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॥ श्री सरस्वती स्तोत्रम् | वाणी स्तवनं ॥
॥ याज्ञवल्क्य उवाच ॥
कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवंहततेजसम्।
गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनंच दुःखितम्॥1॥

ज्ञानं देहि स्मृतिं देहिविद्यां देहि देवते।
प्रतिष्ठां कवितां देहिशाक्तं शिष्यप्रबोधिकाम्॥2॥

ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं चसच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम्।
प्रतिभां सत्सभायां चविचारक्षमतां शुभाम्॥3॥

लुप्तां सर्वां दैववशान्नवंकुरु पुनः पुनः।
यथाऽङ्कुरं जनयतिभगवान्योगमायया॥4॥

ब्रह्मस्वरूपा परमाज्योतिरूपा सनातनी।
सर्वविद्याधिदेवी यातस्यै वाण्यै नमो नमः॥5॥

यया विना जगत्सर्वंशश्वज्जीवन्मृतं सदा।
ज्ञानाधिदेवी या तस्यैसरस्वत्यै नमो नमः॥6॥

यया विना जगत्सर्वंमूकमुन्मत्तवत्सदा।
वागधिष्ठातृदेवी यातस्यै वाण्यै नमो नमः॥7॥

हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा।
वर्णाधिदेवी यातस्यै चाक्षरायै नमो नमः॥8॥

विसर्ग बिन्दुमात्राणांयदधिष्ठानमेव च।
इत्थं त्वं गीयसेसद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः॥9॥

यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यांकर्तुं न शक्नुते।
काल संख्यास्वरूपा यातस्यै देव्यै नमो नमः॥10॥

व्याख्यास्वरूपा या देवीव्याख्याधिष्ठातृदेवता।
भ्रमसिद्धान्तरूपा यातस्यै देव्यै नमो नमः॥11॥

स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी।
प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या चतस्यै नमो नमः॥12॥

सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानंपप्रच्छ यत्र वै।
बभूव जडवत्सोऽपिसिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥13॥

तदाऽऽजगाम भगवानात्माश्रीकृष्ण ईश्वरः।
उवाच स च तं स्तौहिवाणीमिति प्रजापते॥14॥

स च तुष्टाव तां ब्रह्माचाऽऽज्ञया परमात्मनः।
चकार तत्प्रसादेनतदा सिद्धान्तमुत्तमम्॥15॥

यदाप्यनन्तं पप्रच्छज्ञानमेकं वसुन्धरा।
बभूव मूकवत्सोऽपिसिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥16॥

तदा त्वां च स तुष्टावसन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया।
ततश्चकार सिद्धान्तंनिर्मलं भ्रमभञ्जनम्॥17॥

व्यासः पुराणसूत्रं चपप्रच्छ वाल्मिकिं यदा।
मौनीभूतः स सस्मारत्वामेव जगदम्बिकाम्॥18॥

तदा चकार सिद्धान्तंत्वद्वरेण मुनीश्वरः।
स प्राप निर्मलं ज्ञानंप्रमादध्वंसकारणम्॥19॥

पुराण सूत्रं श्रुत्वा सव्यासः कृष्णकलोद्भवः।
त्वां सिषेवे च दध्यौ तंशतवर्षं च पुष्क्करे॥20॥

तदा त्वत्तो वरं प्राप्यस कवीन्द्रो बभूव ह।
तदा वेदविभागं चपुराणानि चकार ह॥21॥

यदा महेन्द्रे पप्रच्छतत्त्वज्ञानं शिवा शिवम्।
क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्यतस्यै ज्ञानं दधौ विभुः॥22॥

पप्रच्छ शब्दशास्त्रं चमहेन्द्रस्च बृहस्पतिम्।
दिव्यं वर्षसहस्रं चस त्वां दध्यौ च पुष्करे॥23॥

तदा त्वत्तो वरं प्राप्यदिव्यं वर्षसहस्रकम्।
उवाच शब्दशास्त्रं चतदर्थं च सुरेश्वरम्॥24॥

अध्यापिताश्च यैः शिष्याःयैरधीतं मुनीश्वरैः।
ते च त्वां परिसञ्चिन्त्यप्रवर्तन्ते सुरेश्वरि॥25॥

त्वं संस्तुता पूजिताच मुनीन्द्रमनुमानवैः।
दैत्यैश्च सुरैश्चापिब्रह्मविष्णुशिवादिभिः॥26॥

जडीभूतः सहस्रास्यःपञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः।
यां स्तोतुं किमहं स्तौमितामेकास्येन मानवः॥27॥

इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्चभक्तिनम्रात्मकन्धरः।
प्रणनाम निराहारोरुरोद च मुहुर्मुहुः॥28॥

