॥ दोहा ॥
श्री गुरु चरण सरोज छवि,निज मन मन्दिर धारि।
सुमरि गजानन शारदा,गहि आशिष त्रिपुरारि॥
बुद्धिहीन जन जानिये,अवगुणों का भण्डार।
बरणों परशुराम सुयश,निज मति के अनुसार॥
॥ चौपाई ॥
जय प्रभु परशुराम सुख सागर।जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर॥
भृगुकुल मुकुट विकट रणधीरा।क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा॥
जमदग्नी सुत रेणुका जाया।तेज प्रताप सकल जग छाया॥
मास बैसाख सित पच्छ उदारा।तृतीया पुनर्वसु मनुहारा॥
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा।तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा॥
तब ऋषि कुटीर रूदन शिशु कीन्हा।रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा॥
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े।मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े॥
तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा।जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा॥
धरा राम शिशु पावन नामा।नाम जपत जग लह विश्रामा॥
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर।कांधे मुंज जनेऊ मनहर॥
मंजु मेखला कटि मृगछाला।रूद्र माला बर वक्ष विशाला॥
पीत बसन सुन्दर तनु सोहें।कंध तुणीर धनुष मन मोहें॥
वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता।क्रोध रूप तुम जग विख्याता॥
दायें हाथ श्रीपरशु उठावा।वेद-संहिता बायें सुहावा॥
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा।शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा॥
भुवन चारिदस अरु नवखंडा।चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा॥
एक बार गणपति के संगा।जूझे भृगुकुल कमल पतंगा॥
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा।एक दंत गणपति भयो नामा॥
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला।सहस्रबाहु दुर्जन विकराला॥
सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं।रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं॥
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई।भयो पराजित जगत हंसाई॥
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी।रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी॥
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना।तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा॥
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता।मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता॥
पितु-बध मातु-रूदन सुनि भारा।भा अति क्रोध मन शोक अपारा॥
कर गहि तीक्षण परशु कराला।दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला॥
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा।पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा॥
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी।छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी॥
जुग त्रेता कर चरित सुहाई।शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई॥
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना।तब समूल नाश ताहि ठाना॥
कर जोरि तब राम रघुराई।बिनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई॥
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता।भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता॥
