अर्गला स्तोत्रम् in Hindi/Sanskrit
॥ अथार्गलास्तोत्रम् ॥
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतयेसप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥1॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥2॥
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥
अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23॥
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥24॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥25॥
Argala Stotram in English
॥ Atharargalastotram ॥
Om asya Śrīargalastotramantrasya Viṣṇurṛṣiḥ, Anuṣṭup Chandaḥ,
Śrīmahālakṣmīrdevatā, Śrījagadambāprītaye Saptashatīpāṭhāṅgatvena jape viniyogaḥ॥
Om namaścaṇḍikāyai॥
Mārkaṇḍeya uvāca
Om Jayantī Maṅgalā Kālī Bhadrakālī Kapālinī।
Durgā Kṣamā Śivā Dhātrī Svāhā Svadhā namo’stu te॥1॥
Jaya tvaṃ devi Cāmuṇḍe jaya bhūtārtihāriṇi।
Jaya sarvagate devi Kālarātri namo’stu te॥2॥
Madhukaiṭabhavidrāvi Vidhātṛvarade namaḥ।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥3॥
Mahiṣāsuranirṇāśi Bhaktānāṃ sukhade namaḥ।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥4॥
Raktabījavadhe devi Caṇḍamuṇḍavināśini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥5॥
Śumbhasyaiva niśumbhasya Dhūmrākṣasya ca mardini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥6॥
Vanditāṅghriyuge devi Sarvasaubhāgyadāyini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥7॥
Acintyārūpacarite Sarvaśatruvināśini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥8॥
Natebhyaḥ sarvadā bhaktyā Caṇḍike duritāpahe।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥9॥
Stuvadbhyo bhaktipūrvaṃ tvāṃ Caṇḍike vyādhināśini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥10॥
Caṇḍike satataṃ ye tvām Arcayantīha bhaktitaḥ।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥11॥
Dehi saubhāgyamārogyaṃ Dehi me paramaṃ sukham।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥12॥
Vidhehi dviṣatāṃ nāśaṃ Vidhehi balamuccakaiḥ।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥13॥
Vidhehi devi kalyāṇaṃ Vidhehi paramāṃ śriyam।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥14॥
Surāsuraśiroratnanighṛṣṭacaraṇe’mbike।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥15॥
Vidyāvantaṃ yaśasvantaṃ Lakṣmīvantaṃ janaṃ kuru।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥16॥
Prachandadaityadarpaghne Caṇḍike praṇatāya me।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥17॥
Caturbhuje caturvaktra Saṃstute Parameśvari।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥18॥
Kṛṣṇena saṃstute devi Śaśvadbhaktyā sadāmbike।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥19॥
Himācalasutānātha Saṃstute Parameśvari।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥20॥
Indrāṇīpatisadbhāva Pūjite Parameśvari।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥21॥
Devi prachandadordaṇḍa Daityadarpa vināśini।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥22॥
Devi bhaktajanoddāma Dattānandodaye’mbike।
Rūpaṃ dehi jayaṃ dehi yaśo dehi dviṣo jahi॥23॥
Patnīṃ manoramāṃ dehi Manovṛttānusāriṇīm।
Tāriṇīṃ durgasansāra sāgarasya kulodbhavām॥24॥
Idaṃ stotraṃ paṭhitvā tu Mahāstotraṃ paṭhennaraḥ।
Sa tu Saptashatīsaṃkhyāvaramāpnoti sampadām॥25॥
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अर्गला स्तोत्रम् का अर्थ
