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प्रज्ञानं ब्रह्म (Pragyanam Brahma) एक महत्वपूर्ण महावाक्य है जो वेदांत दर्शन में वर्णित है। यह महावाक्य अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य का शाब्दिक अर्थ है “प्रज्ञान ही ब्रह्म है।”

पूर्ण विवरण:

महावाक्य का अर्थ:

  • “प्रज्ञानं” का अर्थ है “चेतना” या “संपूर्ण ज्ञान।”
  • “ब्रह्म” का अर्थ है “सर्वव्यापक परमसत्ता” या “असीम सच्चिदानंद।”
  • इस प्रकार “प्रज्ञानं ब्रह्म” का अर्थ हुआ कि “चेतना ही ब्रह्म है” या “संपूर्ण ज्ञान ही ब्रह्म है।”

दार्शनिक महत्व:

  • वेदांत दर्शन में, “ब्रह्म” को परम सत्य, अनंत ज्ञान और अनंत आनंद के रूप में माना गया है। यह संसार की मूलभूत वास्तविकता है।
  • “प्रज्ञानं” का तात्पर्य उस चेतना से है जो ब्रह्मांड में सभी प्राणियों में विद्यमान है। यह चेतना ही वास्तविक सत्य है और यही ब्रह्म है।
  • इस महावाक्य के माध्यम से यह समझाया गया है कि ब्रह्म, जो कि परम सत्ता है, वह केवल किसी बाहरी शक्ति में नहीं है, बल्कि वह हमारी आंतरिक चेतना में निहित है।

आध्यात्मिक संदर्भ:

  • यह महावाक्य आत्मा (जीवात्मा) और परमात्मा (ब्रह्म) के अभेद को दर्शाता है। इसका तात्पर्य यह है कि हमारी चेतना ही परमात्मा के साथ एकरूप है।
  • इस ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर स्थित दिव्यता को पहचान सकता है और यह समझ सकता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं।

उपयोग:

  • इस महावाक्य का उच्चारण और चिंतन करने से व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ गहरे जुड़ाव का अनुभव कर सकता है।
  • यह अद्वैत वेदांत के सिद्धांत का प्रमुख भाग है, जो कहता है कि जीव और ब्रह्म के बीच कोई भेद नहीं है।

प्रज्ञानं ब्रह्म महावाक्य हमें इस बात का स्मरण कराता है कि चेतना या ज्ञान ही परमात्मा है और यह ज्ञान हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। इस चेतना को समझने और अनुभव करने से व्यक्ति आत्म-ज्ञान और मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है।

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