शास्त्र विद्या देह सुयश कमावा।गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा॥
चारों युग तव महिमा गाई।सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई॥
दे कश्यप सों संपदा भाई।तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई॥
अब लौं लीन समाधि नाथा।सकल लोक नावइ नित माथा॥
चारों वर्ण एक सम जाना।समदर्शी प्रभु तुम भगवाना॥
ललहिं चारि फल शरण तुम्हारी।देव दनुज नर भूप भिखारी॥
जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा।तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा॥
पृर्णेन्दु निसि बासर स्वामी।बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी॥
॥ दोहा ॥
परशुराम को चारू चरित,मेटत सकल अज्ञान।
शरण पड़े को देत प्रभु,सदा सुयश सम्मान॥
॥ श्लोक ॥
भृगुदेव कुलं भानुं,सहस्रबाहुर्मर्दनम्।
रेणुका नयना नंदं,परशुंवन्दे विप्रधनम्॥
श्री परशुराम चालीसा का संपूर्ण विवरण
परशुराम चालीसा एक धार्मिक स्तोत्र है जो भगवान परशुराम के जीवन, वीरता, और उनके अवतार के महात्म्य का वर्णन करता है। यह चालीसा उन व्यक्तियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जो भगवान परशुराम की आराधना करते हैं और उनसे बल, ज्ञान, और साधना की प्रेरणा लेते हैं। परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं और उन्होंने पृथ्वी को अधर्मियों और अत्याचारियों से मुक्त करने के लिए कई बार जन्म लिया।
दोहा
श्री गुरु चरण सरोज छवि,निज मन मन्दिर धारि।
सुमरि गजानन शारदा,गहि आशिष त्रिपुरारि॥
इस दोहे में कवि ने पहले भगवान गणेश, माता शारदा (सरस्वती) और त्रिपुरारि (शिव) की वंदना की है। कवि कहता है कि वह भगवान के चरणों को अपने मन के मंदिर में धारण करता है और गणेश, शारदा एवं शिव से आशीर्वाद की याचना करता है। गणेश भगवान समस्त विघ्नों को दूर करने वाले हैं, माता शारदा विद्या और ज्ञान की देवी हैं, और त्रिपुरारि शिव संहार और पुनः सृजन के देवता हैं। यह आशीर्वाद हमें जीवन में सही मार्ग दिखाने में मदद करता है।
बुद्धिहीन जन जानिये,अवगुणों का भण्डार।
बरणों परशुराम सुयश,निज मति के अनुसार॥
कवि स्वयं को बुद्धिहीन और अवगुणों से भरा मानते हुए कहते हैं कि मैं अपनी सीमित बुद्धि से भगवान परशुराम के यश का वर्णन करने का प्रयास कर रहा हूँ। यद्यपि मेरी मति सीमित है, फिर भी मैं अपनी श्रद्धा से उनका गुणगान कर रहा हूँ।
चौपाई
जय प्रभु परशुराम सुख सागर।
जय मुनीश गुण ज्ञान दिवाकर॥
पहली चौपाई में परशुराम को सुख और शांति का सागर कहा गया है। उन्हें ज्ञान और गुणों का सूर्य बताया गया है। वह ज्ञान के प्रतीक हैं और उनके आशीर्वाद से हर साधक जीवन में प्रकाश और दिशा प्राप्त करता है।
भृगुकुल मुकुट विकट रणधीरा।
क्षत्रिय तेज मुख संत शरीरा॥
यहां परशुराम को भृगु कुल का मुकुट (गौरव) कहा गया है। वह महान योद्धा हैं जिन्होंने संसार में अनेक रणों में विजय प्राप्त की। उनके चेहरे पर क्षत्रियों का तेज और उनके शरीर में संतों की शांति दिखती है। उनके जीवन में संत और योद्धा दोनों का समन्वय है।
जमदग्नी सुत रेणुका जाया।
तेज प्रताप सकल जग छाया॥
भगवान परशुराम के माता-पिता जमदग्नी और रेणुका हैं। उनका तेज और प्रताप पूरे संसार में व्याप्त है। उनके जन्म से समस्त पृथ्वी पर धर्म की स्थापना हुई और अधर्म का नाश हुआ।
मास बैसाख सित पच्छ उदारा।
तृतीया पुनर्वसु मनुहारा॥