अर्गलास्तोत्रम् देवी महात्म्य का एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जो देवी दुर्गा की स्तुति और उपासना के लिए प्रसिद्ध है। इसे सप्तशती के पाठ के एक अंग के रूप में भी पढ़ा जाता है। यह स्तोत्र मार्कण्डेय पुराण में मिलता है और इसमें देवी चण्डिका की स्तुति की गई है, जो हमें दुश्मनों से रक्षा करती हैं, हमें शक्ति, विजय और यश प्रदान करती हैं।
मन्त्र, छन्द और देवता:
इस स्तोत्र के अनुसार:
- ऋषि: विष्णु
- छन्द: अनुष्टुप
- देवता: श्री महालक्ष्मी
- विनियोग: यह पाठ सप्तशती के अंग के रूप में जप के लिए उपयुक्त है। इसका उद्देश्य जगदम्बा की कृपा प्राप्त करना है।
ओम् नमश्चण्डिकायै
यह स्तोत्र चण्डिका देवी को समर्पित है, जो शक्ति और साहस की देवी हैं। चण्डिका के माध्यम से भक्त अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
मार्कण्डेय ऋषि इस स्तोत्र में देवी चण्डिका की स्तुति कर रहे हैं। इस स्तोत्र का एक-एक श्लोक देवी की महानता और शक्ति की प्रशंसा करता है।
ओम् जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥1॥
इस श्लोक में देवी के विभिन्न रूपों की स्तुति की गई है। देवी के ये रूप जैसे कि काली, दुर्गा, शिवा, भद्रकाली, आदि उनके अलग-अलग पहलुओं को दर्शाते हैं।
- जयन्ती: विजय की देवी।
- मङ्गला: मंगल करने वाली।
- काली: समय की विनाशक।
- दुर्गा: संकटों से मुक्ति दिलाने वाली।
- क्षमा: क्षमाशीलता की देवी।
- शिवा: शुभता की दात्री।
इन नामों के माध्यम से देवी की महानता को स्पष्ट किया गया है कि वे संसार की सभी समस्याओं का निवारण करती हैं और अपने भक्तों की रक्षा करती हैं।
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥2॥
इस श्लोक में देवी चामुण्डा की जय-जयकार की जा रही है। चामुण्डा देवी ने राक्षसों का विनाश कर संसार को संकटों से मुक्त किया था।
- चामुण्डा: राक्षस चण्ड और मुण्ड को नाश करने वाली।
- कालरात्रि: रात की देवी, जो समय का नाश करती हैं।
- भूतार्तिहारिणि: भूत, प्रेत और अन्य नकारात्मक शक्तियों से रक्षा करने वाली देवी।
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3॥
यह श्लोक मधु और कैटभ नामक दैत्यों के विनाश के लिए देवी की स्तुति करता है। इस श्लोक में भक्त देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करते हैं।
- मधु और कैटभ: ये दो दैत्य थे जिन्हें देवी ने अपने वीर स्वरूप में मारा।
- विधातृवरदे: देवी को संसार की सृष्टि करने वाला आशीर्वाद देने वाली कहा गया है।
देवी से आशीर्वाद के रूप में यश, शक्ति और शत्रुओं के नाश की माँग की जाती है।
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥
महिषासुर के विनाश की स्तुति इस श्लोक में की गई है। महिषासुर एक भयंकर राक्षस था जिसे देवी ने नष्ट किया था।
- महिषासुरनिर्णाशि: महिषासुर का विनाश करने वाली देवी।
- भक्तानां सुखदे: अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाली देवी।
यह श्लोक देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करता है, जिससे भक्तों का जीवन सुखी और समृद्ध हो सके।
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥
इस श्लोक में देवी की स्तुति की गई है जिन्होंने रक्तबीज और चण्ड-मुण्ड नामक राक्षसों का संहार किया।
- रक्तबीज: एक ऐसा राक्षस जिसके खून की हर बूँद से एक नया राक्षस उत्पन्न होता था।
- चण्ड और मुण्ड: ये दोनों राक्षस देवी के भक्तों के लिए संकट उत्पन्न करते थे और देवी ने उन्हें मारकर अपने भक्तों की रक्षा की।
इस श्लोक में भक्त देवी से यश, विजय और शक्ति की प्रार्थना करते हैं ताकि वे अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकें।
इस श्लोक का भाव:
- रूपं देहि: सुंदरता और आंतरिक शक्ति की प्राप्ति।
- जयं देहि: विजय की प्राप्ति।