तदा ज्योतिः स्वरूपा सातेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम्।
सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वावैकुण्ठं च जगाम ह॥29॥

महामूर्खश्च दुर्मेधावर्षमेकं च यः पठेत्।
स पण्डितश्च मेधावीसुकविश्च भवेद्ध्रुवम्॥30॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे
याज्ञवल्क्योक्त वाणीस्तवनं नाम पञ्चमोऽध्यायः संपूर्णं ॥

श्री सरस्वती स्तोत्रम् | वाणी स्तवनं

याज्ञवल्क्य उवाच

यह स्तोत्र भगवान श्री याज्ञवल्क्य द्वारा रचित है, जिसमें उन्होंने माता सरस्वती से प्रार्थना की है कि वे उनकी बुद्धि को तेज करें और उन्हें ज्ञान प्रदान करें। इस स्तोत्र में 30 श्लोक हैं, जिनमें माता सरस्वती की महिमा का वर्णन और उनकी कृपा की याचना की गई है।

श्लोक 1:

कृपां कुरु जगन्मातर्मामेवंहततेजसम्। गुरुशापात्स्मृतिभ्रष्टं विद्याहीनंच दुःखितम्॥

अर्थ:
हे जगन्माता सरस्वती, मुझ पर कृपा करें। मैं अपने तेज से रहित हूँ, गुरु के श्राप के कारण मेरी स्मृति नष्ट हो गई है, मैं विद्या से वंचित हूँ और बहुत दुखी हूँ। कृपया मुझे अपने आशीर्वाद से ज्ञान और स्मृति प्रदान करें।

श्लोक 2:

ज्ञानं देहि स्मृतिं देहि विद्यां देहि देवते। प्रतिष्ठां कवितां देहि शाक्तं शिष्यप्रबोधिकाम्॥

अर्थ:
हे देवी, मुझे ज्ञान प्रदान करें, स्मृति प्रदान करें, विद्या प्रदान करें। मुझे प्रतिष्ठा दें, काव्यकला का वरदान दें, और मुझे सक्षम बनाएं कि मैं अपने शिष्यों को सही मार्ग पर ले जा सकूं।

श्लोक 3:

ग्रन्थनिर्मितिशक्तिं च सच्छिष्यं सुप्रतिष्ठितम्। प्रतिभां सत्सभायां च विचारक्षमतां शुभाम्॥

अर्थ:
मुझे ग्रंथ रचने की शक्ति दें, मुझे योग्य और प्रतिष्ठित शिष्य मिलें। मुझे सत्संग में प्रतिष्ठा प्राप्त हो, और मैं सही विचारों को प्रस्तुत करने की क्षमता रख सकूं।

श्लोक 4:

लुप्तां सर्वां दैववशान्नवं कुरु पुनः पुनः। यथाऽङ्कुरं जनयति भगवान्योगमायया॥

अर्थ:
दैविक कारणों से जो भी खो गया है, उसे आप बार-बार पुनः जागृत करें, जैसे भगवान अपनी योगमाया से नए अंकुर उत्पन्न करते हैं।

श्लोक 5:

ब्रह्मस्वरूपा परमाज्योतिरूपा सनातनी। सर्वविद्याधिदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः॥

अर्थ:
माता सरस्वती ब्रह्मस्वरूपिणी, परम ज्योति रूपा और सनातनी हैं। वे सभी विद्याओं की अधिष्ठात्री देवी हैं, मैं उन वाणी स्वरूपा देवी को नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 6:

यया विना जगत्सर्वं शश्वज्जीवन्मृतं सदा। ज्ञानाधिदेवी या तस्यै सरस्वत्यै नमो नमः॥

अर्थ:
जिसके बिना यह समस्त संसार सदा मृतप्राय हो जाता है, वह ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हैं। मैं उन देवी को बारंबार प्रणाम करता हूँ।

श्लोक 7:

यया विना जगत्सर्वं मूकमुन्मत्तवत्सदा। वागधिष्ठातृदेवी या तस्यै वाण्यै नमो नमः॥

अर्थ:
जिसके बिना यह संसार मूक (बोलने में असमर्थ) और पागल जैसा हो जाता है, वह वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। मैं उन वाणी स्वरूपा देवी को नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 8:

हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभा। वर्णाधिदेवी या तस्यै चाक्षरायै नमो नमः॥

अर्थ:
जो हिम, चंदन, कुंद पुष्प, चंद्रमा, कुमुद और कमल की भांति धवल हैं, वह वर्णों की अधिष्ठात्री देवी हैं। मैं उन अक्षर स्वरूपा देवी को नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 9:

विसर्ग बिन्दुमात्राणां यदधिष्ठानमेव च। इत्थं त्वं गीयसे सद्भिर्भारत्यै ते नमो नमः॥