परशुराम का जन्म बैसाख मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ। यह समय अत्यंत पवित्र माना जाता है और इसी कारण इस दिन को परशुराम जयंती के रूप में मनाया जाता है।
प्रहर प्रथम निशा शीत न घामा।
तिथि प्रदोष व्यापि सुखधामा॥
यह चौपाई बताती है कि उनके जन्म के समय न तो ठंड थी और न ही गर्मी। यह समय प्रकृति के संतुलन और शांति का प्रतीक है। प्रदोष काल का समय भगवान के जन्म के लिए उचित माना गया और उस समय हर ओर सुख और शांति का वातावरण था।
तब ऋषि कुटीर रूदन शिशु कीन्हा।
रेणुका कोखि जनम हरि लीन्हा॥
परशुराम का जन्म एक ऋषि के कुटीर में हुआ। रेणुका माता के गर्भ से जब वह प्रकट हुए, तो शिशु रूप में उन्होंने पहली बार रुदन किया। यह उनके मानवीय अवतार का संकेत था, जिसके माध्यम से वह संसार में धर्म की स्थापना करेंगे।
निज घर उच्च ग्रह छः ठाढ़े।
मिथुन राशि राहु सुख गाढ़े॥
यहां परशुराम के जन्म के समय के ग्रहों की स्थिति का वर्णन किया गया है। उनके घर के ग्रह उच्च स्थान पर थे, और मिथुन राशि में राहु की स्थिति ने उनकी जन्म कुंडली को और भी अधिक प्रभावशाली बना दिया।
तेज-ज्ञान मिल नर तनु धारा।
जमदग्नी घर ब्रह्म अवतारा॥
परशुराम ने मानव रूप में जन्म लिया लेकिन उनके तेज और ज्ञान से यह स्पष्ट था कि वह कोई साधारण मानव नहीं हैं। वह जमदग्नी के घर में ब्रह्म का अवतार माने गए, अर्थात वह ईश्वर के अवतार थे, जो धरती पर धर्म की पुनर्स्थापना करने आए थे।
धरा राम शिशु पावन नामा।
नाम जपत जग लह विश्रामा॥
भगवान परशुराम का नाम राम रखा गया और यह नाम पावन और शांति का प्रतीक है। उनके नाम का जाप करने से संसार को शांति और विश्राम प्राप्त होता है। उनके नाम के उच्चारण से अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना होती है।
भाल त्रिपुण्ड जटा सिर सुन्दर।
कांधे मुंज जनेऊ मनहर॥
यहां परशुराम के स्वरूप का वर्णन किया गया है। उनके मस्तक पर त्रिपुण्ड (तीन रेखाएं) का चिह्न है, जो शिव के अनुयायी होने का प्रतीक है। उनके सिर पर सुंदर जटा है और उनके कंधे पर मुंज की जनेऊ है, जो उनकी ब्राह्मणीय पहचान का प्रतीक है।
मंजु मेखला कटि मृगछाला।
रूद्र माला बर वक्ष विशाला॥
उनकी कमर पर मृगछाला बंधी है और उनके वक्ष पर रुद्राक्ष की माला सुशोभित है। उनका विशाल शरीर एक योद्धा के रूप में उनकी शक्ति और पराक्रम का प्रतीक है।
पीत बसन सुन्दर तनु सोहें।
कंध तुणीर धनुष मन मोहें॥
उन्होंने पीले वस्त्र धारण किए हैं, जो उनकी दिव्यता का संकेत है। उनके कंधे पर तुणीर और धनुष शोभा पाते हैं, जो उनकी युद्ध क्षमता और पराक्रम को दर्शाते हैं।
वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति ज्ञाता।
क्रोध रूप तुम जग विख्याता॥
परशुराम वेद, पुराण, श्रुति और स्मृति के ज्ञाता हैं। उनके पास अपार विद्या और ज्ञान है। संसार में वह क्रोध के रूप में भी विख्यात हैं, क्योंकि वह अधर्म के विनाश के लिए प्रसिद्ध हुए।
दायें हाथ श्रीपरशु उठावा।
वेद-संहिता बायें सुहावा॥
परशुराम के दायें हाथ में उनका परशु (फरसा) शोभायमान है, जो उनके योद्धा रूप का प्रतीक है। वहीं, उनके बायें हाथ में वेदों की संहिता शोभा देती है, जो उनके ज्ञान और शिक्षा के प्रति समर्पण को दर्शाती है।
विद्यावान गुण ज्ञान अपारा।
शास्त्र-शस्त्र दोउ पर अधिकारा॥
