- – यह भजन माटी के पुतले (मनुष्य) की नश्वरता और अस्थिरता को दर्शाता है, जिसमें कहा गया है कि इस संसार में कोई स्थायी अपना नहीं होता।
- – सतगुरु की सीख को समझने और अपनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है, ताकि जीवन के दुखों से बचा जा सके।
- – जीवन में समय का महत्व बताया गया है, जो एक बार चला गया तो वापस नहीं आता, इसलिए समय का सदुपयोग करना चाहिए।
- – जीवन में भूख-प्यास और त्याग के बावजूद भी सांसारिक वस्तुएं स्थायी नहीं होतीं, इसलिए सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठना चाहिए।
- – खुद के लिए कुछ करने और अपनी कमाई से जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं।
- – अंत में बार-बार यह याद दिलाया गया है कि माटी के पुतले हैं हम सब, इसलिए आत्मा की ओर ध्यान देना और सांसारिक बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है।
माटी के पुतले रे,
तेरा अपना यहाँ नहीं कोय,
तेरा अपना यहाँ नहीं कोय,
सतगुरु ने कितना समझाया,
अब काहे को रोए रे,
ऐ अब काहे को रोय,
तेरा अपना यहाँ नही कोय,
माटी के पुतले रे।।
तर्ज – पिंजरे के पंछी रे।
भूखा प्यासा रह कर तू ने,
करदी न्योछावर,
ये जिन्दगानी रे,
जिसकी खातिर महल बनाया,
जिसकी खातिर महल बनाया,
वो ही न तेरा होय,
तेरा अपना यहाँ नही कोय,
माटी के पुतले रे।।
करले जो भी करना है तुझको,
समय सुहाना बिता जाए रे,
चला गया ये समय तो पगले,
चला गया ये समय तो पगले,
फिर वापस न होय,
तेरा अपना यहाँ नही कोय,
माटी के पुतले रे।।
खुद के लिए कुछ कर ले कमाई,
बीत रही तेरी जिन्दगानी रे,
कल कल में जीवन कई बीते,
कल कल में जीवन कई बीते,
कल न तेरा होय,
तेरा अपना यहाँ नही कोय,
माटी के पुतले रे।।
माटी के पुतले रे,
तेरा अपना यहाँ नहीं कोय,
तेरा अपना यहाँ नहीं कोय,
सतगुरु ने कितना समझाया,
अब काहे को रोए रे,
ऐ अब काहे को रोय,
तेरा अपना यहाँ नही कोय,
माटी के पुतले रे।।
– भजन लेखक एवं प्रेषक –
श्री शिवनारायण वर्मा,
मोबा.न.8818932923
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