अर्थ:
जो विसर्ग और बिंदु मात्राओं की अधिष्ठात्री हैं, जिनकी महिमा सभी विद्वानों द्वारा गाई जाती है, उन देवी भारती को मेरा नमस्कार।

श्लोक 10:

यया विनाऽत्र संख्याकृत्संख्यां कर्तुं न शक्नुते। काल संख्यास्वरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः॥

अर्थ:
जिसके बिना कोई भी गणना नहीं कर सकता, वह देवी काल की संख्यास्वरूपा हैं। मैं उन देवी को नमस्कार करता हूँ।

श्लोक 11:

व्याख्यास्वरूपा या देवी व्याख्याधिष्ठातृदेवता। भ्रमसिद्धान्तरूपा या तस्यै देव्यै नमो नमः॥

अर्थ:
जो देवी व्याख्या की अधिष्ठात्री हैं और भ्रम के सिद्धांतों का निवारण करती हैं, मैं उन देवी को प्रणाम करता हूँ।

श्लोक 12:

स्मृतिशक्तिर्ज्ञानशक्तिर्बुद्धिशक्तिस्वरूपिणी। प्रतिभाकल्पनाशक्तिर्या च तस्यै नमो नमः॥

अर्थ:
जो देवी स्मृति, ज्ञान और बुद्धि की शक्ति स्वरूपा हैं, और जिनके पास कल्पना एवं प्रतिभा की शक्ति है, मैं उन देवी को नमन करता हूँ।

श्लोक 13:

सनत्कुमारो ब्रह्माणं ज्ञानं पप्रच्छ यत्र वै। बभूव जडवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥

अर्थ:
एक बार सनत्कुमार ने ब्रह्माजी से ज्ञान की याचना की, किन्तु वे जड़वत् हो गए और सिद्धांत का निर्माण करने में असमर्थ रहे।

श्लोक 14:

तदाऽऽजगाम भगवानात्मा श्रीकृष्ण ईश्वरः। उवाच स च तं स्तौहि वाणीमिति प्रजापते॥

अर्थ:
तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ प्रकट हुए और उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा से कहा कि वे माता वाणी (सरस्वती) की स्तुति करें।

श्लोक 15:

स च तुष्टाव तां ब्रह्मा चाऽऽज्ञया परमात्मनः। चकार तत्प्रसादेन तदा सिद्धान्तमुत्तमम्॥

अर्थ:
ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से माता सरस्वती की स्तुति की, और उनकी कृपा से उन्होंने महान सिद्धांत की रचना की।

श्लोक 16:

यदाप्यनन्तं पप्रच्छ ज्ञानमेकं वसुन्धरा। बभूव मूकवत्सोऽपि सिद्धान्तं कर्तुमक्षमः॥

अर्थ:
जब वसुंधरा (पृथ्वी) ने अनंत ज्ञान की याचना की, तब वे भी मूकवत् हो गईं और सिद्धांत का निर्माण करने में असमर्थ रहीं।

श्लोक 17:

तदा त्वां च स तुष्टाव सन्त्रस्तः कश्यपाज्ञया। ततश्चकार सिद्धान्तं निर्मलं भ्रमभञ्जनम्॥

अर्थ:
तब कश्यप की आज्ञा से उन्होंने माता सरस्वती की स्तुति की, और उनकी कृपा से उन्होंने भ्रम का निवारण करने वाला निर्मल सिद्धांत रचा।

श्लोक 18:

व्यासः पुराणसूत्रं च पप्रच्छ वाल्मिकिं यदा। मौनीभूतः स सस्मार त्वामेव जगदम्बिकाम्॥

अर्थ:
जब महर्षि वाल्मीकि ने व्यासजी से पुराणों के सूत्र के बारे में प्रश्न किया, तब वे मौन हो गए और जगदम्बा सरस्वती का ध्यान करने लगे।

श्लोक 19:

तदा चकार सिद्धान्तं त्वद्वरेण मुनीश्वरः। स प्राप निर्मलं ज्ञानं प्रमादध्वंसकारणम्॥

अर्थ:
फिर मुनीश्वर (वाल्मीकि) ने आपके वरदान से सिद्धांत की रचना की, और उन्हें निर्मल ज्ञान प्राप्त हुआ, जो प्रमाद का विनाशक था।

श्लोक 20:

पुराण सूत्रं श्रुत्वा स व्यासः कृष्णकलोद्भवः। त्वां सिषेवे च दध्यौ तं शतवर्षं च पुष्क्करे॥

अर्थ:
व्यासजी ने पुराण सूत्र सुनने के बाद, आपकी सेवा की और शतवर्षों तक पुष्कर में ध्यान किया।

श्लोक 21:

तदा त्वत्तो वरं प्राप्य स कवीन्द्रो बभूव ह। तदा वेदविभागं च पुराणानि चकार ह॥

अर्थ:
फिर आपकी कृपा से व्यासजी महान कवि बने और उन्होंने वेदों का विभाजन किया तथा पुराणों की रचना की।

श्लोक 22:

यदा महेन्द्रे पप्रच्छ तत्त्वज्ञानं शिवा शिवम्। क्षणं त्वामेव सञ्चिन्त्य तस्यै ज्ञानं दधौ विभुः॥

अर्थ:
जब महेन्द्र ने शिवजी से तत्त्व ज्ञान के बारे में प्रश्न किया, तब उन्होंने क्षणभर के लिए आपका ध्यान किया और उन्हें ज्ञान प्रदान किया।

श्लोक 23:

पप्रच्छ शब्दशास्त्रं च महेन्द्रस्च बृहस्पतिम्। दिव्यं वर्षसहस्रं च स त्वां दध्यौ च पुष्करे॥

अर्थ:
महेन्द्र ने बृहस्पति से शब्दशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रश्न किया और उन्होंने दिव्य हजार वर्षों तक पुष्कर में आपका ध्यान किया।

श्लोक 24:

तदा त्वत्तो वरं प्राप्य दिव्यं वर्षसहस्रकम्। उवाच शब्दशास्त्रं च तदर्थं च सुरेश्वरम्॥

अर्थ:
फिर उन्होंने आपकी कृपा से दिव्य हजार वर्षों का वरदान प्राप्त किया और शब्दशास्त्र एवं उसका अर्थ महेन्द्र को बताया।

श्लोक 25:

अध्यापिताश्च यैः शिष्याः यैरधीतं मुनीश्वरैः। ते च त्वां परिसञ्चिन्त्य प्रवर्तन्ते सुरेश्वरि॥

अर्थ:
जिन शिष्यों को जिन मुनीश्वरों ने पढ़ाया, वे सभी पहले आपका ध्यान करके विद्या में प्रवृत्त हुए।

श्लोक 26:

त्वं संस्तुता पूजिता च मुनीन्द्रमनुमानवैः। दैत्यैश्च सुरैश्चापि ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः॥

अर्थ:
आपकी स्तुति और पूजा मुनियों, मनुष्यों, दैत्यों, देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी द्वारा की गई है।

श्लोक 27:

जडीभूतः सहस्रास्यः पञ्चवक्त्रश्चतुर्मुखः। यां स्तोतुं किमहं स्तौमि तामेकास्येन मानवः॥

अर्थ:
हजार मुखों वाले शेषनाग, पाँच मुखों वाले शिवजी, और चार मुखों वाले ब्रह्माजी भी आपकी स्तुति में असमर्थ हैं, तो मैं एक मुख वाला मानव कैसे आपकी स्तुति कर सकता हूँ?

श्लोक 28:

इत्युक्त्वा याज्ञवल्क्यश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः। प्रणनाम निराहारो रुरोद च मुहुर्मुहुः॥

अर्थ:
यह कहकर याज्ञवल्क्यजी, जिनका मन भक्ति से नम्र था, ने प्रणाम किया और बिना आहार लिए बार-बार रोने लगे।

श्लोक 29:

तदा ज्योतिः स्वरूपा सा तेनाऽदृष्टाऽप्युवाच तम्। सुकवीन्द्रो भवेत्युक्त्वा वैकुण्ठं च जगाम ह॥

अर्थ:
तब ज्योति स्वरूपा सरस्वतीजी ने याज्ञवल्क्य से कहा कि वे एक महान कवि बनेंगे, यह कहकर वे वैकुण्ठ धाम चली गईं।

श्लोक 30:

महामूर्खश्च दुर्मेधाः वर्षमेकं च यः पठेत्। स पण्डितश्च मेधावी सुकविश्च भवेद्ध्रुवम्॥

अर्थ:
जो कोई मूर्ख और कमजोर बुद्धि वाला व्यक्ति भी इस स्तोत्र को एक वर्ष तक पाठ करता है, वह विद्वान, मेधावी और महान कवि बन जाता है, यह निश्चित है।


समाप्ति

यह श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृति खण्ड में नारद-नारायण संवाद के अंतर्गत याज्ञवल्क्य द्वारा रचित वाणी स्तवन का पांचवां अध्याय है।


यह स्तोत्र अत्यंत ही शक्तिशाली और ज्ञानवर्धक है, जो विद्या, स्मृति और बुद्धि प्रदान करने में सक्षम है। यह स्तोत्र माता सरस्वती की महिमा और उनके आशीर्वाद का बखान करता है, जो ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक साधकों के लिए अत्यंत लाभकारी है।

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