भगवान परशुराम को अपार विद्या और ज्ञान प्राप्त है। उन्होंने शास्त्रों (धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों) और शस्त्रों (हथियारों) दोनों में महारत हासिल की है। वह केवल एक वीर योद्धा ही नहीं, बल्कि महान ज्ञानी भी हैं, जिन्होंने दोनों ही क्षेत्रों में विशेष अधिकार प्राप्त किया है।
भुवन चारिदस अरु नवखंडा।
चहुं दिशि सुयश प्रताप प्रचंडा॥
भगवान परशुराम के यश और प्रताप का विस्तार चारों दिशाओं में हुआ है। वह पूरे चौदह भुवनों (लोकों) और नौ खंडों (महाद्वीपों) में अपने बल, पराक्रम, और गुणों के लिए विख्यात हैं। उनका सुयश और प्रताप इतना प्रचंड है कि हर कोई उनके नाम से ही श्रद्धा और भय का अनुभव करता है।
एक बार गणपति के संगा।
जूझे भृगुकुल कमल पतंगा॥
यह चौपाई भगवान परशुराम और गणेश जी के संघर्ष का वर्णन करती है। एक बार परशुराम गणपति के साथ युद्ध में संलग्न हुए। परशुराम भृगुकुल के गौरव थे, जो रणभूमि में कमल की तरह खिले हुए थे, जबकि गणपति एक मस्त हाथी के समान थे।
दांत तोड़ रण कीन्ह विरामा।
एक दंत गणपति भयो नामा॥
युद्ध के दौरान परशुराम ने गणपति का एक दांत तोड़ दिया, जिसके कारण गणपति को “एक दंत” कहा जाने लगा। इस घटना ने गणपति को एक अद्वितीय पहचान दी और परशुराम के अद्भुत पराक्रम को भी प्रदर्शित किया।
कार्तवीर्य अर्जुन भूपाला।
सहस्रबाहु दुर्जन विकराला॥
यहां परशुराम के महान शत्रु कार्तवीर्य अर्जुन का उल्लेख किया गया है, जिसे सहस्रबाहु (हजार भुजाओं वाला) भी कहा जाता है। कार्तवीर्य अर्जुन अत्यंत दुर्जन और विकराल राजा था, जो अपने बल और पराक्रम के कारण संपूर्ण जगत में कुख्यात था।
सुरगऊ लखि जमदग्नी पांहीं।
रखिहहुं निज घर ठानि मन मांहीं॥
कार्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नी ऋषि के पास एक दिव्य गाय (कामधेनु) को देखा। उस गाय के चमत्कारी गुणों को देखकर उसने उसे अपने महल में ले जाने का निश्चय किया। उसने सोचा कि इस गाय को अपने घर में रखकर वह अद्भुत लाभ प्राप्त कर सकेगा।
मिली न मांगि तब कीन्ह लड़ाई।
भयो पराजित जगत हंसाई॥
जब जमदग्नी ऋषि ने उसे कामधेनु गाय देने से इंकार कर दिया, तो कार्तवीर्य अर्जुन ने उनसे युद्ध किया। परंतु इस युद्ध में उसे पराजय का सामना करना पड़ा, जिससे संपूर्ण जगत में उसकी हंसी उड़ाई गई।
तन खल हृदय भई रिस गाढ़ी।
रिपुता मुनि सौं अतिसय बाढ़ी॥
इस पराजय से कार्तवीर्य अर्जुन के मन में जमदग्नी ऋषि के प्रति गहरी घृणा और क्रोध उत्पन्न हो गया। उसके हृदय में बदला लेने की भावना और भी प्रबल हो गई और उसने मुनि जमदग्नी को अपना सबसे बड़ा शत्रु मान लिया।
ऋषिवर रहे ध्यान लवलीना।
तिन्ह पर शक्तिघात नृप कीन्हा॥
जमदग्नी ऋषि ध्यान में मग्न थे, जब कार्तवीर्य अर्जुन ने उन पर अचानक आक्रमण किया। उसने ऋषि पर शक्तिघात (हथियार से हमला) किया। यह एक घोर अन्याय था, क्योंकि वह एक निर्दोष और तपस्वी ऋषि पर आक्रमण कर रहा था।
लगत शक्ति जमदग्नी निपाता।
मनहुं क्षत्रिकुल बाम विधाता॥
जब शक्ति का प्रहार हुआ, तो जमदग्नी ऋषि वीरगति को प्राप्त हुए। ऐसा लगा मानो क्षत्रिय कुल के लिए यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। परशुराम के मन में क्षत्रियों के प्रति घोर आक्रोश और प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो गई।
पितु-बध मातु-रूदन सुनि भारा।
भा अति क्रोध मन शोक अपारा॥