- यशो देहि: समाज में मान-सम्मान की प्राप्ति।
- द्विषो जहि: शत्रुओं का नाश।
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥
इस श्लोक में शुम्भ, निशुम्भ और धूम्राक्ष नामक राक्षसों के विनाश की स्तुति की गई है।
- शुम्भ और निशुम्भ: ये दोनों भाई और अत्याचारी दैत्य थे जिन्होंने देवी के भक्तों को बहुत परेशान किया था।
- धूम्राक्ष: एक और भयंकर राक्षस जिसे देवी ने पराजित किया।
इस श्लोक में भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है।
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥
इस श्लोक में देवी के चरणों की वंदना की गई है जो सभी प्रकार के सौभाग्य और समृद्धि की दात्री हैं।
इसमें भक्त देवी से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें सुंदरता, विजय, यश और शत्रुओं से मुक्ति प्रदान करें।
अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥
इस श्लोक में देवी की अचिन्त्य (यानि अकल्पनीय) रूप और चरित्र की स्तुति की गई है। देवी का स्वरूप इतना महान है कि उसे सोच पाना या उसे समझ पाना कठिन है।
- अचिन्त्यरुपचरिते: देवी के चरित्र और रूप का वर्णन करना मुमकिन नहीं है, क्योंकि वह मानव बुद्धि से परे है।
- सर्वशत्रुविनाशिनि: देवी वह हैं जो समस्त शत्रुओं का विनाश करती हैं।
यहां भी भक्त देवी से प्रार्थना करते हैं कि वे रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश का वरदान प्रदान करें ताकि उनके जीवन में शांति और समृद्धि बनी रहे।
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥
इस श्लोक में यह कहा गया है कि जो भी भक्त चण्डिका देवी की भक्ति और सच्ची श्रद्धा से नमन करते हैं, वे उनके जीवन के सभी कष्टों और विपत्तियों को दूर कर देती हैं।
- दुरितापहा: देवी उन भक्तों के सभी संकटों और परेशानियों को हरने वाली हैं, जो उन्हें निरंतर श्रद्धा और प्रेम से पूजते हैं।
देवी से यही विनती की जाती है कि वे अपने भक्तों को सुंदरता, विजय, यश और शत्रुओं से मुक्ति प्रदान करें।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10॥
इस श्लोक में देवी से प्रार्थना की जाती है कि जो भक्त उनकी भक्ति और श्रद्धा के साथ स्तुति करते हैं, उनके सभी रोग और व्याधियाँ नष्ट हो जाएं।
- व्याधिनाशिनि: देवी वह हैं जो सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों का नाश करती हैं।
यहां भी देवी से सुंदरता, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है ताकि जीवन में खुशहाली आ सके।
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥
जो लोग लगातार चण्डिका देवी की भक्ति करते हैं, उन्हें जीवन में सभी प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। इस श्लोक में भक्तों की नियमित उपासना का महत्व बताया गया है।
- सततं अर्चयन्तीह भक्तितः: जो व्यक्ति सतत भक्ति और श्रद्धा से देवी की पूजा करते हैं, उनके जीवन में सुख-समृद्धि आती है।
इस श्लोक में भी देवी से सुंदरता, विजय, यश और शत्रुओं से मुक्ति की प्रार्थना की गई है।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥
इस श्लोक में भक्त देवी से सौभाग्य (समृद्धि), आरोग्य (स्वास्थ्य) और परम सुख की कामना कर रहे हैं।
- सौभाग्यमारोग्यं: देवी अपने भक्तों को अच्छा स्वास्थ्य और जीवन में सौभाग्य प्रदान करती हैं।
- परमं सुखम्: जीवन में परम आनंद और सुख की प्राप्ति होती है।
इस श्लोक में भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं से छुटकारा पाने की प्रार्थना की गई है।
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13॥
इस श्लोक में भक्त देवी से शत्रुओं के नाश और शक्ति की प्राप्ति की कामना करते हैं।
- द्विषतां नाशं: शत्रुओं का नाश करने की प्रार्थना।
- बलमुच्चकैः: देवी से प्रार्थना की जाती है कि वे हमें अत्यधिक बल और शक्ति प्रदान करें।
