भजन

हे जग स्वामी, अंतर्यामी, तेरे सन्मुख आता हूँ! (He Jag Swami Anataryami, Tere Sanmukh Aata Hoon!)

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हे जग स्वामी, अंतर्यामी,
तेरे सन्मुख आता हूँ ।

सन्मुख आता, मैं शरमाता
भेंट नहीं कुछ लाता हूँ
॥ हे जग स्वामी…॥

पापी जन हूँ, मैं निर्गुण हूँ
द्वार तेरे पर आता हूँ
॥ हे जग स्वामी…॥

मुझ पर प्रभु कृपा कीजे
पापों से पछताता हूँ
॥ हे जग स्वामी…॥

पाप क्षमा कर दीजे मोरे,
मन से ये ही चाहता हूँ
॥ हे जग स्वामी…॥

हे जग स्वामी, अंतर्यामी,
तेरे सन्मुख आता हूँ ।

हे जग स्वामी, अंतर्यामी, तेरे सन्मुख आता हूँ!: भजन का गहराई से विश्लेषण

यह भजन आत्मसमर्पण और भक्ति की परम अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें भक्त अपनी संपूर्ण कमजोरी और पापों को स्वीकार करते हुए भगवान की कृपा की याचना करता है। इस भजन के हर शब्द में भक्त का भगवान के प्रति प्रेम, विश्वास, और आत्मसमर्पण झलकता है। आइए, इसे पंक्ति-दर-पंक्ति गहराई से समझें।


हे जग स्वामी, अंतर्यामी

यह पंक्ति भगवान के दो महत्वपूर्ण स्वरूपों को प्रस्तुत करती है।

  1. जग स्वामी: भगवान को संसार के स्वामी के रूप में स्वीकार करना यह दर्शाता है कि वे सृष्टि के रचयिता और पालनकर्ता हैं। यह मान्यता भक्त के भीतर भगवान के प्रति आदर और विनम्रता को जन्म देती है।
  2. अंतर्यामी: इस शब्द का अर्थ है, “जो हर प्राणी के दिल की गहराइयों को जानता है।” यह भगवान के सर्वज्ञ और सर्वव्यापी स्वरूप की पुष्टि करता है।

गहराई से समझें

यह संबोधन केवल भगवान की महिमा का बखान नहीं है, बल्कि यह इस विश्वास को भी प्रकट करता है कि भगवान के समक्ष कुछ भी छिपा नहीं है। भक्त जानता है कि वह चाहे कितनी भी गलतियां करे, भगवान उसकी आंतरिक स्थिति से भली-भांति परिचित हैं। यह आत्मज्ञान भक्त को भगवान के सामने सत्यनिष्ठा और ईमानदारी से प्रस्तुत होने की प्रेरणा देता है।


तेरे सन्मुख आता हूँ

यह पंक्ति भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को प्रकट करती है।

  • तेरे सन्मुख: भक्त भगवान के चरणों में स्वयं को प्रस्तुत करता है। यह प्रतीकात्मक रूप से यह दर्शाता है कि भक्त ने अपने अहंकार और आत्मकेन्द्रित दृष्टिकोण को छोड़ दिया है।
  • आता हूँ: यह बताता है कि भक्त अपनी ओर से पहला कदम बढ़ा रहा है।
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गहराई से समझें

भक्त का भगवान के समक्ष आना केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है; यह आत्मा का उसकी मूल चेतना की ओर लौटना है। यह एक साधक का संकेत है जो अपने सांसारिक मोह को छोड़कर परम सत्य की खोज में है।


सन्मुख आता, मैं शरमाता

यह पंक्ति भगवान के सामने खड़े होने की चुनौती और भक्त की आत्मस्वीकृति को दर्शाती है।

  • सन्मुख आता: भक्त भगवान के सामने खड़ा होने की हिम्मत जुटाता है, लेकिन…
  • मैं शरमाता: …अपनी कमजोरियों और पापों को याद करते हुए उसे शर्मिंदगी महसूस होती है।