जब परशुराम ने अपने पिता के वध और अपनी माता के करुण रुदन को सुना, तो उनके हृदय में अत्यधिक क्रोध और शोक का संचार हुआ। यह क्रोध इतना तीव्र था कि वह तुरंत बदला लेने के लिए तैयार हो गए।
कर गहि तीक्षण परशु कराला।
दुष्ट हनन कीन्हेउ तत्काला॥
परशुराम ने तुरंत अपने तीक्ष्ण परशु (फरसा) को उठाया और दुष्टों का वध करने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अत्याचारी क्षत्रियों का संहार किया और अपने पिता के वध का प्रतिशोध लिया।
क्षत्रिय रुधिर पितु तर्पण कीन्हा।
पितु-बध प्रतिशोध सुत लीन्हा॥
परशुराम ने क्षत्रियों के रक्त से अपने पिता का तर्पण किया, जो उस समय का अत्यंत क्रूर और न्यायसंगत प्रतिशोध था। उन्होंने अपने पिता की हत्या का बदला लिया और अधर्मियों का नाश किया।
इक्कीस बार भू क्षत्रिय बिहीनी।
छीन धरा बिप्रन्ह कहँ दीनी॥
परशुराम ने इक्कीस बार धरती को क्षत्रियों से विहीन कर दिया। उन्होंने पृथ्वी से क्षत्रिय वंश को समाप्त कर दिया और उसके बाद वह भूमि ब्राह्मणों को दान में दे दी।
जुग त्रेता कर चरित सुहाई।
शिव-धनु भंग कीन्ह रघुराई॥
त्रेता युग में, भगवान राम ने शिव धनुष को तोड़ा। परशुराम को जब यह ज्ञात हुआ, तो वह तुरंत वहां पहुंचे और राम का सामना किया। वह राम को चुनौती देने के लिए तैयार थे, लेकिन राम ने उन्हें विनम्रता से शांत कर दिया।
गुरु धनु भंजक रिपु करि जाना।
तब समूल नाश ताहि ठाना॥
परशुराम ने सोचा कि जो भी व्यक्ति उनके गुरु के धनुष को तोड़ेगा, वह उनका शत्रु होगा। परंतु राम की शक्ति और विनम्रता देखकर उन्होंने अपने विचार बदल दिए और राम को अपना आदर और आशीर्वाद प्रदान किया।
कर जोरि तब राम रघुराई।
बिनय कीन्ही पुनि शक्ति दिखाई॥
जब भगवान राम ने परशुराम से विनम्रता से हाथ जोड़कर निवेदन किया, तो परशुराम का क्रोध शांत हो गया। राम की विनयशीलता को देखकर उन्होंने अपनी शक्ति और क्रोध को नियंत्रित किया और राम को अपनी दिव्य शक्ति के दर्शन कराए। यह घटना परशुराम के स्वभाव में संतुलन को दर्शाती है, जहाँ वह क्रोध को भी त्याग कर शांति को अपनाते हैं।
भीष्म द्रोण कर्ण बलवन्ता।
भये शिष्या द्वापर महँ अनन्ता॥
द्वापर युग में, महाभारत के युद्ध से पहले, परशुराम ने भीष्म, द्रोणाचार्य, और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को शास्त्र और शस्त्रों की शिक्षा दी। ये सभी परशुराम के शिष्य बने और अपने समय के अद्वितीय योद्धा कहलाए। परशुराम की विद्या और शक्ति से ये महान योद्धा अद्वितीय हो गए।
शास्त्र विद्या देह सुयश कमावा।
गुरु प्रताप दिगन्त फिरावा॥
परशुराम ने अपने शिष्यों को शास्त्र और शस्त्र विद्या में पारंगत किया, जिससे उन्होंने समस्त संसार में यश और प्रसिद्धि प्राप्त की। उनके शिष्यों ने उनकी विद्या और प्रताप को दुनिया भर में फैलाया। परशुराम के आशीर्वाद से उनके शिष्यों ने अद्वितीय वीरता और ज्ञान प्राप्त किया।
चारों युग तव महिमा गाई।
सुर मुनि मनुज दनुज समुदाई॥
परशुराम की महिमा चारों युगों में गाई जाती है—सतयुग, त्रेता, द्वापर, और कलियुग में भी उनकी उपासना होती है। देवता, मुनि, मनुष्य और दानव सभी उनकी महिमा का गुणगान करते हैं। उनकी शक्ति और उपस्थिति सभी युगों में स्थायी मानी जाती है।
दे कश्यप सों संपदा भाई।
तप कीन्हा महेन्द्र गिरि जाई॥
अपने क्रोध और शक्ति का प्रदर्शन करने के बाद, परशुराम ने तपस्या के लिए कश्यप मुनि को समस्त संपदा देकर महेंद्र पर्वत की ओर प्रस्थान किया। वहां उन्होंने घोर तपस्या की, जो उनके शांत और वैराग्यपूर्ण जीवन की ओर संकेत करती है।