यह श्लोक फिर से देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करता है ताकि भक्त शक्ति और विजय प्राप्त कर सकें।
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥
यहां देवी से कल्याण और उच्चतम समृद्धि की कामना की गई है।
- कल्याणं: देवी सभी प्रकार का कल्याण करती हैं और जीवन को शुभ बनाती हैं।
- परमां श्रियम्: देवी से उच्चतम समृद्धि की प्रार्थना की जाती है।
जैसा कि पहले श्लोकों में देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई थी, उसी प्रकार यह श्लोक भी भक्त की समृद्धि और कल्याण की कामना करता है।
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥
यह श्लोक देवी के चरणों की वंदना करता है, जिन्हें देवताओं और असुरों दोनों ने नमन किया।
- सुरासुरशिरोरत्न: देवी के चरणों में देवताओं और असुरों ने अपने शीश झुकाए हैं।
- निघृष्टचरणे: देवी के चरणों को समर्पण करते हुए उनकी कृपा की प्रार्थना की जाती है।
इस श्लोक में भी भक्त देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं से छुटकारा पाने की प्रार्थना करते हैं।
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥
इस श्लोक में देवी से प्रार्थना की जाती है कि वे अपने भक्तों को विद्या, यश और लक्ष्मी (धन-संपत्ति) प्रदान करें।
- विद्यावन्तं: देवी से प्रार्थना की जाती है कि वे हमें विद्या से संपन्न करें।
- यशस्वन्तं: समाज में यश और मान-सम्मान प्रदान करें।
- लक्ष्मीवन्तं: जीवन में लक्ष्मी (धन और संपत्ति) का आगमन हो।
इस श्लोक में भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है, ताकि जीवन सुखमय और समृद्ध हो।
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥
इस श्लोक में देवी चण्डिका से प्रार्थना की जा रही है कि वे प्रचंड दैत्यों के दर्प (अहंकार) का विनाश करें।
- प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने: दैत्यों के अहंकार और गर्व को नष्ट करने वाली देवी।
- प्रणताय मे: भक्त यहां देवी के चरणों में प्रणाम कर रहे हैं और उनके सामने समर्पण कर रहे हैं।
भक्त यहां देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना कर रहे हैं, ताकि जीवन में शांति और संतोष बना रहे।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥
इस श्लोक में देवी की चतुर्भुजी (चार भुजाओं वाली) और चतुर्मुखी (चार मुखों वाली) स्तुति की गई है।
- चतुर्भुजे: चार भुजाओं वाली देवी, जो शक्ति और संतुलन का प्रतीक हैं।
- चतुर्वक्त्रसंस्तुते: देवी के चार मुखों का वर्णन है, जो चार दिशाओं में उनकी कृपा का विस्तार करते हैं।
यह श्लोक देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करता है, ताकि भक्त जीवन में शक्ति और संतोष प्राप्त कर सकें।
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा देवी की स्तुति की गई है। कृष्ण स्वयं देवी के महान भक्त थे और सदैव उनकी भक्ति में लीन रहते थे।
- कृष्णेन संस्तुते: भगवान कृष्ण स्वयं देवी की स्तुति करते हैं।
- शश्वद्भक्त्या: यह स्तुति सदा के लिए भक्तिपूर्ण भावना से की जाती है।
यह श्लोक भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करता है ताकि जीवन में शांति और सुख बना रहे।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥
इस श्लोक में देवी को हिमालय की पुत्री के रूप में वर्णित किया गया है। हिमालय पर्वत का यह संबंध देवी की महानता और शक्ति को और भी उजागर करता है।
- हिमाचलसुतानाथ: हिमालय पर्वत की पुत्री और उनकी संतान का गौरव।
यहां भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है, ताकि भक्त जीवन में शक्ति और सफलता प्राप्त कर सकें।
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥
इस श्लोक में इन्द्राणी (इन्द्र की पत्नी) द्वारा देवी की पूजा का उल्लेख किया गया है। इन्द्राणी स्वयं देवी की महान भक्त हैं और उनके पतिव्रत धर्म के तहत देवी की आराधना करती हैं।
- इन्द्राणीपतिसद्भाव: इन्द्र की पत्नी द्वारा देवी की सच्ची भक्ति और सम्मान के साथ पूजा की जाती है।
भक्त यहां भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना कर रहे हैं ताकि जीवन में समृद्धि और सफलता बनी रहे।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥
इस श्लोक में देवी से प्रार्थना की जाती है कि वे अपने प्रचंड भुजाओं से दैत्यों के गर्व और अहंकार का नाश करें।
- प्रचण्डदोर्दण्ड: देवी की बलवान भुजाओं से दैत्यों का विनाश होता है।
- दैत्यदर्पविनाशिनि: दैत्यों के गर्व और अहंकार का नाश करने वाली देवी।
इस श्लोक में भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है ताकि भक्त जीवन में उन्नति और समृद्धि प्राप्त कर सकें।
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23॥
इस श्लोक में देवी की स्तुति की जा रही है जो अपने भक्तों को अद्वितीय आनंद और प्रसन्नता प्रदान करती हैं।
- भक्तजनोद्दाम: भक्तों के लिए देवी सदा समर्पित रहती हैं और उन्हें आनंद का अनुभव कराती हैं।
यह श्लोक भी देवी से रूप, विजय, यश और शत्रुओं के नाश की प्रार्थना करता है ताकि भक्त हमेशा प्रसन्न और समृद्ध रहें।
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥24॥
इस श्लोक में भक्त देवी से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे उन्हें एक उपयुक्त जीवनसंगिनी प्रदान करें जो उनकी इच्छाओं और जीवन की दिशा में उनका साथ दे।
- पत्नीं मनोरमां: देवी से अनुरोध किया गया है कि वे उन्हें एक सुशील और मनोरम पत्नी प्रदान करें।
- तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य: जो संसार रूपी दुर्गम सागर को पार कराने वाली हो।
यह श्लोक देवी से प्रार्थना करता है कि भक्त के जीवन में सच्चे साथी का आशीर्वाद प्राप्त हो और वे संसार के संकटों से सुरक्षित रहें।
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥25॥
यह श्लोक यह कहता है कि जो कोई भी इस स्तोत्र का पाठ करता है और फिर महास्तोत्र का पाठ करता है, वह सप्तशती के संपूर्ण फल प्राप्त करता है।
- सप्तशतीसंख्याव: देवी के इस पाठ का बड़ा महत्व है, और इसे नियमित पढ़ने से अनगिनत सम्पत्ति और समृद्धि प्राप्त होती है।
इस श्लोक में पाठ के फल और महत्व को बताया गया है कि जो इसे पूरे मन से करता है, उसे सभी प्रकार की समृद्धि और सफलता प्राप्त होती है।
अर्गलास्तोत्रम् का आध्यात्मिक महत्व
अर्गलास्तोत्रम् का पाठ करने का मुख्य उद्देश्य भक्तों को जीवन के सभी कष्टों और बाधाओं से मुक्त करना है। इसे देवी महात्म्य का एक अभिन्न अंग माना जाता है, और देवी दुर्गा की पूजा के दौरान इसका विशेष पाठ किया जाता है।
- शत्रुनाश: इस स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में देवी से शत्रुओं के नाश की प्रार्थना की गई है। शत्रु केवल बाहरी व्यक्ति नहीं होते, बल्कि हमारे आंतरिक शत्रु जैसे कि क्रोध, मोह, अहंकार, और अज्ञान भी हो सकते हैं। इस स्तोत्र का पाठ इन आंतरिक दुश्मनों को नष्ट करने में मदद करता है।
- विजय और यश: देवी से विजय और यश की कामना इस स्तोत्र में बार-बार की जाती है। यह सिर्फ सांसारिक विजय और यश की बात नहीं करता, बल्कि यह आध्यात्मिक उन्नति और समाज में मान-सम्मान की प्राप्ति की ओर भी इंगित करता है।
अर्गलास्तोत्रम् के पाठ का लाभ
- मन की शांति और स्थिरता: इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से मन में शांति और स्थिरता प्राप्त होती है। जब व्यक्ति देवी के चरणों में आत्मसमर्पण करता है, तो उसे मानसिक शांति का अनुभव होता है और जीवन की चुनौतियाँ छोटी लगने लगती हैं।
