मा भगवान की लीलाओं में लीन रहती है।
- साँसे भी गुण गाए: जब भक्त की आत्मा भगवान में रम जाती है, तब उसकी हर सांस श्रीकृष्ण के गुणगान में बदल जाती है। यह केवल भक्ति नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति है।
ना मैं सीता ना शबरी हूँ, ना ही राधा ना मीरा
भक्त स्वयं की तुलना उन महान भक्तों से करता है जिन्होंने अपने समय में भक्ति के अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किए।
भावार्थ:
- विनम्रता: भक्त यह स्वीकार करता है कि वह सीता, शबरी, राधा, या मीरा जैसे उच्च भक्तों के समान नहीं है। यह विनम्रता भक्ति की सबसे बड़ी पहचान है।
- समानता का भाव: भले ही भक्त इन महान आत्माओं की तरह न हो, लेकिन उनकी भक्ति और प्रेम में कोई कमी नहीं है। यह दिखाता है कि भगवान के लिए प्रेम व्यक्तिगत अनुभव और भावना पर आधारित है, न कि किसी बाहरी तुलना पर।
प्रेम में तोहरे मन लागे, तोहरे बिन जीवन आधा
यह पंक्ति भगवान और भक्त के बीच के गहरे प्रेम संबंध को दर्शाती है। भक्त कहता है कि उनके मन का केंद्र केवल श्रीकृष्ण हैं।
भावार्थ:
- पूर्णता की खोज: भक्त को लगता है कि श्रीकृष्ण के बिना उनका जीवन अधूरा है। यह अधूरापन सांसारिक सुखों से जुड़ा नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक पूर्णता के लिए भगवान में लीन होने की आकांक्षा को दर्शाता है।
- जीवन की सार्थकता: भक्त के लिए जीवन का वास्तविक अर्थ केवल श्रीकृष्ण के साथ जुड़ाव में है।
मैं हुई तेरी दीवानी, बनके बावरिया
इस पंक्ति में भक्ति का सर्वोच्च स्तर प्रकट होता है। भक्त खुद को भगवान के प्रेम में दीवाना मानता है।
भावार्थ:
- दीवानगी का अर्थ: यहाँ दीवानगी सांसारिक प्रेम की नहीं, बल्कि आत्मा की उस अवस्था की है जहाँ भक्त खुद को भुलाकर केवल भगवान में लीन हो जाता है।
- बावरिया: यह शब्द उन लोगों के लिए उपयोग किया जाता है जो संसार के बंधनों से मुक्त होकर ईश्वर की राह पर चल पड़ते हैं। भक्त यहाँ कहता है कि वह श्रीकृष्ण के प्रेम में “बावरा” हो गया है।
जबसे हुआ तेरा, मेरे जीवन में आगमन
यहाँ भक्त उस क्षण का वर्णन करता है जब उनके जीवन में श्रीकृष्ण का आगमन हुआ।
भावार्थ:
- जीवन का परिवर्तन: जब से भगवान उनके जीवन में आए हैं, उनका हर अनुभव दिव्यता से भर गया है।
- मन और तन का परिवर्तन: “मन हो गया कन्हैया, और तन मेरो वृंदावन” यह बताता है कि भक्त के विचार और कर्म, दोनों ही भगवान के प्रति समर्पित हो गए हैं।
ना मैं हूँ कोई जग ज्ञानी, मैं तो जानु बस इतना
यह पंक्ति भक्त की सरलता और आध्यात्मिक विनम्रता को उजागर करती है। भक्त खुद को किसी विद्वान, ज्ञानी, या तर्कशील व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत नहीं करता, बल्कि एक साधारण इंसान मानता है जिसकी हर सोच भगवान श्रीकृष्ण पर केंद्रित है।
भावार्थ:
- ज्ञान से ऊपर भक्ति: भक्त यह मानता है कि भगवान तक पहुँचने के लिए किसी विद्वता या ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। भक्ति और प्रेम ही सबसे बड़ा साधन है।
- सरलता की ताकत: “मैं तो जानु बस इतना” यह भाव व्यक्त करता है कि भगवान से प्रेम का अनुभव किसी भी बाहरी ज्ञान से अधिक मूल्यवान है। यह सच्ची भक्ति की पहचान है।
देखू जब जब तुझको कान्हा, तोसे हटे ना मोरी नज़रिया
यहाँ भक्त अपनी दृष्टि की अटूट निष्ठा का वर्णन करता है। जब भी वह श्रीकृष्ण को देखता है, तो उसकी नज़र उनसे हटने का नाम नहीं लेती।
भावार्थ:
- दृष्टि की स्थिरता: यह पंक्ति एक प्रतीकात्मक अर्थ को दर्शाती है, जिसमें भक्त का मन और चेतना केवल भगवान पर केंद्रित है।