गहराई से समझें

भक्त की शर्मिंदगी उसकी आत्मा की गहराई से उत्पन्न होती है। यह पश्चाताप केवल सतही नहीं है; यह भक्त की गहरी आत्मा से जुड़ा हुआ है। यह संकेत करता है कि भक्त ने न केवल अपने कर्मों पर विचार किया है, बल्कि उन कर्मों से उत्पन्न दोष को भी महसूस किया है। यह स्थिति भक्त को भगवान के सामने पूर्ण रूप से समर्पित होने के लिए तैयार करती है।


भेंट नहीं कुछ लाता हूँ

यह पंक्ति भौतिकता और आध्यात्मिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट करती है।

  • भेंट नहीं: भक्त के पास भगवान को अर्पित करने के लिए कोई बाहरी वस्तु नहीं है।
  • कुछ लाता हूँ: भक्त खाली हाथ भगवान के सामने उपस्थित होता है।

गहराई से समझें

यहां भक्त भौतिक भेंटों के महत्व को नकारता है और इस बात को रेखांकित करता है कि भगवान केवल शुद्ध हृदय और सच्ची भक्ति को स्वीकार करते हैं। भक्त यह समझता है कि कोई भी बाहरी वस्तु भगवान के प्रेम और करुणा के बराबर नहीं हो सकती। वह यह भी मानता है कि उसकी सच्ची भेंट उसका पश्चाताप और समर्पण है।


पापी जन हूँ, मैं निर्गुण हूँ

यह पंक्ति भक्त की आत्मस्वीकृति और उसकी आत्मा की स्थिति को प्रकट करती है।

  • पापी जन हूँ: भक्त खुद को पापी मानता है और अपने कर्मों के लिए गहरा पछतावा व्यक्त करता है।
  • मैं निर्गुण हूँ: भक्त मानता है कि उसमें ऐसा कोई गुण नहीं है जो उसे भगवान की कृपा के योग्य बना सके।

गहराई से समझें

यह स्वीकारोक्ति भक्त की सच्चाई और विनम्रता को दर्शाती है। यह पंक्ति यह भी प्रकट करती है कि भक्त को अपने कर्मों के प्रभाव का पूरा एहसास है। वह यह मानता है कि संसार के बंधनों और मोह ने उसे पापों में उलझा दिया है। यह आत्मचिंतन भक्त को अपने जीवन में सुधार करने की प्रेरणा देता है।

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द्वार तेरे पर आता हूँ

यह पंक्ति भगवान के प्रति विश्वास और श्रद्धा को व्यक्त करती है।

  • द्वार तेरे पर: भक्त भगवान के द्वार पर खड़ा है।
  • आता हूँ: वह यह मानता है कि अब केवल भगवान ही उसकी रक्षा कर सकते हैं।

गहराई से समझें

यहां “द्वार” का प्रतीकात्मक महत्व है। यह पंक्ति यह दर्शाती है कि भक्त ने अपने सभी विकल्पों को त्याग दिया है और अब केवल भगवान की कृपा पर निर्भर है। यह भगवान के प्रति उसकी पूर्ण समर्पण की भावना को प्रकट करता है।


मुझ पर प्रभु कृपा कीजे

यह पंक्ति भक्त की याचना और भगवान की दया पर उसकी आशा को प्रकट करती है।

  • मुझ पर प्रभु कृपा: भक्त भगवान से कृपा की याचना करता है।
  • कीजे: यह आग्रह उसके गहरे प्रेम और विश्वास को दिखाता है।

गहराई से समझें

यह याचना केवल शब्दों तक सीमित नहीं है; यह भक्त की अंतरात्मा से उत्पन्न एक पुकार है। भक्त जानता है कि भगवान की कृपा से ही वह अपने पापों से मुक्ति पा सकता है और आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है।


पापों से पछताता हूँ

यह पंक्ति भक्त के भीतर चल रहे गहरे आत्मसंघर्ष और पश्चाताप को उजागर करती है।

  • पापों से: भक्त अपने द्वारा किए गए पापों को याद कर रहा है।
  • पछताता हूँ: वह अपनी गलतियों के लिए गहरा दुख और खेद प्रकट करता है।