- आध्यात्मिक उन्नति: अर्गलास्तोत्रम् का पाठ करने से व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है। यह स्तोत्र हमें हमारी आत्मा की शक्ति और शक्ति स्रोत देवी से जोड़ता है, जिससे हम अपने जीवन के उद्देश्य को समझने में सक्षम होते हैं।
- संकटों से मुक्ति: इस स्तोत्र में देवी को संकट हरने वाली कहा गया है। भक्त विश्वास रखते हैं कि इसका पाठ करने से उनके जीवन के सभी संकट और परेशानियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं।
- स्वास्थ्य और समृद्धि: कई श्लोकों में देवी से स्वास्थ्य (आरोग्य) और समृद्धि (सौभाग्य) की प्रार्थना की गई है। भक्त मानते हैं कि देवी की कृपा से उनके जीवन में धन, संपत्ति और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।
- सौंदर्य और आत्मबल: “रूपं देहि” का अर्थ है सुंदरता और आत्मबल की प्राप्ति। इसका अर्थ बाहरी सुंदरता के साथ-साथ आंतरिक सौंदर्य और आत्मविश्वास की प्राप्ति भी है, जो व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाता है।
- सकारात्मक ऊर्जा: इस स्तोत्र का नियमित पाठ जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाता है। यह जीवन में आने वाली सभी नकारात्मकताओं को दूर करता है और भक्त को सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है।
अर्गलास्तोत्रम् का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व
भारत में कई धार्मिक ग्रंथों और स्तोत्रों की तरह, अर्गलास्तोत्रम् का भी धार्मिक महत्व है। इसे शक्ति उपासना का एक प्रमुख अंग माना जाता है। देवी दुर्गा की पूजा के दौरान नवरात्रि में इस स्तोत्र का विशेष पाठ किया जाता है। इसके पाठ से भक्त देवी की कृपा प्राप्त करते हैं और उन्हें जीवन में हर क्षेत्र में सफलता मिलती है।
अर्गलास्तोत्रम् का पाठ कैसे करें?
इस स्तोत्र का पाठ करने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
- शुद्धता और ध्यान: इस स्तोत्र का पाठ करते समय मन को शुद्ध और शांत रखना चाहिए। देवी के चरणों में ध्यान लगाकर उनका आह्वान करना चाहिए।
- नवरात्रि में विशेष महत्व: नवरात्रि के दिनों में इस स्तोत्र का पाठ विशेष फलदायी माना जाता है। भक्त इस दौरान देवी की उपासना करके उन्हें प्रसन्न करते हैं और उनके आशीर्वाद की प्राप्ति करते हैं।
- सप्तशती के साथ पाठ: जैसा कि प्रारंभ में बताया गया है, इस स्तोत्र का जप सप्तशती के पाठ का एक अंग है। इसलिए, इसे सप्तशती के साथ मिलाकर जप करने से अधिक फल मिलता है।
- संकल्प और आस्था: स्तोत्र का पाठ करते समय दिल में सच्ची आस्था और विश्वास होना चाहिए। देवी चण्डिका अपने सच्चे भक्तों पर कृपा बरसाती हैं और उन्हें जीवन की हर समस्या से मुक्त करती हैं।
अर्गलास्तोत्रम् का रहस्य
अर्गलास्तोत्रम् के प्रत्येक श्लोक में देवी की असीम शक्ति का वर्णन किया गया है। यह स्तोत्र केवल स्तुति नहीं है, बल्कि यह भक्त के लिए एक मार्गदर्शन है कि कैसे वह जीवन की कठिनाइयों का सामना कर सकता है। देवी की स्तुति करते समय भक्त स्वयं को उनके समर्पण में पूर्णतः अर्पित करता है और यही समर्पण उसे शक्ति और साहस प्रदान करता है।
- रुपं देहि जयं देहि: यह बार-बार की जाने वाली प्रार्थना इस बात का प्रतीक है कि देवी से भक्त आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की सुंदरता और विजय की कामना कर रहे हैं। यह विजय केवल शत्रुओं पर ही नहीं, बल्कि जीवन की चुनौतियों और कठिनाइयों पर भी होती है।
- यशो देहि: यह यश की कामना सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा से जुड़ी है। भक्त देवी से यह प्रार्थना करते हैं कि उनके जीवन में समाज में उन्हें मान-सम्मान मिले और उनकी प्रतिष्ठा बनी रहे।
- द्विषो जहि: यह शत्रुओं का नाश करने की प्रार्थना इस बात की ओर इशारा करती है कि देवी हमारे जीवन के सभी प्रकार के नकारात्मक तत्वों को समाप्त करती हैं।