अब लौं लीन समाधि नाथा।
सकल लोक नावइ नित माथा॥
परशुराम आज भी महेंद्र पर्वत पर ध्यान और समाधि में लीन हैं। उनका तप और साधना इतना महान है कि समस्त संसार के लोग उन्हें नमन करते हैं। वे ब्रह्मांड के सभी प्राणियों के लिए पूजनीय बने हुए हैं और सभी युगों में उनकी आराधना की जाती है।
चारों वर्ण एक सम जाना।
समदर्शी प्रभु तुम भगवाना॥
परशुराम चारों वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र—को समान रूप से देखते हैं। उनके लिए कोई भेदभाव नहीं है, वे समदर्शी भगवान हैं। उन्होंने समस्त जीवों को एक समान माना और सभी के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया।
ललहिं चारि फल शरण तुम्हारी।
देव दनुज नर भूप भिखारी॥
जो कोई भी परशुराम की शरण में आता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों फलों को प्राप्त करता है। देवता, दानव, मनुष्य, राजा, और यहां तक कि भिखारी भी उनकी शरण में आकर महानता प्राप्त करते हैं।
जो यह पढ़ै श्री परशु चालीसा।
तिन्ह अनुकूल सदा गौरीसा॥
जो व्यक्ति परशुराम चालीसा का पाठ करता है, उसे सदैव गौरीपति भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। शिवजी सदा उस व्यक्ति पर अनुकूल रहते हैं और उसे हर प्रकार की सिद्धि और सफलता प्राप्त होती है।
पृर्णेन्दु निसि बासर स्वामी।
बसहु हृदय प्रभु अन्तरयामी॥
परशुराम, जो पूर्णिमा के चंद्रमा के समान उज्ज्वल और दिन-रात के स्वामी हैं, उस भक्त के हृदय में निवास करते हैं। वे अन्तर्यामी हैं और हर व्यक्ति के मन के भावों को जानते हैं।
दोहा
परशुराम को चारू चरित,मेटत सकल अज्ञान।
शरण पड़े को देत प्रभु,सदा सुयश सम्मान॥
भगवान परशुराम का चरित्र अत्यंत महान और पवित्र है। उनका गुणगान समस्त अज्ञान को नष्ट करता है। जो भी व्यक्ति उनकी शरण में आता है, उसे परशुराम सदा सुयश और सम्मान प्रदान करते हैं। उनका जीवन और कार्य हमें प्रेरणा देते हैं कि हम भी धर्म और सत्य के मार्ग पर चलें।
श्लोक
भृगुदेव कुलं भानुं,सहस्रबाहुर्मर्दनम्।
रेणुका नयना नंदं,परशुंवन्दे विप्रधनम्॥
यह श्लोक भगवान परशुराम की स्तुति करता है। वह भृगु कुल के सूर्य हैं और सहस्रबाहु (कार्तवीर्य अर्जुन) का संहार करने वाले हैं। वे माता रेणुका के पुत्र हैं और ब्राह्मणों के धन हैं। उनकी शक्ति और महिमा का वर्णन इस श्लोक में किया गया है और उन्हें नमन किया गया है।
परशुराम चालीसा के माध्यम से भगवान परशुराम के अद्वितीय चरित्र, वीरता और उनकी शिक्षाओं का गहन अध्ययन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं और विवरणों को और अधिक विस्तार में समझा जा सकता है:
परशुराम की विशेषताएँ
1. भगवान विष्णु का छठा अवतार
भगवान परशुराम को भगवान विष्णु के छठे अवतार के रूप में पूजा जाता है। उनका अवतार विशेष रूप से क्षत्रिय अधर्मियों का नाश करने और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए हुआ था। परशुराम का व्यक्तित्व योद्धा और तपस्वी दोनों का अद्वितीय मिश्रण है। वे ब्राह्मण कुल में जन्मे, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र क्षत्रिय धर्म के अनुरूप रहा, जिसमें उन्होंने तलवार और परशु (फरसा) का प्रयोग किया।
2. शिक्षा और युद्धकला के अद्वितीय गुरु