गहराई से समझें

पछतावा केवल एक भावना नहीं है; यह आत्मा की शुद्धि की प्रक्रिया का आरंभ है। यह वह क्षण है जब भक्त अपनी गलतियों को पहचानता है और उनसे मुक्त होने की इच्छा प्रकट करता है। “पछतावा” इस बात का प्रतीक है कि भक्त अपने अंदर बदलाव लाने के लिए तैयार है। यह भगवान से माफी मांगने का पहला चरण है, जिसमें वह यह स्वीकार करता है कि उसने अपने कर्मों से खुद को और दूसरों को नुकसान पहुँचाया है।


पाप क्षमा कर दीजे मोरे

यह पंक्ति भगवान के प्रति भक्त की याचना और उसके असीम विश्वास को दर्शाती है।

  • पाप क्षमा: भक्त भगवान से अपने सभी पापों को क्षमा करने की प्रार्थना करता है।
  • कर दीजे मोरे: यह भगवान से सीधा अनुरोध है, जिसमें उनकी दया और करुणा का आह्वान किया गया है।
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गहराई से समझें

यह पंक्ति बताती है कि भक्त भगवान को अपने उद्धार का अंतिम सहारा मानता है। यह केवल बाहरी क्षमा की मांग नहीं है; यह भीतर की शुद्धि और आत्मा की शांति के लिए एक गहरी प्रार्थना है। भक्त को भरोसा है कि भगवान असीम दयालु हैं और अपने भक्तों के पापों को क्षमा करने में विलंब नहीं करते। इस पंक्ति में भगवान की करुणा और भक्त के आत्मसमर्पण का गहरा संबंध झलकता है।


मन से ये ही चाहता हूँ

यह पंक्ति भक्त की एकमात्र और सच्ची इच्छा को व्यक्त करती है।

  • मन से: इसका तात्पर्य है कि यह इच्छा गहराई से, आत्मा की गहराई से उत्पन्न हो रही है।
  • ये ही चाहता हूँ: भक्त भगवान से केवल क्षमा और आत्मिक शांति की कामना करता है।

गहराई से समझें

यहां “मन” केवल मानसिक स्थिति का प्रतीक नहीं है; यह आत्मा की आकांक्षाओं का प्रतीक है। यह पंक्ति दर्शाती है कि भक्त की सभी सांसारिक इच्छाएँ समाप्त हो चुकी हैं, और अब वह केवल भगवान की कृपा और उनके साथ आध्यात्मिक संबंध की कामना करता है। यह पंक्ति भक्त की आंतरिक यात्रा का चरम बिंदु है, जहां उसने अपनी सभी सांसारिक इच्छाओं को त्याग दिया है और परम शांति की खोज में लग गया है।


निष्कर्ष: आत्मसमर्पण की पूर्णता

इस भजन के हर शब्द में आत्मसमर्पण और भगवान की कृपा पर निर्भरता की भावना व्यक्त होती है। भक्त न केवल अपनी कमजोरियों और पापों को स्वीकार करता है, बल्कि वह यह भी मानता है कि भगवान ही उसके उद्धार का अंतिम और एकमात्र स्रोत हैं।

यह भजन हमें निम्नलिखित शिक्षाएँ प्रदान करता है:

  1. विनम्रता: अपने पापों और कमजोरियों को स्वीकार करना आत्मा की शुद्धि का पहला चरण है।
  2. पश्चाताप: सच्चा पश्चाताप केवल शब्दों में नहीं, बल्कि हृदय की गहराई से होना चाहिए।
  3. भक्ति और विश्वास: भगवान के प्रति अटूट विश्वास ही हमारी आत्मा को शांति और मुक्ति प्रदान कर सकता है।
  4. आत्मिक शुद्धि: यह भजन हमें यह सिखाता है कि सच्चा समर्पण हमें अपने भीतर के दोषों से मुक्त कर सकता है।

यह भजन एक साधक के आध्यात्मिक सफर को व्यक्त करता है, जो अपने पापों और मोह को त्यागकर भगवान की कृपा का पात्र बनना चाहता है। यह न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि आत्मिक यात्रा का गहन वर्णन है।

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