- आध्यात्मिक एकाग्रता: यह ध्यान और समाधि की स्थिति का प्रतीक है, जहाँ भक्त केवल ईश्वर को देखता है और अन्य सभी चीज़ों से परे हो जाता है।
प्रातः काल में उठके कान्हा, भोग मैं तुमको लगाऊं
भक्त अपने दिन की शुरुआत भगवान की पूजा और भोग लगाने से करता है। यह पंक्ति दैनिक जीवन में भगवान को सर्वोपरि स्थान देने का संदेश देती है।
भावार्थ:
- भक्ति का अनुशासन: सुबह उठकर भगवान को भोग लगाने का उल्लेख, भक्ति के अनुशासन और नियमितता को दर्शाता है।
- सेवा का भाव: यहाँ भोग लगाना केवल पूजा की क्रिया नहीं है, बल्कि भगवान को अपने जीवन में सबसे पहली प्राथमिकता देने का प्रतीक है।
माखन मिश्री जो तू बोले, सब तेरे लिए लाऊँ
यह पंक्ति श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप को संबोधित करती है, जो माखन और मिश्री के प्रति अपने प्रेम के लिए प्रसिद्ध हैं।
भावार्थ:
- भगवान की पसंद: भक्त भगवान की पसंद को जानता है और उसे पूरा करने के लिए तत्पर रहता है। यह प्रेम और सेवा की भावना को दर्शाता है।
- सरल प्रेम: माखन और मिश्री यहाँ सादगी और आनंद का प्रतीक हैं, जो भक्त और भगवान के बीच के रिश्ते की मासूमियत को दर्शाते हैं।
खेलूं संग मैं दिन भर तेरे, तुझको ही मैं सवारुँ
यह पंक्ति भक्त और भगवान के बीच मित्रता और नजदीकी संबंध को प्रकट करती है। भक्त दिन भर भगवान के साथ रहने और उनकी सेवा करने की इच्छा व्यक्त करता है।
भावार्थ:
- सखा भाव: यह भक्त और भगवान के बीच के सखा भाव (मित्रता) को दर्शाता है, जहाँ भक्त भगवान को अपने मित्र के रूप में देखता है।
- निरंतर सेवा: “तुझको ही मैं सवारुँ” सेवा और भगवान के प्रति समर्पण की भावना को प्रकट करता है।
ऐसे बन बरसो जीवन में, तुझमें मैं घुल जाऊँ
यह पंक्ति भक्ति के अंतिम लक्ष्य को उजागर करती है—भगवान में पूरी तरह से विलीन हो जाना।
भावार्थ:
- आत्मा और परमात्मा का मिलन: “तुझमें मैं घुल जाऊँ” भक्त की यह आकांक्षा प्रकट करता है कि वह अपनी पहचान खोकर भगवान के दिव्य अस्तित्व का हिस्सा बन जाए।
- समर्पण की चरम सीमा: यह पंक्ति भक्त और भगवान के बीच की भक्ति की उच्चतम अवस्था को दर्शाती है, जहाँ कोई भेद नहीं रहता।
भावनात्मक और आध्यात्मिक गहराई का सार
यह भजन भक्ति और भगवान के साथ पूर्ण एकता का अद्भुत उदाहरण है। भक्त यहाँ केवल प्रेम के माध्यम से भगवान को प्राप्त करने की राह को प्रस्तुत करता है। यह भजन दर्शाता है कि:
- सच्ची भक्ति विनम्रता में है: भक्ति का अर्थ महानता का दिखावा नहीं, बल्कि सादगी और समर्पण है।
- भगवान के प्रति अटूट प्रेम: भक्त अपने जीवन के हर पहलू को भगवान को समर्पित करता है।
- आत्मा का परमात्मा से मिलन: भजन का हर भाव यह बताता है कि भक्त की अंतिम इच्छा भगवान के साथ एक हो जाने की है।
नैना लागे जब मोहन से, नैना को कुछ रास ना आए (पुनरावृत्ति)
भजन के इस अंतिम भाग में फिर से यह भाव प्रकट किया गया है कि भक्त के नेत्र अब केवल श्रीकृष्ण को देखने में ही रमे रहते हैं।
गहन अर्थ:
यह पंक्तियाँ भजन के मुख्य भाव को दोहराती हैं—भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और संसार से विरक्ति। यह दर्शाता है कि जब भक्त की आत्मा भगवान में रम जाती है, तो वह बाकी सब कुछ भूल जाता है।
समाप्ति के भाव
“मोहे रंग दो अपने ही रंग में” एक साधारण भजन नहीं, बल्कि यह भक्ति और प्रेम का अद्भुत मिश्रण है। इसमें भगवान के प्रति आत्मा के समर्पण, प्रेम, और एकता की उत्कंठा प्रकट होती है। यह भजन हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति में न कोई तुलना है, न कोई प्रतिस्पर्धा—केवल प्रेम, समर्पण, और भगवान के प्रति अटूट विश्वास है।