परशुराम ने भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी। उनका ज्ञान केवल हथियारों तक सीमित नहीं था, बल्कि वे वेदों और पुराणों के भी महान ज्ञाता थे। उन्होंने अपने शिष्यों को न केवल युद्धकला सिखाई बल्कि उन्हें धर्म और नैतिकता के महत्व से भी अवगत कराया।
3. क्षत्रियों का 21 बार नाश
भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी से अधर्मी क्षत्रियों का नाश किया। यह उनकी प्रतिज्ञा थी कि वे अपने पिता के अपमान और हत्या का बदला लेंगे। उन्होंने क्षत्रियों को पराजित कर पूरी धरती को ब्राह्मणों को समर्पित कर दिया। यह उनका धर्मस्थापना का कार्य था, जिसे उन्होंने अपनी महान प्रतिज्ञा के साथ पूरा किया।
4. शांति और तपस्या का प्रतीक
परशुराम ने बाद में अपने क्रोध और प्रतिशोध को त्यागकर महेंद्र पर्वत पर जाकर तपस्या की। उनकी तपस्या ने उन्हें एक शांत, समाधिस्थ और वैराग्यपूर्ण जीवन में स्थापित किया। यह दिखाता है कि उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण पाकर तप और ध्यान का मार्ग चुना, जो उनकी योग्यता और आत्म-संयम को दर्शाता है।
परशुराम और शिवजी का संबंध
भगवान परशुराम शिवजी के परम भक्त थे। शिवजी ने परशुराम को परशु (फरसा) प्रदान किया था, जिसे उन्होंने अपनी शक्ति का प्रतीक बनाया। शिवजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया था कि वह अधर्म के नाश के लिए सदैव अपनी शक्ति का प्रयोग करें। शिव-धनुष की घटना में भी यह स्पष्ट होता है कि भगवान राम ने शिव का धनुष तोड़ा, जिसके कारण परशुराम ने राम से संघर्ष करने की ठानी। लेकिन जब परशुराम ने राम को भगवान विष्णु का अवतार समझा, तब उन्होंने अपना क्रोध शांत किया और राम को अपना आशीर्वाद दिया।
धार्मिक और आध्यात्मिक संदेश
परशुराम चालीसा न केवल परशुराम की वीरता का वर्णन करती है, बल्कि इसमें छिपे धार्मिक और आध्यात्मिक संदेश भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं:
- अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना: परशुराम के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि धर्म की रक्षा के लिए हमें अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। अधर्मी और अन्यायी शक्तियों का नाश आवश्यक है, चाहे उसके लिए कितनी ही बड़ी बलिदान क्यों न देनी पड़े।
- ज्ञान और बल का संतुलन: परशुराम का जीवन हमें सिखाता है कि बल और ज्ञान दोनों का संतुलन आवश्यक है। उन्होंने शस्त्र विद्या के साथ ही शास्त्र विद्या में भी महारत हासिल की, जो यह दर्शाता है कि जीवन में शक्ति और बुद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं।
- विनम्रता और क्षमा: भगवान परशुराम का चरित्र यह बताता है कि शक्ति के साथ विनम्रता और क्षमा का भी होना अनिवार्य है। राम के साथ उनका संवाद इस बात का प्रतीक है कि जब हमें सच्चे धर्म का एहसास होता है, तो हमें क्रोध त्याग कर क्षमा का मार्ग अपनाना चाहिए।
चालीसा का महत्व
परशुराम चालीसा का पाठ करने से भक्त को भगवान परशुराम का आशीर्वाद प्राप्त होता है। यह चालीसा न केवल उनके जीवन और कार्यों का वर्णन करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि किस प्रकार व्यक्ति अपने जीवन में सत्य, धर्म और न्याय के मार्ग पर चल सकता है। परशुराम की पूजा करने से व्यक्ति को बल, साहस और ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह चालीसा उनके भक्तों को कठिन समय में धैर्य और शक्ति प्रदान करती है।